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निजता के अधिकार पर प्रहार-- रीतिका खेड़ा

पिछले हफ्ते जब सुप्रीम कोर्ट में ‘राइट टू प्राइवसी' यानी निजता के अधिकार पर सुनवाई चल रही थी, तब सरकारी वकील केके वेणुगोपाल ने पीठ पर बैठे नौ जजों से कहा कि ‘जीवन का अधिकार', ‘निजता के अधिकार' से ऊपर है, और चूंकि आधार जीवन के अधिकार को ‘रीयलाइज' करने के लिए जरूरी है, इसलिए आधार प्रोजेक्ट को चलने देना चाहिए, बावजूद इसके कि शायद कहीं और कभी-कभी उससे निजता के अधिकार को हानि हो.

हालांकि, निजता के अधिकार पर विचार कर रही नौ जजों की पीठ आधार पर विचार नहीं कर रही थी.


सरकारी वकील वेणुगोपाल का सुप्रीम कोर्ट में दावा था कि आधार की वजह से नरेगा, पेंशन और राशन की व्यवस्था चल रही, और पहले से बेहतर चल रही है. उनके इस कथन से वे सभी हैरान हैं, जिनका किसी भी तरीके से, जन वितरण प्रणाली, नरेगा) या वृद्धावस्था-विधवा पेंशन से वास्ता है.


वेणुगोपाल की यह बात सही है कि राशन, पेंशन और नरेगा आदि योजनाएं हजारों लोगों के जीवन के अधिकार को कायम रखने में मदद करती हैं. मौजूदा सरकार की तरफ से भी ऐसा बयान आया है, यह सराहनीय बात है. लेकिन, हैरानी इस बात से है कि जिस आधार की वजह से करोड़ों लोगों का नुकसान हो रहा है, उसी आधार योजना को वास्तविकता के बिल्कुल विपरीत कोर्ट में, नौ जजों के सामने, कहा गया कि वह मददगार है!


भारत सरकार के खुद के आंकड़ों के अनुसार, आधार लगाने से लाखों परिवारों का राशन रुक गया है. उदाहरण के तौर पर, राजस्थान में, आधार आने के बाद, 33 लाख परिवार, जो पहले राशन उठा रहे थे, अब वो नहीं ले पा रहे हैं. बिल्कुल इसी तरह, झारखंड के खाद्य विभाग के अनुसार, हर महीने 25 लाख लोग आधार लगने के बाद राशन से वंचित रह जाते हैं. कहीं बिजली नहीं है, तो कहीं टाॅवर ही नहीं है, तो कहीं उनका अंगूठा ही मैच नहीं हो रहा है, इत्यादि आधारजनित समस्याएं हैं.


कुछ लोगों का मानना है कि यह सब शुरुआती दौर की दिक्कतें हैं, जो धीरे-धीरे ठीक हो जायेंगी. लेकिन, जिन क्षेत्रों में (जैसे कि रांची जिला) यह एक साल से लागू है, वहां भी छूटे हुए परिवारों की संख्या काफी है. उदाहरणस्वरूप, जून 2017 में रांची में केवल 67 प्रतिशत परिवार आधार प्रणाली के तहत अनाज ले पाये, बाकी नहीं.


आधार से नुकसान केवल जन वितरण प्रणाली में ही नहीं, अन्य कल्याणकारी योजनाओं में भी हो रहा है. नरेगा और पेंशन में भी लोग चुप-चाप सह रहे हैं. बूढ़ों की पेंशन रुक गयी है, और उन्हें पता भी नहीं है क्यों? बैंक से पूछने पर पता चला कि आधार नंबर लिंक नहीं था, लेकिन किसी ने उस बूढ़े को बताया तक नहीं कि उसे आधार नंबर देने की जरूरत है.


कहीं आधार नंबर गलत डाल दिया, तो पेंशन या मजदूरी रुक गयी, और कहीं सब भागा-दौड़ी करने के बाद, मशीन अंगूठा नहीं उठा रही है. ये सारी दिक्कतें हैं.


दुख की बात यह है कि सरकार इस बीमारी को रोकने के बजाय और फैलाने की कोशिशों में लगी है. अब उसकी मंशा है कि इसे मध्याह्न भोजन, स्कॉलरशिप, इत्यादि में लागू कर दिया जाये. मध्याह्न भोजन में कहीं भी मजबूत तथ्य सामने नहीं आये, जिससे यह स्थापित होता हो कि बड़े पैमाने पर हाजिरी बढ़ा कर बच्चों के पैसों को ऐंठा जा रहा है.


मध्याह्न भोजन में और तरह की दिक्कतें हैं- जैसे की खाने की गुणवत्ता, बीच-बीच में रुकावट, इत्यादि. लेकिन, ये त्रुटियां आधार जोड़ने से नहीं ठीक हो सकतीं. झारखंड के आवासीय स्कूलों में, जहां बायोमेट्रिक हाजिरी लागू हो गयी है, वहां दिख रहा है कि जितने बच्चे वास्तव में उपस्थित थे, उस से ‘कम बच्चों' की हाजिरी बायोमेट्रिक पोर्टल पर दर्ज हो पा रही थी! यदि यह व्यापक दिक्कत है और भविष्य में सरकार आबंटन ऑनलाइन उपस्थिति के अनुसार देने लगेगी, तो बच्चों का और भी नुकसान होगा.


वास्तविकता तो यह है कि आधार पर सबका ध्यान केंद्रित करके, सरकार अपनी असली जिम्मेवारी से मुकरने की कोशिश कर रही है. और इन योजनाओं में जो असली मुद्दे हैं- जैसे कि जन वितरण प्रणाली में दाल-तेल शामिल करने की मांग, मध्याह्न भोजन में अंडा और अन्य पौष्टिक खाना, नरेगा में समय पर मजदूरी का भुगतान, वृद्धावस्था-विधवा पेंशन में केंद्रीय योगदान को रुपये 200 प्रति महीने से बढ़ाना- सरकार इन सब से बचने में लगी हुई है.


नौ जजों की पीठ को चाहिए कि वह जमीन पर आधार से नुकसान को पहचानते हुए, सरकार को आदेश दे कि सरकार ऐसे सारे नोटिफिकेशन वापस ले, जिनके द्वारा आधार को इन योजनाओं में अनिवार्य बनाया जा रहा है, ताकि गरीबों का जीने का अधिकार कायम रहे. आधार से ना सिर्फ निजता के अधिकार, बल्कि जीवन के अधिकार की भी हानि हो रही है. इस सच को पहचानने का समय आ गया है.