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न्यूज चैनल नहीं चला रहे हैं देश - राजीव सचान

लाहौर में ईसाइयों को निशाना बनाकर किए गए आतंकी हमले के बाद पाकिस्तान के टीवी चैनलों की नियामक संस्था 'पीईएमआरए" ने यह अजीबोगरीब निर्देश जारी किया कि वे जिम्मेदारी भरा कवरेज करें, ठीक वैसे ही जैसे ब्रसेल्स में आतंकी हमले के बाद यूरोपीय टीवी चैनलों ने किया था। उन्हें यह भी हिदायत दी गई कि वे भारतीय टीवी चैनलों की नकल करने से बचें। पता नहीं भारतीय न्यूज चैनल पाकिस्तान में कितना देखे जाते हैं, लेकिन यह स्पष्ट हो गया कि वहां के टीवी चैनलों की नियामक संस्था ऐसा करती है और शायद यह महसूस करती है कि पाकिस्तानी चैनल भारतीय चैनलों का अनुसरण करते हैं। यदि ऐसा कुछ नहीं है तो फिर यह तय है कि वह भारतीय चैनलों का मजाक उड़ाना चाह रही थी। उसका मकसद कुछ भी हो, भारतीय चैनल ऐसे नहीं हैं कि किसी अन्य देश के चैनल उन्हें अपना आदर्श मानने की सोच सकें।

यह स्वाभाविक है कि भारतीय चैनलों को पीईएमआरए की बेजा टिप्पणी रास नहीं आई और उन्होंने उसकी टिप्पणी को कुछ इस भाव से खारिज किया कि भला आप किस खेत की मूली हैं। लेकिन यह भी सही है कि वे खुद भी कोई आदर्श स्थापित नहीं कर सके हैं। यह भूला नहीं जा सकता कि किस तरह कुछ पाकिस्तानी टीवी चैनलों ने मुंबई हमले के बाद कथित सुरक्षा विशेषज्ञों के साथ यह साबित करने की भरसक कोशिश की थी कि यह हमला तो पाक को बदनाम करने के लिए खुद भारतीय खुफिया एजेंसियों ने कराया है। तथ्य यह भी है कि उसी समय कुछ पाकिस्तानी चैनलों ने मुंबई हमले के दौरान दबोचे गए अजमल कसाब का गांव-घर खोज निकाला था। पठानकोट हमले के बाद किसी पाकिस्तानी टीवी चैनल ने ऐसा कुछ नहीं किया। किसी ने जैश सरगना मसूद अजहर की भी खोज-खबर लेने की कोशिश नहीं की। क्या इसका मतलब यह है कि पाकिस्तानी टीवी चैनल 'सुधर" गए हैं? जो भी हो, भारतीय चैनल श्रेष्ठता बोध का प्रदर्शन करने की स्थिति में नहीं हैं।

इसके बावजूद नहीं हैं कि वे अपना असर रखते हैं और कई बार यह भी तय करते दिखते हैं कि देश किस मसले पर गौर करे? इन दिनों तमाम टीवी चैनल टीवी कलाकार प्रत्यूषा बनर्जी की खुदकुशी को राष्ट्रीय त्रासदी में तब्दील करने में लगे हुए हैं। एक चर्चित अभिनेत्री की आत्महत्या चौंकाने वाली घटना जरूर है, लेकिन वह ऐसी भी नहीं कि पल-पल की जानकारी दी जाए और पुलिस से चार कदम आगे दिखने की कोशिश की जाए। इस मामले में सूत्रों के जरिए बेहिसाब जानकारी इसीलिए दी जा रही, क्योंकि चैनलों में आगे दिखने की होड़ है। इसी तरह की होड़ इंद्राणी मुखर्जी के मामले में देखने को मिली थी और इस होड़ का चरम बिंदु था - इंद्राणी ने सैंडविच खाया।

बहुत दिन नहीं हुए जब हमारे टीवी चैनल भक्तिकाल में चले गए थे। उन दिनों ऐसा लगता था कि साधु-संत व साध्वियों ने टीवी चैनलों के स्टूडियो में स्थायी डेरा डाल रखा है। संध्याकाल होते ही वे राधे मां या फिर आसाराम बापू अथवा शंकराचार्य के निशाने पर चल रहे शिर्डी के साईंबाबा के पक्ष में या विरोध में ज्ञान देने लगते थे। भक्तिकाल की इस लहर का चरम बिंदु था एक साध्वी द्वारा एक संत को लाइव थप्पड़ जड़ना।

यह सही है कि टीवी चैनल एक ऐसा माध्यम है जो कुछ नाटकीयता की मांग करता है, लेकिन उसकी एक सीमा है। भारत में ज्यादातर न्यूज चैनल रह-रहकर इस सीमारेखा का उल्लंघन करते नजर आते हैं। लगता है वे यह समझ नहीं पाते कि कब अति हो गई और कब तथ्य पीछे रहे गए और सनसनी सवार हो गई। इसका सबसे सटीक उदाहरण है जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार को दूसरा भगत सिंह, चे ग्वेरा और केजरीवाल वगैरह करार देने की भौंडी कोशिश। जमानत पर रिहा होने के बाद उसके जोशीले किंतु सतही भाषण को कई टीवी चैनलों ने पहले तो राष्ट्र के नाम संदेश की तरह प्रसारित किया और फिर उसने जो कुछ कहा, उसकी व्याख्या इस रूप में की जैसे देश को एक नया दर्शन मिल गया है। जिन्होंने भी ऐसा किया और कन्हैया को लाड़ला बनाया, उनकी तब बोलती बंद हो गई जब उसकी ओर से इस तरह का ज्ञान दिया जाने लगा कि भारत में कोई राष्ट्रविरोधी इसलिए नहीं हो सकता, क्योंकि संविधान में राष्ट्र शब्द है ही नहीं। कन्हैया ने 1984 और 2002 के दंगों में अंतर करके अपनी कथित विद्वता के ताबूत में आखिरी कील ठोंकी।

कन्हैया को राष्ट्रनायक बनाने की सनक में तमाम टीवी चैनल उसी तरह औंधे मुंह गिरे, जैसे एक समय मीडिया का एक बड़ा हिस्सा तमिलनाडु के उस रामर पिल्लई को लेकर अपनी फजीहत करा बैठा था, जिसने यह दावा किया था कि उसने एक ऐसे पौधे की तलाश कर ली है जिससे पेट्रोल बनाया जा सकता है। कन्हैया मामले में अति का प्रदर्शन करने से एक अच्छी बात यह हुई कि टीवी चैनल अलग-अलग खेमों में बंट गए। हालांकि विभिन्न् मसलों को लेकर उनमें पहले भी वैचारिक अंतर दिखा है, लेकिन यह पहली बार हुआ कि उन्होंने एक-दूसरे पर निशाना साधने में संकोच नहीं किया। कन्हैया मामले में जब कुछ फर्जी बताए जाने वाले वीडियो प्रसारित हुए तो नए सिरे से बहस छिड़ी और यह बहस उन लोगों ने भी छेड़ी जो इस पर अपना और देश का समय जाया कर चुके थे कि क्या मोदी ने वाशिंगटन में तिरंगे का अपमान किया?

दुनिया के अन्य देशों की तरह भारत में भी टीवी चैनलों का अपना एक महत्व है, लेकिन वे इस मुगालते से बाहर निकल आएं तो बेहतर होगा कि देश को वही चला रहे हैं और राष्ट्रीय विमर्श का एजेंडा तय करने की जिम्मेदारी उन्हें ही मिल गई है।

-लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं