Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 73
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 74
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
Notice (8): Undefined variable: urlPrefix [APP/Template/Layout/printlayout.ctp, line 8]news-clippings/न्यायपालिका-की-गरिमा-के-प्रतिकूल-एनके-सिंह-12264.html"/> न्यूज क्लिपिंग्स् | न्यायपालिका की गरिमा के प्रतिकूल - एनके सिंह | Im4change.org
Resource centre on India's rural distress
 
 

न्यायपालिका की गरिमा के प्रतिकूल - एनके सिंह

यह भारत की ही नहीं, दुनिया की न्याय बिरादरी में एक भूकंप की मानिंद था। भारत में न्यायपालिका और खासकर सर्वोच्च न्यायालय एक ऐसी संस्था है, जिस पर समाज का बहुत अधिक भरोसा है। जब कोई हर संस्था से न्याय की उम्मीद छोड़ चुका होता है, तो वह सर्वोच्च न्यायालय की ओर निहारता है, लेकिन शुक्रवार को इस न्यायालय के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों द्वारा आनन-फानन एक संवाददाता सम्मेलन बुलाया जाता है और एक संयुक्त पत्र जारी कर देश की सबसे बड़ी अदालत के प्रधान न्यायाधीश पर न्यायसम्मत तरीके से कार्य न करने का आरोप लगाया जाता है। उनकी ओर से यह भी कहा जाता है कि अगर हम आज सुप्रीम कोर्ट की मौजूदा स्थिति के खिलाफ न खड़े होते तो अब से 20 साल बाद समाज के कुछ बुद्धिमान व्यक्ति यह कहते कि हमने 'अपनी आत्मा बेच दी थी। इन चारों न्यायाधीशों ने यह भी बयान किया कि वे इस मामले में प्रधान न्यायाधीश के पास गए थे, लेकिन उन्हें वहां से खाली हाथ लौटना पड़ा।


इस प्रेस कांफ्रेंस को संपन्न् हुए पांच मिनट भी नहीं हुए थे कि कई वरिष्ठ वकीलों ने पक्ष-विपक्ष में अपने-अपने तर्क देने शुरू कर दिए। अगर वकील प्रशांत भूषण ने मीडिया में आकर प्रधान न्यायाधीश के कथित चहेते जजों का नाम और वे मामले जो उन्हें सौंपे गए, बताना शुरू कर दिया तो पूर्व न्यायाधीश जस्टिस आरएस सोढ़ी ने इन चार वकीलों के कदम को सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा गिराने वाला, हास्यास्पद और बचकाना करार दिया। वकील केटीएस तुलसी और इंदिरा जयसिंह नेे चार जजों का पक्ष लिया तो पूर्व एटॉर्नी जनरल एवं वरिष्ठ वकील सोली सोराबजी ने चार जजों की ओर से प्रेस कांफ्रेंस करने पर घोर निराशा जताई। इंदिरा जयसिंह तो चार जजों की प्रेस कांफ्रेंस में भी नजर आई थीं।


चार जजों की प्रेस कांफ्रेंस के औचित्य-अनौचित्य को लेकर तरह-तरह के तर्कों के बाद आम जनता के लिए यह समझना कठिन है कि यह सब क्यों हुआ और इसके क्या परिणाम होंगे? उसके मन में यह सवाल भी कहीं जोर से कौंधेगा कि सुप्रीम कोर्ट में सब कुछ ठीक है या नहीं? इन सवालों का चाहे जो जवाब हो, पहली नजर में यही अधिक लगता है कि एक विश्वसनीय संस्था व्यक्तिगत अहंकार या वर्चस्व की जंग का शिकार हो गई। जब प्रेस कांफ्रेंस में चार न्यायाधीशों से पूछा गया कि क्या वे प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग लाने के पक्षधर हैं तो उनका जवाब था कि यह देश को तय करना है। क्या इसका यह मतलब निकाला जाए कि सुप्रीम कोर्ट के ये चार जज प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग के पक्ष में हैैं? ध्यान रहे कि सर्वोच्च न्यायालय ही नहीं, हाईकोर्ट के जज भी भारत के संविधान द्वारा अभिरक्षित हैं और उन्हें मात्र महाभियोग के जरिए ही हटाया जा सकता है। यह एक जटिल प्रक्रिया है।


