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नोटबंदी के दौर में बोलेरो शादी-- विभूति नारायण राव

पिछले चालीस दिनों में नोटबंदी ने देश की तरह मुझे भी तरह-तरह के अनुभव दिए हैं। देश दो खेमों मे बंटा दिख रहा है। एक तरफ देशभक्त हैं, जिनकी बांछें खिली हुई हैं और जो बता रहे हैं कि बस देखते रहिए, देश से काला धन, जाली नोट और आतंकवाद खत्म होने ही वाले हैं। यह अलग बात है कि समय बीतने के साथ ही उनकी मुस्कान धीरे-धीरे कमजोर पड़ती जा रही है। दूसरी ओर, हर बार की तरह रंग में भंग घोलने को तत्पर कुछ लोेग अपने पापी पेट व रोजगार छिनने का रोना रो रहे हैं और इनका साथ देते हुए कुछ अखबार और चैनल बैंकों के आगे लगी लंबी कतारों को दिखा भी रहे हैं। इन सारे दृश्य चित्रों के बीच मुझे एकदम नया अनुभव हुआ है।

क्या आपने कभी बोलेरो शादियों के बारे में सुना है? जिन शहरी पाठकों और अकादमिक समाजशास्त्रियों ने ऐसी शादियों का जिक्र न सुना हो, उनकी जानकारी के लिए बताते चलें कि इन शादियों का जिक्र पुराने वांग्मय में नहीं मिलेगा। ये शादियां तो पिछली कुछ सदियों में गिरते सामाजिक स्तर और कुछ दशकों में हासिल की गई उस वैज्ञानिक उपलब्धि की घाल-मेल से उपजी हैं, जिनके जरिये आप मां के गर्भ में ही बेटी की शिनाख्त कर सकते हैं और बिना किसी जोखिम पेट में ही उसका कत्ल कर सकते हैं। मजेदार विरोधाभास है कि आर्थिक रूप से उन्नत इलाके सामाजिक अर्थों में अधिक पिछड़े हैं। मसलन, देश के गरीब इलाकों में शुमार हो सकने वाले आजमगढ़ में 2011 की जनगणना के अनुसार, 1,000 पुरुषों के मुकाबले 1,009 स्त्रियां थीं, जबकि समृद्धतम इलाकों में शुमार हरियाणा के अधिकांश जिलों में यह अनुपात 900 से कम और कहीं-कहीं तो 800 से भी नीचे था।

स्वाभाविक है कि यहां के पुरुषों को शादी करने के लिए बाहर से स्त्रियां आयात करनी पड़ रही हैं। पूर्वोत्तर राज्यों से होती हुई उनकी खोज आजमगढ़ तक पहुंच रही है। गांव-गांव में ऐसे दलाल सक्रिय हैं, जो उन परिवारों की शिनाख्त करते हैं, जहां से विवाह के लिए लड़कियां खरीदी जा सकती हैं। बोलेरो शादी नामकरण भी इसी स्थिति की देन है। भावी दुल्हे के पांच-छह रिश्तेदार बोलेरो जैसी किसी गाड़ी में लद-फदकर आते हैं, रात में शादी होती है और सुबह आनन-फानन में लड़की विदा कराकर रवाना हो जाते हैं। पहले जब टेलीफोन से संपर्क की अच्छी सुविधाएं नहीं थीं, वर पक्ष का प्रतिनिधि गांव में आता था और दलाल से सारी बातें तय हो जाने पर वापस जाकर दुल्हे और संबंधियों के साथ लौटता था। अब टेलीफोन से शर्तें तय होती हैं और कई बार लड़की की कीमत सीधे परिवार के खाते में भेज दी जाती है। तकनीक अगर उन्नत इलाकों में गर्भ में ही लिंग पता लगाकर अजन्मी लड़कियों को मारने में मदद करती है, तो गरीब क्षेत्रों में लोगों के लिए अपनी बेटियां ठिकाने लगाना भी आसान बनाती है।

