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निर्णायक कार्रवाई, निशाने पर आदिवासी!

नई दिल्ली [इरा झा]। नक्सलियों पर निर्णायक कार्रवाई को लेकर सरकार इस बार गंभीर नजर आ रही है, मगर उसकी तैयारी अब भी अधूरी ही दिखाई पड़ रही है। केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम के लगातार आ रहे बयानों से ऐसा लगता है कि अब कभी भी नक्सल पीड़ित सात राज्यों में उनके खिलाफ कोई बड़ी कार्रवाई हो सकती है। इस बीच ऐसे विज्ञापनों के दौर भी चल रहे हैं, जिनसे नक्सलवाद के विरोध में जनमत बनाने और आदिवासियों की हमदर्दी बटोरने का इरादा साफ दिखता है।

इस सबके बीच एक खुशनुमा खबर यह भी है कि चिदंबरम चाहते हैं कि कोई उनकी नक्सलियों से बातचीत कराए। उधर पश्चिम बंगाल के नक्सली कमाडर किशनजी ने भी बातचीत का रूझान जताया है। बेशक दोनों तरफ से यह समझदार पेशकश है और इसका स्वागत किया जाना चाहिए, लेकिन अब तक यह स्पष्ट नहीं है कि नक्सलियों पर कार्रवाई और बातचीत साथ-साथ चलेगी या नक्सलियों से हिंसा रोकने की बात कहने वाले गृहमंत्री अपने अ‌र्द्धसैनिक दस्तों को भी यह हिदायत देंगे कि वे गोली के बदले गोली का चक्र रोकें और अगले निर्देश का इंतजार करें।

इसी तरह क्या नक्सली भी बेदर्दी से खून बहाने से तौबा करके अपनी बंदूकों और बारूदी सुरंगों को कुछ समय के लिए भूलकर बातचीत की लोकतात्रिक की राह पर कदम आगे बढ़ाएंगे।

दरअसल, नक्सलवाद की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि जिन जगहों पर इसकी पैठ बनी है, वहा भूख से जूझते, जीवन के लिए संघर्ष कर रहे पुलिस और प्रशासन के अत्याचार से पीड़ित और शोषित करीब पाच करोड़ आदिवासियों का हुजूम है। मुल्क आजाद हो जाने के बावजूद सदियों शासन ने इनकी सुध नहीं ली। इनके दु:ख-दर्द नहीं बाटे। अपने पुरखों के जंगल में देश के आजाद होते ही आदिवासी भी आजादी की सास लेने के बजाय बेगाने हो गए। जंगल का मालिक वन विभाग और उनके जीवन के मालिक पुलिसकर्मी बन गए।

आजाद देश की जनता की सरकारों ने अपने कारकुनों को इन बेजुबान वनवासियों से लूट-खसोट और उन पर जुल्म करने से नहीं रोका, लेकिन नक्सलियों के पैर जमाते ही शासन को इनका खयाल आने लगा। इन्हें मुख्यधारा में शामिल करने की चिंता सताने लगी और उसके कारिंदे दुबकने लगे, मगर भ्रष्टाचार से बाज नहीं आए। पश्चिम से लेकर पूरब तक एक लंबी पट्टी में महाराष्ट्र, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, आध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश और बंगाल के नक्शों पर नजर डालिए।

स्पष्ट नजर आ जाएगा कि नक्सल प्रभावित इलाकों में कौन लोग बसे हैं और उनकी आमदनी कितनी है। उन्हें कितना पढ़ाया लिखाया गया है। उनकी जरूरतें पूरी करने के लिए सरकार ने क्या प्रबंध किए हैं। जो प्रबंध हैं, वे कितने कारगर हैं। क्या प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में तैनात डाक्टर की वहा मौजूदगी पर सरकार की तरफ से कभी नजर रखी गई है? बच्चों को मिलने वाले मिड-डे भोजन का किसी ने मुआयना करने की जरूरत समझी? उनकी आवागमन की तकलीफें, बाजार और रोजगार की सरकार को पहले कभी चिंता हुई है। यह चंद ऐसे अकाट्य तथ्य हैं, जिन्होंने इन इलाकों में नक्सलवाद को जड़ें जमाने में मदद की।

