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निर्मल भारत कैसे बनेगा- ऋषि कुमार सिंह

जनसत्ता 10 जुलाई, 2012: साफ-सफाई के मुद्दे पर भारत सरकार ने निर्मल भारत योजना बनाई है, जिसकी सफलता के लिए फिल्म अभिनेत्री विद्या बालन को अपना ब्रांड एंबेस्डर नियुक्त किया है। बात बस इतनी-सी है, लेकिन इसका असर और यहां से उपजे संदेश को महज साफ-सफाई की जरूरत तक नहीं समेटा जा सकता। इसे महज बाजार की प्रवृत्ति कह देना भी जल्दबाजी होगी। राजनीति जैसी गतिविधि के हित-अहित पर इसका आकलन करें तो कई परतें देखी जा सकती हैं। वास्तव में, यह एक रणनीति है। इसका मकसद राजनीतिक चेतना के विस्तार के खिलाफ है, और जो भी चेतना पल रही है उसे बाजारी गतिविधि जैसा बना देना है।
निर्मलता का बड़ा व्यापक अर्थ है, जो मल-मूत्र और कूड़े-कचरे तक सीमित नहीं है। व्यक्ति की ईमानदारी और साफ-सुथरी छवि के अर्थ में भी निर्मलता शब्द प्रयोग होता है। लेकिन भारत निर्मल योजना और उसके लिए ब्रांड एंबेस्डर चयन करते हुए सरकार ने एक ऐसा कदम उठाया है, जिससे सार्वजनिक और सामाजिक जीवन से निर्मलता (ईमानदारी) के पक्ष को गायब किया जा सके। असल में, यह मनोवैज्ञानिक बदलाव की कोशिश भी है। इससे साफ-सुथरे चरित्र के मतलब को साफ-सुथरे रहन-सहन में तब्दील कर देना है। जबकि इस समय देश और सत्ता की चारित्रिक मलिनता पर विमर्श करने और उसे निर्मल बनाने वाली राजनीतिक चेतना की जरूरत है। क्योंकि संसद, सरकार और न्यायपालिका से जो भी जनहित का नुकसान हो रहा है, उसमें सोच-समझ की मलिनता बड़ा कारण है।
यह राजनीति की विश्वसनीयता भंग होने का उदाहरण भी है, जिसकी क्षतिपूर्ति के लिए फिल्मी चेहरे का इस्तेमाल किया गया है। यह खोया हुआ विश्वास ही है कि निर्वाचित प्रतिनिधियों से बनी सरकार जब दोबारा जनता तक पहुंच रही है, तो एक योजना को कामयाब बनाने की अपील का साहस नहीं कर पा रही है। साहस होने या न होने की स्थिति सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी और न्याय की शर्तों को साधने से आती है। क्या जनप्रतिनिधि बनने से लेकर मंत्री बनने तक के सार्वजनिक जीवन में इन शर्तों को साधा जाता है? गिनती के लोग हैं, जो इस शर्त के आसपास देखे जा सकते हैं।
गौर करें तो यह राजनीतिक मलिनता ही है कि सरकारों को अपनी योजनाओं के प्रचार-प्रसार के लिए फैक्टरी उत्पादों को बेचने वाली तरकीब का सहारा लेना पड़ रहा है। सरकारी योजनाएं किसी फैक्टरी का उत्पाद (ब्रांड) नहीं हैं, बल्कि जनता की आकांक्षाओं और राजनीति का व्यावहारिक प्रतिफल हैं। योजनाओं की सफलता या विफलता के आधार पर राजनीति की दूरदर्शिता को आंका जाता है।
चूंकि पिछले दो दशक से खुले तौर पर राजनीतिक गुणवत्ता से समझौता किया गया है, राजनीतिक दूरदर्शिता केवल बाजार को जगह देने की मुहिम बन कर रह गई है। यहीं से यह भ्रम भी जोर-शोर से स्थापित किया गया है कि बाजार की व्यवस्था सरकारी इंतजामों से बेहतर है। जन-मानस में निजीकरण का समर्थन भी इसी का परिणाम है। निर्मल भारत योजना के लिए ब्रांड एंबेस्डर नियुक्त करते हुए सरकार ने बाजार की उस तरकीब को वैधता देने का ही काम किया है, जिससे किसी उत्पाद के दाम को लागत से कई गुना कर दिया जाता है।
मुनाफे के इस खेल से पैदा हुई रकम का बड़ा हिस्सा ब्रांड एंबेस्डरों या प्रचारकों के खाते में जाता है। क्या किसी सरकारी योजना के लिए आबंटित धन का एक हिस्सा भी उनके खाते में जाना चाहिए? बाजार के इस तरीके को अपनाने की जरूरत सरकार को क्यों महसूस हुई?
