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नोबेल शांति पुरस्कार का पैगाम - सत्‍येंद्र रंजन

भारत के कैलाश सत्यार्थी और पाकिस्तान की मलाला यूसुफजई के संयुक्त रूप से नोबल शांति पुरस्कार से सम्मानित होने पर बेशक दोनों देशों के वंचित समूहों के बच्चों और उनके अधिकारों पर नए सिरे से रोशनी पड़ेगी। सत्यार्थी के 'बचपन बचाओ आंदोलन" ने इस कड़वी हकीकत से देश को परिचित कराए रखा है कि बंधुआ मजदूरी को अपराध बनाने, बाल मजदूरी को गैरकानूनी ठहराने और प्राथमिक शिक्षा को मूल अधिकार बनाने से संबंधित अधिनियमों के लागू होने के वर्षों (बल्कि दशकों) बाद भी भारत में हजारों बच्चे न सिर्फ मजदूरी करने को मजबूर हैं, बल्कि अकसर उन्हें बंधुआ भी बनाया जाता है।

उधर पाकिस्तान में मलाला ने बहुत छोटी उम्र में मजहबी कट्टरपंथ के खिलाफ जाकर लड़कियों के पढ़ने के अधिकार को बहादुरी से जताया था। बंधुआ बने या मजदूरी को विवश बच्चे पढ़ नहीं सकते, तो मजहबी कट्टरपंथ भी लड़कियों से यह हक छीन लेता है। इस रूप में अगर नॉर्वे स्थित नोबेल कमेटी ने इन दोनों कार्यकर्ताओं के उद्देश्य में साझापन देखना चाहा है, तो वह अतार्किक नहीं है।

कैलाश सत्यार्थी और मलाला यूसुफजई के पुरस्कृत होने से स्वाभाविक तौर पर इन दोनों देशों के लोग खुद को गौरवान्वित महसूस करेंगे। नोबेल पुरस्कार इस अर्थ में महत्वपूर्ण होते हैं कि उनका दायरा विश्वव्यापी होता है। इनसे सम्मानित व्यक्ति और उनके उद्देश्य दुनियाभर में चर्चा का विषय बनते हैं। सत्यार्थी और मलाला के सम्मान के साथ भारत और पाकिस्तान में बच्चों की बदहाली पर दुनिया का ध्यान जाएगा। लेकिन यह इन दोनों देशों की सरकारों के लिए परेशानी का कारण नहीं होना चाहिए। बल्कि यह उनका फर्ज है कि वे अपने-अपने यहां के अप्रिय यथार्थ से आंख मिलाएं और उनसे उबरने की रणनीति बनाएं। सत्यार्थी और मलाला के सम्मानित होने से इन समाजों में बाल अधिकारों को लेकर अधिक जागरूकता आती है, तो वो संभवत: इस पुरस्कार की सबसे बड़ी उपलब्धि होगी।

बहरहाल, अगर इन नामों के जरिए नोबेल कमेटी ने कोई राजनीतिक संदेश देने की कोशिश की है, तो उसे (कम से कम भारत में) स्वीकार नहीं किया जाएगा। इसलिए कि देश के अंदरूनी वैचारिक संघर्षों या भारत-पाक संबंधों से जुड़ी पेचीदगियों के संदर्भ में इस देश को नोबेल कमेटी या किसी पश्चिमी परामर्श की जरूरत नहीं है। खुशी के इस मौके पर ये बात कहने की जरूरत इसलिए पड़ी है, क्योंकि सत्यार्थी और मलाला का चयन करते हुए नोबेल कमेटी की ज्यूरी ने जो कहा, वह समस्याग्रस्त है। वैसे कुछ प्रश्न इन पुरस्कारों की पृष्ठभूमि से भी जुड़े हुए हैं।