नक्सली चाहे जिस स्वार्थ से इन इलाकों में घुसे, पर वे इनके दर्द में हमदर्द हुए। वैसे सरकार भी चाहती तो इन इलाकों में पकड़ बना लेती। पर तब तो सरकारी नुमाइंदों का हाल यह था कि वे नक्सलियों की पकड़ बनने से पहले इन इलाकों में झाकते तक नहीं थे। उनकी नियुक्ति सिर्फ वेतन वसूली की रस्म अदायगी तक सीमित थी। वे शहरों से लगे कस्बों में बैठकर कागजों पर ही विकास योजनाओं को लागू करते और उनका पैसा अपनी जेबों के हवाले करते रहे। पर अफसोस कि सरकार ने इन्हें भी कभी नियंत्रित नहीं किया। उल्टे बंदूकधारी पुलिस को मनगंढ़त मामले दर्ज करने की छूट मिल गई। किसी भी गरीब की बेटी को उठाने का लाइसेंस मिल गया।

वजह सिर्फ इतनी कि वे जानते थे कि इस जंगल में कौन आएगा तस्दीक करने या फिर आज भी हिंदी बोलने या समझने में अक्षम गरीब आदिवासी किससे फरियाद करने जाएगा।

और जरा उन सरकारी विज्ञापनों के दूसरे पहलू पर भी नजर डालिए, जिनकी असलियत घने जंगलों से छनकर कभी बाहर ही नहीं आती। जंगल के उस पार का सच विज्ञापन की इन तस्वीरों से भी भयानक है। वजह यही है कि जंगल में या तो पुलिस का शासन चलता है या नक्सलियों का।

पुलिस ने भी नक्सलियों के नाम पर आम आदिवासियों के बेहिसाब एनकाउंटर किए हैं। पीयूसीएल की रिपोर्ट में ऐसी अनेक मुठभेड़ों का जिक्रहै, जिनकी भनक कभी दुनिया को नहीं लगी।

मिसाल के तौर पर बस्तर में मद्देड़ के सरपंच बंडे को तो सीआरपीएफ ने सिर्फ चुहलबाजी में मौत के घाट उतार दिया। उसने सीआरपीएफ की जीप के करीब से मोटरसाइकिल आगे निकालने की गुस्ताखी कर दी थी। जवानों द्वारा बस्तर के जंगलों में बलात्कार के दो चश्मदीदों को नदी में मरते दम तक डुबाया गया। इनमें से कोई भी नक्सली नहीं था मगर बस्तर कोई कश्मीर तो है नहीं, जिस पर पूरी दुनिया की निगाह लगी हो और जरा-सी जुंबिश होते ही सरकार को अपनी निष्पक्षता जताने कि लिए जाच बैठानी पड़े। इसलिए रोजमर्रा ऐसे जघन्य अत्याचारों के बावजूद आदिवासी इलाकों में इनका पर्दाफाश करने या विरोध के लिए न तो प्रेस में कोई खबर छपती है और न ही कोई आदोलन हो पाता है। ये तथा अनेक ऐसे ही और भी तथ्य हैं, जिन्होंने मेहमान बनकर आए नक्सलियों का आदिवासियों से अटूट रिश्ता बना दिया।

शहरों में बैठे लोग यह कल्पना ही नहीं कर सकते कि पुलिस और प्रशासन के छुटभैये अफसर गाव और जंगलों में कैसे बिगड़ैल रईसजादों या शहंशाहों की तरह बर्ताव करते हैं। नक्सलियों ने कभी जंगल से बाहर न झाकने वाले आम आदिवासी को ऐसे ही लोगों के शोषण से निजात दिलाने में मदद की।

यही वजह है कि आदिवासी उन्हें अपना सगा, रक्षक और मसीहा मानने लगे। उन्हें तो जो भी सुरक्षित जीवन की गारंटी देगा, उनका अपना हो जाएगा। नक्सली कौन हैं? शायद वे अब भी नहीं जानते। उन्हें यह भी नहीं पता कि वे किसी मकसद या सिद्धात के लिए जीने-मरने वाले लोग है। आम आदिवासी को तो सिर्फ इतना पता है कि वे मुसीबत में उनके काम आते हैं और उनके डर से पुलिस और फारेस्ट विभाग का आतंक कम हुआ है। उनसे मिट्टी के मोल नमक के बदले कीमती चिरौंजी और शहर की छह झाड़ुओं के बराबर एक फूलझाड़ू मिट्टी के मोल खरीदने वाले व्यापारी अब उन्हें घर के दरवाजे पर अच्छी रकम दे जाते हैं।