गांव से जीवित संपर्क न होने के कारण मैं बोलेरो शादियों के बारे में सुनता तो रहता था, लेकिन बहुत विस्तार से उनके बारे में नहीं जानता था। नोटबंदी के कारण एक ऐसा प्रकरण मेरी जानकारी में आया, जिसमें वर पक्ष पुराने नोटों को लेकर लड़की के गांव पहुंच गया था, क्योंकि जब वह हरियाणा से रवाना हुआ था, तब तक उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि नोटों की जिस गड्डी पर उसका आत्मविश्वास टिका है, वह गंतव्य पर पहुंचते-पहुंचते कागज का टुकड़ा बन जाएगी।

दोनों पक्ष लड़ रहे थे, क्योंकि लड़के वाले पुराने नोट देना चाहते थे और लड़की वाले किसी भी कीमत पर नए नोट मिलने से पहले शादी के लिए तैयार नहीं थे। लड़की का बाप मर चुका था और बाबा अड़ा हुआ था कि पूरी राशि नए नोटों में मिलने के बाद ही शादी हो पाएगी। बड़ी मुश्किल से परिवार अपने जन-धन खाते में रुपये जमा करने के लिए तैयार हुआ, लेकिन उसे विश्वास नहीं था कि बैंक वाले उसका इतना पैसा जन-धन खाते में जमा कर लेंगे। वे चाहते थे कि हरियाणा वाले, जो कुछ पढ़े-लिखे और मजबूत लोग थे, बैंक चलकर रुपये उनके खाते में जमा करें।

बैंक अगले दो दिन बंद थे और लड़के वाले इतना इंतजार करने के लिए तैयार नहीं थे और चाहते थे कि झटपट शादी कराकर निकल भागें। कोढ़ पर खाज यह कि दलाल ने अपना हिस्सा नकद मांगना शुरू कर दिया, क्योंकि वह अपने खाते में पैसा जमा करवाने से डर रहा था। ऐसे में किसी ने मुझे फोन करके यह दरियाफ्त करने की कोशिश की कि क्या मैं कुछ मदद कर सकता हूं? और इस तरह से नोटबंदी के तमाम खट्टे-मीठे अनुभवों की तरह इस प्रकरण से भी मेरा साक्षात्कार हुआ। बंबइया फिल्मों की तरह इस कथा की भी हैप्पी एंडिंग हुई, पर क्या विवाह हो जाने के बाद लड़की की विदाई को ही हम सुखांत कह सकते हैं? पिछले कुछ दिनों से मैं ऐसी शादियों के बारे में जानकारियां हासिल करने की कोशिश कर रहा था और आजमगढ़ के ग्रामीण अंचल में काम करने वाली एक संस्था एसआरएसपी और उसकी निदेशिका हिना देसाई से बात करके जो तथ्य मुझे पता चले, वे बहुत ही कारुणिक और विचलित करने वाले हैं।

संस्था के पास ऐसी शिकायतों की भरमार थी, जिनमें खरीद-फरोख्त के बाद ससुराल पहुंची लड़कियां प्रताड़ना, घरेलू हिंसा और सामाजिक भेदभाव की शिकार हुई थीं। कई मामलों में तो उन्हें परिवार के एक से अधिक सदस्यों की पत्नी बनकर रहने के लिए मजबूर होना पड़ता था। ये गरीब लड़कियां ज्यादातर दलित और अति पिछड़े तबकों से आती थीं और भारत के जातिग्रस्त समाज में स्वाभाविक था कि उन्हें इस कारण भी ताने सुनने पड़ते थे। मजेदार संभावना यह है कि आजमगढ़ जल्दी ही निर्यातक से आयातक बन जाए।

 

मैंने जनसंख्या के आंकड़े खंगाले, तो पता चला कि जहां 2011 में हर वय को मिलाकर स्त्रियां पुरुषों से अधिक थीं, वहीं शून्य से छह वर्ष तक की आयु में वे एक हजार में सिर्फ 919 बची थीं, अर्थात चार सौ से अधिक गर्भ में मारी जा चुकी थीं। ऐसा कैसे हुआ? हिना देसाई के अनुसार, पिछले कुछ वर्षों में आजमगढ़ मे स्वास्थ्य सुविधाएं बढ़ी हैं और इसलिए अब वहां भी यह आसान हो गया है कि गर्भ में ही लिंग परीक्षण कराकर अजन्मी बेटियों को मार दिया जाए। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)