फौरी तौर पर जिस योजना के लिए सरकार ने ब्रांड एम्बेस्डर नियुक्त किया है, उस योजना में दर्ज समस्या न तो जनता की प्रमुख समस्या है और न ही समस्याओं के क्रम में सबसे ऊपर है। जिस देश में भूख और कुपोषण की समस्या बनी हुई है, वहां ‘आधी रोटी खाएंगे, घर में शौचालय बनवाएंगे’ या ‘खुले में शौच जाना दंडनीय अपराध है’ के नारे के साथ सरकार का स्वच्छता कार्यक्रम चल रहा है। गोदामों में सड़ने वाले अनाज को जब गरीबों और भूखों में बांटने की बात आई तो सरकार ने इसे प्रशासनिक तौर पर उचित नहीं माना। यानी कल तक जो सरकार अनाज बांटने में अपने को असमर्थ बता रही थी, आज शौचालय बनवाने की योजना को लेकर और उसका ब्रांड एंबेस्डर नियुक्त करने तक कैसे उतावली हुई जा रही है? जबकि यह सामान्य समझ की बात है कि शौचालय का सवाल भूख के सवाल से बड़ा नहीं हो सकता है, और न ही ये दोनों सवाल सोच-समझ के इस परिवर्तन को स्वीकार कर सकते हैं जिसमें आधी रोटी खाकर खुले में शौच जाने को दंडनीय अपराध मान लिया जाए। असल में, यह जनता के सवालों को नकारने का अभिजातीय तरीका है, जहां भूख को निम्नता और शारीरिक स्वच्छता को श्रेष्ठता का मापदंड साबित किया जा रहा है।
देश की ढाई लाख ग्राम पंचायतों में से केवल ढाई हजार ग्राम पंचायतें स्वच्छ हैं, निर्मल हैं। यही सरकारी चिंता है, जिसे दूर करने के लिए भारत निर्मल योजना की रूपरेखा खींची गई है। लेकिन योजनाकारों को समझना होगा कि मल-मूत्र और कूडेÞ-कचरे की दुर्गंध से केवल रास्ते पर चलने की मुश्किल होती है, जबकि उनके दूसरे फैसलों से उपजी गंदगी ने जीवन का सफर दूभर कर दिया है।
सलवा जुड़ूम अभियान के बाद से छह सौ चालीस गांव और सत्तर हजार लोग अपना घरबार छोड़ने को मजबूर हुए हैं। फर्जी मुठभेड़ों, बेगुनाहों को जेल भेजे जाने और वहां पर उनकी हत्या किए जाने के साथ-साथ वित्तीय अनियमितताओं के आरोप   क्या भारतीय व्यवस्था को निर्मल बनाने की जरूरत नहीं पैदा कर रहे हैं? सैन्य और अर्धसैन्य बलों पर बलात्कार के आरोप और मामला तक दर्ज न करने के मामलों में क्या गंदगी जैसी कोई बात नहीं है? क्या इन बातों पर कोई निर्मल भारत योजना नहीं चलाई जानी चाहिए?