छत्तीसगढ़ में काग्रेस नेता महेंद्र कर्मा के नेतृत्व में सरकार समर्थित सलवा जुड़ूम को आदिवासियों ने इसीलिए पसंद नहीं किया। पूरी दुनिया में सलवा जुड़ूम को ऐसे प्रचारित किया गया, जैसे वह कोई अहिंसक गाधीवादी आदोलन हो। असलियत यह थी कि सलवा जुड़ूम के नाम पर पुलिस के हाथों आदिवासी प्रताड़ना का जबर्दस्त दौर चला। गाव के गाव खाली हो गए। सिर्फ अपनी नाक बचाने के लिए आदिवासियों को सलवा जुड़ूम के कैंप में ऐसे ठूंस दिया गया, मानो उनका गाव में रह पाना मुश्किल हो गया हो। सलवा जुड़ूम से आदिवासियों का जो हुआ सो हुआ, पर भाजपा और काग्रेस के छुटभैये नेताओं की दुकानें खुल गई। इस अभियान की लोकप्रियता का सबूत देखिए कि आदोलन के सिरमौर और छत्तीसगढ़ विधान सभा में विपक्ष यानी काग्रेस विधायक दल के नेता महेंद्र कर्मा अपने ही गृहक्षेत्र दंतेवाड़ा में 2008 का विधानसभा चुनाव बुरी तरह से हार गए।

अब रहा सवाल बातचीत या कार्रवाई का। अगर कार्रवाई हुई तो मरेगा आदिवासी ही। नक्सलियों के बड़े नेताओं तक सुरक्षा बल शायद ही पहुंच पाएं। वे अब तक आपातकाल में बस्तर के अबूझ माड़ में पनाह लेते थे, पर उनका इतिहास बताता है कि वे अब तक वहा से भी किसी अधिक सुरक्षित स्थान पर पनाह ले चुके होंगे। नक्सल इलाकों में अब सिर्फ चौथे, पाचवें, छठे क्रम के यानी नामालूम किस्म के नेता बचे हैं। इन्हें ही मारकर श्रेय लेना हो तो बात अलग है। इनमें ज्यादातर स्थानीय आदिवासी हैं।

ऐसे में आम आदिवासी और छुटभैये नक्सली नेता की पहचान कर पाना आसान नहीं है। सरकार को आदिवासियों की पहचान का भी कोई पक्का फार्मूला निकालना होगा ताकि उस पर निर्दोष लोगों की हत्या का कलंक न लगे।। कहीं ऐसा न हो कि आखिरी पंक्ति की इन नेताओं के चक्कर में सड़क चलते आदिवासी मार दिए जाएं।

आदिवासियों की फितरत आम शहरियों से अलग है। वे आम लोगों में घुलने-मिलने से कतराते हैं। सरकारी योजनाओं को शक की नजर से देखते हैं। इस अविश्वास का कारण है 1966 में बस्तर सरकारी गोलीकांड में वहा के शासक महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की हत्या। इस काड के लिए 2003 में काग्रेस की तरफ से छत्तीसगढ़ के तत्कालीन मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने वहा की जनता से माफी मागी थी और आदिवासी मान भी गए थे।

