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नागरिकता क़ानून-एनआरसी पर प्रदर्शन में कौन ढूंढ रहा है हिंदू-मुसलमान?

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों पर हुए हमले से पैदा हुई राष्ट्रीय उत्तेजना और विक्षोभ ने कुछ समय के लिए नागरिकता संबंधी क़ानून और नागरिकता के लिए पंजीकरण के ख़िलाफ़ चल रहे राष्ट्रव्यापी प्रतिरोध की ओर से ध्यान हटा दिया है। याद रखना ज़रूरी है कि यह प्रतिरोध अभी चल रहा है। कोलकाता जैसा बड़ा शहर हो या मालेगाँव या गया या कोच्चि, लोग अलग-अलग ढंग से इस प्रतिरोध को जारी रखे हुए हैं। जेएनयू पर हुए हुए हमले ने दिलचस्प एकजुटता भी पैदा की है। जामा मसजिद की सीढ़ियों पर जेएनयू के लिए आवाज़ उठाने हज़ारों स्त्रियाँ जमा हुईं। शाहीन बाग़ में भी यह एकजुटता व्यक्त हुई।

यह ठीक है कि इस देश व्यापी उभार में उत्साह है। हज़ारों और कुछ जगह लाख-लाख की तादाद में उमड़ी जनता की छवियाँ उम्मीद जगाती हैं। इसके बाद एक बड़ा लेकिन है। क्या इस विक्षोभ को जन आंदोलन कहा जा सकता है?

जो सड़क पर हैं, वे भारत के जन ही हैं। फिर भी देखा जा सकता है कि इसमें भारत के एक तबक़े को शामिल होने में अभी भी संकोच है। जो इस जन उभार से कटा-कटा है, वह हिंदू समाज है। बंगाल और केरल को अपवाद माना जाना चाहिए। असम तो सबसे अलग है। वहाँ के आंदोलन को बाहरी विरोधी बताया जा रहा है लेकिन यह सच है कि बंगाली मुसलमान जो असमिया भाषी भी हैं, अपनी जगह के प्रति पूरी तरह आश्वस्त नहीं हैं। क्या बंगाली हिंदू को इस नये क़ानून से उसकी तरह की असुरक्षा है?

जो असम के मुसलमान महसूस कर रहे हैं, वह और तीव्रता से दूसरे इलाक़ों के मुसलमान अनुभव कर रहे हैं। क़ानून का प्रतीकात्मक अर्थ उन तक पहुँच गया है।

इसलिए इस पर कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए कि वे एक तड़प के साथ सड़क पर निकल पड़े हैं। उन्होंने किसी नेता, किसी दल का इंतज़ार नहीं किया है। यह विडंबना ही है कि मुसलमान परस्त माने जाने वाले दल फूँक-फूँक कर क़दम उठा रहे हैं। वे ख़ुद तो नेतृत्वकर्ता नहीं ही हैं, इस प्रतिरोध के प्रति उनका समर्थन सांकेतिक ही रहा है। इस वजह से यह प्रमुख रूप से मुसलमानों का आंदोलन बने रहने को बाध्य है।
 
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