किसी योजना के लिए ब्रांड एंबेस्डर नियुक्त करने की यह कोई पहली घटना नहीं है। प्रवृत्ति के रूप में इसकी मौजूदगी देखी जा सकती है। राजस्थान में भ्रूण हत्या वहां की सबसे पुरानी समस्या है। जनगणना के आंकड़ों में और सामाजिक मंचों पर इस बारे में काफी चिंता दिखाई देती है और सरकार की नाकामी के सबूत भी दिए जाते रहे हैं। लेकिन इस विषय पर जब टेलीविजन कार्यक्रम तैयार होता है और उसे चर्चित अभिनेता पेश करते हैं, तो लगता है कि सोई हुई राजस्थान सरकार जाग गई हो।
तब सरकार के मुखिया कार्यक्रम की एंकरिंग करने वाले अभिनेता से संपर्क करते हैं। भ्रूण हत्या रोकने का भरोसा दे आते हैं। अघोषित तौर पर मुख्यमंत्री अपने इस कदम से कार्यक्रम की एंकरिंग करने वाले अभिनेता को ब्रांड एंबेस्डर नियुक्त कर देता है। कुछ हफ्ते के अंतर पर उसी कार्यक्रम की एक दूसरी कड़ी आती है, वही अभिनेता जेनेरिक दवाओं को लेकर देश में बहस खड़ी करता है।
राजस्थान सरकार अस्पतालों में जेनेरिक दवाएं उपलब्ध करा रही है, यानी कार्यक्रम के जरिए राजस्थान सरकार को जनहितैषी साबित किया जाता है। जबकि इसी राज्य की वह घटना भुला दी जाती है, जब ग्लूकोज में इंफेक्शन की वजह से दर्जनों प्रसूताओं को अपनी जान गंवानी पड़ी थी या यहीं के अस्पतालों में जननी सुरक्षा योजना के तहत दो सौ छब्बीस महिलाओं की बच्चेदानी यह कहते हुए निकाल दी गई थी कि उसमें कैंसर हो सकता है। फिर, भंवरी देवी की कहानी क्या कन्या भ्रूण हत्या से कम भयावह है, जिसकी हत्या करके शव तक को गायब कर दिया गया और इसमें जो लोग शामिल थे उनमें एक मंत्री का भी नाम आया।
अक्सर सवाल किया जाता है कि राजनीति करने वालों के मुकाबले चर्चित अभिनेताओं को कम तवज्जो क्यों दी जानी चाहिए, जबकि कई मौकों पर लोकप्रियता के लिहाज से फिल्मी कलाकार भारी पड़ते हैं। लेकिन राजनेता की लोकप्रियता और फिल्मी कलाकार की लोकप्रियता में जमीन आसमान का अंतर है। एक चेहरा न बदलने का वादा है और एक विशुद्ध तौर पर चेहरा बदलने की कलाकारी है जहां पटकथा के अनुसार चारित्रिक बनावट और भूमिकाएं तय होती हैं।
यह बात कला के स्तर पर स्वीकारी जा सकती है। वास्तव में राजनीतिक और अभिनयात्मक जीवन में यही मुख्य अंतर भी है। मगर इस हकीकत के विपरीत जाकर जब निर्मल भारत योजना के लिए ब्रांड एंबेस्डर नियुक्त किया जाता है तो यह अंतर सिमट जाता है। अब राजनीति का मतलब किसी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता नहीं रह गया है। सरकार में बने रहने के लिए दल-बदल और टिकट न मिलने पर विरोधी पार्टी में शामिल हो जाना आम है। जॉर्ज फर्नांडीज का भारतीय जनता पार्टी का समर्थन करना हो या उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह-मुलायम सिंह का एक मंच पर आना हो, चेहरे बदलने के ये कुछ सबसे हैरतअंगेज उदाहरण कहे जा सकते हैं।
कुल मिला कर अगर सरकारें और उनके पीछे खड़ी राजनीति कोई व्यापक फेरबदल नहीं कर सकती है या जिस रास्ते पर आगे बढ़ रही है उससे वापस नहीं लौट सकती है, तो निर्मल भारत योजना के साथ-साथ निर्मल राजनीति योजना भी शुरू की जानी चाहिए। लेकिन यह ध्यान रखना होगा कि इसका ब्रांड एंबेस्डर बाजार की शर्तों वाला मंजूर नहीं किया जाएगा। कारण यह कि राजनीति बहुआयामी और स्थायी निष्कर्षों तक पहुंचने वाली ताकतवर गतिविधि है, जिसके लिए चमकते और चिरयौवन की गारंटी देने वाले और यौनिकता के आसपास रचे गए चेहरे नहीं चलेंगे।
राजनीति के ब्रांड एंबेस्डर का काम जनता को यह विश्वास दिलाना होगा कि उनका प्रधानमंत्री जनता के सवालों पर चुप नहीं रहेगा और न ही यह बयान देगा कि मेरी उतनी गलती नहीं है, जितना कहा जा रहा है, बल्कि सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धांत को मानते हुए कुर्सी छोड़ने में पीछे नहीं हटेगा। कडेÞ फैसलों के नाम पर देश की जनता को लूटने के लिए बाजार को छूट नहीं देगा। वह मानवाधिकारों के सवालों को, विकास की रफ्तार को धीमा करने का आरोप लगा कर अनसुना नहीं करेगा।