इसके अलावा पिछले कुछ वर्षो में शिक्षा के प्रसार से भी उनमें मेलजोल का जच्बा जागने लगा था, पर यदि अबकी बार केंद्र और राच्य सरकारों ने कोई बड़ी दमनात्मक कार्रवाई की तो आदिवासियों का विश्वास फिर टूट जाएगा। और मुख्यधारा में शामिल होने के बजाय डरे-सहमे आदिवासी घने जंगलों में फिर से गरीबी और पिछड़ेपन के अभिशाप से ढक जाएंगे। इसलिए यह जरूरी है कि सरकार आदिवासियों के बीच जो भी कार्रवाई करे, ठोक बजा कर करे। इस बात पर कड़ाई से अमल हो कि मारे गए नक्सलियों के आकडे़ बढ़ाने के लिए निर्दोष आदिवासियों को विद्रोहियों की वर्दी पहनाकर फर्जी एनकाउंटर न किए जाएं। पहले से पूरी खुफिया जानकारी लेकर चुनींदा ठिकानों पर छापे मारे जाएं और त्वरित कार्रवाई के जरिए अपना लक्ष्य हासिल करें, क्योंकि लंबे अभियानों में जंगली इलाकों में पुलिस या अ‌र्द्धसैनिक बलों के लिए नक्सलियों के सामने टिक पाना कठिन होगा और रिकार्ड बताता है कि उसमें ज्यादातर अभी तक सरकारी बलों के लोगों की जान गई है।

इसके अलावा केंद्रीय गृहमंत्री सरकारी ईमानदारी जताने और आदिवासियों के नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए निष्पक्ष पर्यवेक्षक भी वहा तैनात कर सकते हैं। इतना ही नहीं, केंद्र और राच्य सरकारों को हथियारबंद कार्रवाई से पूर्व आदिवासियों का विश्वास अर्जित करने के लिए आजादी के बाद से उनके विकास के लिए सरकारी खजाने से खर्च हुए अरबों रुपये का समग्र ऑडिट भी करवाना चाहिए। इसके अंतर्गत यह जाच होनी चाहिए कि जिन परियोजनाओं के मद में सरकारी पैसे के खर्च का हिसाब सरकारी खातों में दर्ज है, वे वास्तव में लागू भी की गई या फिर उनके पैसों से जगदलपुर, राजनादगाव, अंबिकापुर, जशपुर, रायपुर, राची, जमशेदपुर, नागपुर, गोंदिया, कटक, भुवनेश्वर, संबलपुर, जबलपुर, मंडला, बैतूल, वारंगल, महबूब नगर, हैदराबाद और उत्तर बंगाल के नगरों में सरकारी विभागों के कर्मचारियों और अफसरों ने आलीशान बंगले और शॉपिंग सेंटर बना लिए।

[लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं और इन दिनों नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में काम कर रही हैं]

आदिवासियों के विकास में बाधक नहीं होगा अभियान: मनमोहन सिंह [प्रधानमंत्री]

यह बात सही है कि सरकारी व्यवस्था आदिवासी समाज को आर्थिक विकास से जोड़ने में असफल रही है, जिसके नतीजे अब खतरनाक मोड़ ले रहे हैं। नक्सलवाद को भी इसी की उपज माना जा सकता है, लेकिन इसका मतलब यह नहींहै कि हिंसा को बढ़ावा दिया जाए। साथ ही आदिवासी क्षेत्रों के विकास को ठेंगे पर रखने की सरकारी व्यवस्थाएं भी नहीं चलेंगी। आदिवासियों के विकास की इस कड़वी सच्चाई को लेकर सभी राच्य सरकारों को संवेदनशील होना चाहिए। बंदूक के साए तले किसी तरह का सतत् आर्थिक विकास नहीं हो सकता है।

हम जहा हिंसा को बर्दाश्त नहीं करेंगे, वहीं विकास में आदिवासियों को प्राथमिकता से जोड़ा जाएगा। जो आदिवासियों के हक की आवाज उठाने का दावा करते हैं, उन्होंने कभी कोई आर्थिक रास्ता नहीं दिखाया है। हिंसा उनकी परेशानियों को बढ़ाएगा ही। हम हिंसा को बर्दाश्त नहीं करेंगे। हमारी प्राथमिकता आदिवासियों का विकास है। वन में रहने वालों को वनों पर परंपरागत अधिकार देने की जरूरत है, लेकिन उन्हें छोटी-छोटी बातों के लिए मुकदमे झेलने पड़ते हैं। आदिवासियों की समस्या का हल करने के लिए भूमि का अधिकार देना पहला जरूरी कदम है। आशा है कि राच्य इस दिशा में काम करेंगे।