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नेहरू की विरासत का मूल्यांकन जरूरी - पुष्‍पेश पंत

पिछले लगभग डेढ़ साल से हमारे देश में बहस छिड़ी हुई है कि जबसे केंद्र में मोदी के नेतृत्व वाली राजग सरकार का गठन हुआ है, तभी से नेहरू की विरासत को नष्ट करने का षड्यंत्रकारी अभियान जारी है। मोटा-मोटा तर्क यह है कि नेहरू की विरासत का अभिन्न् अंग जनतांत्रिक संस्कार और धर्मनिरपेक्ष विचार है। इसका कोई मेल फासीवादी मानसिकता वाले सांप्रदायिक तत्वों से नहीं हो सकता। इसके अलावा भारत की बहुलतावादी संस्कृति को सहज भाव से स्वीकार करने वाले नेहरू के विचारों का संघर्ष संकीर्ण, असहिष्णु विचारधारा से अनिवार्य है। इसमें दो-तीन बातें और जोड़ सकते हैं। आधुनिक वैज्ञानिक सोच, औद्योगीकरण और शहरीकरण को भारत के पुनर्जागरण और सबलीकरण के साथ जोड़ने वाले प्रमुख व्यक्ति भी जवाहरलाल नेहरू ही समझे जाते हैं। समाजवादी संस्कार हों या गुटनिरपेक्ष शांति समर्थक स्वाधीन विदेश नीति, यह भी नेहरू की विरासत का हिस्सा माना जाता रहा है।

यह वर्ष नेहरू के जन्म के सवा सौ साल पूरे हो जाने का वर्ष है और इसलिए उपरोक्त बातों के अलावा भारत के पहले प्रधानमंत्री के जीवन व कृतित्व का तटस्थ मूल्यांकन करने का यह अच्छा अवसर है। नेहरू के देहांत के बाद आधी सदी बीत चुकी है और समय के प्रवाह के साथ पूर्वाग्रह पक्षधरता आदि से मौजूदा पीढ़ी लगभग पूरी तरह मुक्त है।

सबसे पहली जरूरत यह रेखांकित करने की है कि भारत की आजादी की लड़ाई हो या आजादी के बाद राष्ट्रनिर्माण की चुनौतियों का सामना करने की दिलेरी, इनका श्रेय अकेले नेहरू को कतई नहीं दिया जा सकता और जो कुछ हम अपने इर्द-गिर्द देखते है, वह सब सिर्फ नेहरू की विरासत नहीं है। यह जरूर है कि आजादी के बाद नए भारत की दिशा तय करने में नेहरू ने उल्लेखनीय योगदान दिया। उन्होंने भारत में शासन का वैचारिक आधार उपलब्ध कराया और लंबे समय तक उसी आधार को आगे बढ़ने का मंत्र समझा जाता रहा। जबकि हकीकत यह है कि 'नेहरू के अपनों के भारत" और राष्ट्रपिता 'गांधी के सपनों के भारत" में एक गहरी और दर्दनाक खाई है, जिसे कोई भी अनदेखा नहीं कर सकता। गांव और शहर, खेती-बाड़ी और उद्योग-धंधों का बैर हमेशा से चला आया है और यही देहाती 'जहालत" और शहरी 'अकलमंदी" का भेद बापू और नेहरू के बीच लगातार तनाव पैदा करता रहा था।

हम बड़ी आसानी से उस विरासत को भुला देते हैं, जिसका श्रेय आजादी की लड़ाई के दूसरे दिग्गज नेताओं को दिया जाना चाहिए। साढ़े पांच सौ से अधिक रियासतों और रजवाड़ों का भारतीय संघ में विलय करवाने का पराक्रम सरदार पटेल ने दिखाया था और उन्हीं ने औपनिवेशिक नौकरशाही के इस्पाती ढंाचे को आजाद भारत की बदली जरूरतों के अनुसार नए सांचे में ढालने का बीड़ा भी उठाया। नेहरू की कैबिनेट में शिक्षा संस्कृति और वैज्ञानिक शोध मंत्रालय का जिम्मा सौंपा गया था दूसरे महारथी मौलाना आजाद को। उनके कार्यकाल में जिन बड़े-बड़े कामों का बीड़ा उठाया गया और जो आज भी गर्व से हमारा माथा ऊंचा करते हैं, उनका सेहरा भी नेहरू को नहीं बांधा जा सकता।