वर्ष 2012 में मलाला पर तालिबान ने इसलिए जानलेवा हमला किया था, क्योंकि वे बीबीसी की उर्दू सेवा की वेबसाइट पर अपने ब्लॉग के जरिए लड़कियों के शिक्षित होने के हक की वकालत कर रही थीं। ब्रिटेन में इलाज से उनकी जान बच गई और तब से पश्चिमी देशों और मीडिया में उनकी नायिका जैसी हैसियत है। इसके पीछे मकसद पूरी तरह लड़कियों की शिक्षा के प्रति समर्थन जताना है या 9/11 के बाद से जारी परिस्थितियों से भी इसका कोई संबंध है, इस बारे में सिर्फ अटकलें ही लगाई जा सकती हैं। परंतु मलाला के संदर्भ में यह सवाल जरूर उठेगा कि नोबेल कमेटी निरंतर प्रभावशाली कार्य और संबंधित क्षेत्र में असाधारण योगदान के लिए पुरस्कार देती है, या इसके जरिए उसका मकसद कोई पैगाम देना होता है? मलाला इस्लामी चरमपंथ के खिलाफ छात्राओं की आवाज की प्रतीक जरूर बनी हुई हैं, लेकिन 17 वर्ष की उम्र में वे कोई असाधारण या चिरस्थायी महत्व का योगदान कर चुकी हैं, इस सवाल पर मतभेद हो सकते हैं। उनके नाम के साथ एक खास संदेश जरूर जुड़ा हुआ है, लेकिन यह पैगाम एक खास परिस्थिति ने उनसे जोड़ा है।

सत्यार्थी और मलाला को शांति पुरस्कार के लिए चुनते हुए ज्यूरी ने कहा- 'एक हिंदू और एक मुस्लिम, एक भारतीय और एक पाकिस्तानी का शिक्षा के लिए और चरमपंथ के खिलाफ साझा संघर्ष में शामिल होना एक महत्वपूर्ण बिंदु है।" कैलाश सत्यार्थी ने तीन दशक से अधिक समय से पहले बंधुआ मजदूरों और फिर बाल बंधुआ मजदूरों की मुक्ति के लिए सराहनीय काम किया है। भारत में एनजीओ सेक्टर के वे जाने-पहचाने नाम हैं। मगर उनके संदर्भ में 'हिंदू" और 'चरमपंथ" का जिक्र करने के पीछे क्या मकसद है, इसे समझना कठिन हो सकता है। क्या नोबेल कमेटी भारत में बदली राजनीतिक परिस्थितियों पर कोई वक्तव्य देना चाहती थी? अथवा एक हिंदू और एक मुसलमान, एक भारतीय और एक पाकिस्तानी को साथ-साथ सम्मानित कर उसने दोनों देशों के बीच फिलवक्त जारी तनाव के विरुद्ध संदेश दिया है?

ऐसे सवाल इसलिए प्रासंगिक हैं, क्योंकि अतीत में भी नोबेल शांति (साहित्य और अर्थशास्त्र में भी) पुरस्कारों पर फैसला पश्चिमी देशों की सोच या राजनीतिक प्राथमिकताओं के अनुरूप होने के आरोप लगते रहे हैं। इन पुरस्कारों के संस्थापक स्वीडिश उद्योगपति अल्फ्रेड नोबेल कहा था कि शांति पुरस्कार उस व्यक्ति को दिया जाना चाहिए, जिसने राष्ट्रों के बीच भाईचारा लाने, तैनात सेनाओं को हटाने या उनमें कटौती करने व शांति सम्मेलनों को प्रोत्साहित करने के लिए अधिकतम या सर्वोत्तम कार्य किए हों। नोबेल कमेटी ने पूरी स्वतंत्रता लेते हुए अलग-अलग मौकों पर इन निर्देशों की अपने ढंग से व्याख्या की है। उसने मानवाधिकार, पर्यावरण तथा गरीबी उन्मूलन के लिए काम को शांति की परिभाषा में शामिल करते हुए विभिन्न् हस्तियों को सम्मानित किया है। मगर चुने गए नामों और चयन के समय पर अकसर प्रश्न भी उठे हैं। इस बार भी कमेटी ने ऐसे सवाल उठाने की काफी गुंजाइश छोड़ दी है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)