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प्रशांत भूषण केसः सुप्रीम कोर्ट की अवमानना और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर बहस

--बीबीसी, 

देश की सबसे बड़ी अदालत यानी सुप्रीम कोर्ट ने जानेमाने वकील प्रशांत भूषण के दो विवादित ट्वीट्स को लेकर उन्हें अवमानना का दोषी माना है.

कंटेम्ट ऑफ़ कोर्ट्स ऐक्ट, 1971 के तहत प्रशांत भूषण को छह महीने तक की जेल की सज़ा जुर्माने के साथ या इसके बगैर भी हो सकती है.

इसी क़ानून में ये भी प्रावधान है कि अभियुक्त के माफ़ी मांगने पर अदालत चाहे तो उसे माफ़ कर सकती है.

गुरुवार को वरिष्ठ पत्रकार एन राम, अरुण शौरी और एडवोकेट प्रशांत भूषण ने कंटेम्ट ऑफ़ कोर्ट्स ऐक्ट के कुछ प्रावधानों की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली अपनी याचिका वापस ले ली थी.

मामला क्या है?
सुप्रीम कोर्ट ने एडवोकेट प्रशांत भूषण के इन ट्वीट्स पर स्वतः संज्ञान लेते हुए अदालत की मानहानि का मामला शुरू किया था.

कोर्ट ने कहा, "पहली नज़र में हमारी राय ये है कि ट्विटर पर इन बयानों से न्यायपालिका की बदनामी हुई है और सुप्रीम कोर्ट और ख़ास तौर पर भारत के चीफ़ जस्टिस के ऑफ़िस के लिए जनता के मन में जो मान-सम्मान है, ये बयान उसे नुक़सान पहुंचा सकते हैं."

चीफ़ जस्टिस बोबडे पर की गई टिप्पणी पर प्रशांत भूषण ने अपने हलफ़नामे में कहा कि पिछले तीन महीने से भी ज़्यादा समय से सुप्रीम कोर्ट का कामकाज सुचारू रूप से न हो पाने के कारण वे व्यथित थे और उनकी टिप्पणी इसी बात को जाहिर कर रही थी.

उनका कहना था कि इसकी वजह से हिरासत में बंद, ग़रीब और लाचार लोगों के मौलिक अधिकारों का ख्याल नहीं रखा जा रहा था और उनकी शिकायतों पर सुनवाई नहीं हो पा रही थी.

लोकतंत्र की बर्बादी वाले बयान पर प्रशांत भूषण की ओर से ये दलील दी गई कि "विचारों की ऐसी अभिव्यक्ति स्पष्टवादी, अप्रिय और कड़वी हो सकती है लेकिन ये अदालत की अवमानना नहीं कहे जा सकते."

लेकिन ऐसा नहीं है कि प्रशांत भूषण सुप्रीम कोर्ट की अवमानना के केवल इसी मामले में कठघरे में खड़े हैं. उन पर सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का एक और मामला लंबित है.

पूरी रपट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.