नेहरू का एक प्रसिद्ध भाषण है जिसमें उन्होंने बड़े-बड़े बांधों, इस्पात संयंत्रों आदि की तुलना नए भारत के नए मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे और गिरजाघरों से की थी। आज भी आप भारत के दूरदराज कोनों में जाएं तो भिलाई, हीराकुंड, बोकारो या भाखड़ानांगल को देखकर आप रोमांचित हुए बिना नहीं रह सकते। क्या दूरदर्शी सोच थी भारत के पहले प्रधानमंत्री की! विडंबना यह है अगर ठंडे दिमाग से और जरा तफसील से पड़ताल की जाए तो यह बात जाहिर होते देर नहीं लगेगी कि महत्वाकांक्षी पंचवर्षीय योजनाओं का मसौदा द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान ही भारत के टाटा, बिड़ला जैसे प्रमुख उद्योगपतियों ने पहले तैयार कर लिया था। साम्यवादी रुझान के मेघनाथ साहा जैसे वैज्ञानिकों ने इसे वंचित गांव वालों के पक्ष में संतुलित करने का सार्थक प्रयास किया था। भौतिक और रसायन शास्त्र की राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं के गठन की परियोजना भी आजादी के पहले मूर्तरूप लेने लगी थी। टाटा के दान से बेंगलुरु में इंडियन इंस्टीट्यूट आफ साइंसेज की स्थापना पहले ही हो चुकी थी और यहीं कार्यरत होमी भाभा ने पत्र लिखकर नेहरू की दिलचस्पी अणु शक्ति के शांतिपूर्ण उपयोग में जगाने की कोशिश की।

बची रहती है बात जनतांत्रिक संस्कार और रचनात्मक विदेश नीति की। इन दोनों संदर्भों में भी व्यक्तिपूजक महिमामंडन करने वाले मिथक निर्माण ने बड़ी गलतफहमियों को जन्म दिया है। जनतांत्रिक प्रणाली को प्रतिष्ठित करने वाले हमारे संविधान निर्माण में बाबासाहब आंबेडकर, बाबू राजेंद्र प्रसाद की भूमिका प्रमुख रही। आज यदि भारत का जनतंत्र वंशवादी नजर आता है, तो यह भी नेहरू की विरासत का ही हिस्सा है। अपने से असहमत प्रतिपक्षियों का नेहरू लगभग औपनिवेशिक अंदाज में दमन-शमन करते थे। इसी कारण राममनोहर लोहिया, आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण राजगोपालाचारी आदि से मतभेद और मनमुटाव होते रहे। सूबों में अपने विश्वासपात्र सामंती मिजाज के क्षत्रपों के माध्यम से सम्राट की मुद्रा में नेहरू राजकाज चलाते थे। मजेदार बात यह है कि किसी भी तरह का सैद्धांतिक मतभेद नेहरू बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। शेख अब्दुल्ला हों या बंबई में मोरारजी देसाई, दोनों इसी की मिसाल हैं। फिर क्यों जिक्र हर बार सिर्फ नेहरू की विरासत का होता है? ऐसा शायद इसीलिए संभव हुआ, क्योंकि नेहरू के निधन के बाद भी बहुत लंबे समय तक उनकी पार्टी, खासकर उनके अपने पारिवारिक वारिस ही भारत पर राज करते रहे हैं।

-लेखक कूटनीतिक मामलों के विशेषज्ञ हैं।