भारत में सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों की पीठ संविधान पीठ का दर्जा पा जाती है और उसके फैसलों में कानून की ताकत होती है। हमने अभी तक कभी-कभार कमजोर आवाज में केंद्रीय बार कौंसिल और राज्य बार एसोसिएशनों द्वारा जजों के खिलाफ व्यक्तिगत मामलों में आरोप लगते हुए देखा-सुना था,लेकिन पिछले 70 साल में एक बार भी ऐसा देखने में नहीं आया कि सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठ जज प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ प्रेस कांफ्रेंस करें और वह भी केसों के आवंटन में कथित पक्षपात को लेकर। इन चार जजों का कहना है कि कौन-सा केस किस बेंच के पास जाएगा, यह तो प्रधान न्यायाधीश के अधिकार क्षेत्र में होता है, लेकिन यह प्रक्रिया भी कुछ स्थापित परंपराओं के अनुरूप चलाई जाती है। जैसे सामान प्रकृति के मामले सामान बेंच को जाते हैं और यह निर्धारण मामलों की प्रकृति के आधार पर होता है, न कि केस के आधार पर। अगर इन चार जजों को प्रधान न्यायाधीश की कार्यप्रणाली से एतराज था तो वे सभी जजों की सुबह होने वाली बैठक में इस मुद्दे को उठाते और एक आम सहमति बनाने का प्रयास करते। अगर यह तरीका कारगर नहीं हुआ, जैसा कि संकेत किया गया तो फिर ये जज प्रधान न्यायाधीश की केस आवंटन प्रक्रिया के खिलाफ स्वयं संज्ञान लेते हुए फैसला दे सकते थे। ऐसा कोई फैसला स्वत: सार्वजनिक होता और कम से कम उससे यह ध्वनि तो नहीं निकलती कि सार्वजानिक तौर पर कुछ वरिष्ठ जज प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ सड़क पर आ गए हैं।


चार जजों की प्रेस कांफ्रेंस के बाद तो उच्च न्यायालयों के स्तर पर भी ऐसा ही हो सकता है और वहां भी कुछ जज मुख्य न्यायाधीश की कथित गड़बड़ीपूर्ण कार्यप्रणाली के खिलाफ प्रेस कांफ्रेंस कर सकते हैं। क्या अब उन्हें इस तरह से प्रेस कांफ्रेंस करने से रोका जा सकता है? अगर यह मान भी लिया जाए कि केसों के आवंटन का काम सही तरह से नहीं हो रहा था तो क्या उसके खिलाफ इस तरह खुलेआम आवाज उठाना न्यायापालिका की गरिमा के अनुकूल है? आधुनिक न्यायशास्त्र का मूल सिद्धांत कहता है कि आप चाहे जितने भी बड़े क्यों न हों, लेकिन कानून आपसे बड़ा होता है। कानून के अनुसार ऐसा कोई बयान जो अदलत की गरिमा को गिराता है, अदालत की अवमानना है। अगर कोई अदालत की अवमानना संबंधी कानून को गौर से पढ़े तो वह यही पाएगा कि इन चार जजों के बयान अवमानना की श्रेणी में आते हैैं। यही बात उन वकीलों के बारे में कही जा सकती है, जो चार जजों की इस प्रेस कांफ्रेंस के तुरंत बाद उनके समर्थन में सक्रिय हो गए। जिस तरह चंद वकील इस मामले में जरूरत से ज्यादा दिलचस्पी दिखा रहे हैं, उससे भी कई सवाल खड़े होते हैैं। अगर किसी रिपोर्टर ने अपनी खबर में ऐसा कुछ लिखा होता कि सर्वोच्च न्यायालय में जजों को केसों का आवंटन भेदभाव के तहत किया जा रहा है, तो इसे अवमानना मानकर उसे तलब कर लिया जाता, लेकिन इस मामले में बार ही नहीं, बेंच में भी विभाजन दिख रहा है और उनके बीच के मतभेद एक-दूसरे पर आरोप के जरिए सामने आ रहे हैं। यह आदर्श स्थिति तो नहीं और इसीलिए यह कहा जा सकता है कि जो कुछ हुआ उससे सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा प्रभावित हुई है।


सर्वोच्च न्यायालय ही नहीं, उच्च न्यायालय के पास भी दो तरह के कार्य होते हैं। पहला, न्याय का निष्पादन करना और दूसरा, न्याय प्रशासन देखना। यह दूसरा काम आम तौर पर मुख्य न्यायाधीश के हाथ में होता है। जजों के पास केवल फैसले देने का काम होता है। कॉलेजियम की व्यवस्था के तहत पांच सबसे वरिष्ठ जज नए जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में भी भाग लेते हैं। यह हैरान करता है कि एक दिन पहले कॉलेजियम दो जजों के नाम तय करता है और अगले दिन चार वरिष्ठ जज प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ मोर्चा खोल देते हैैं। अगर यह सही है कि प्रधान न्यायाधीश सभी समान लोगों में से केवल पहले नंबर पर होते हैैं, इससे अधिक और कुछ नहीं तो फिर यही बात सुप्रीम कोर्ट की सभी बेंचों पर भी तो लागू होती है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)