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पंचायत के रास्ते जन तक पहुंचा तंत्र

प्रदीप श्रीवास्तव, नई दिल्ली। तमाम दिक्कतों, सरकारी अवरोधों को गिनाने के साथ मणिशंकर अय्यर मानते हैं कि पंचायत राज व्यवस्था ने जमीनी स्तर पर लोकतांत्रिक प्रक्रिया से प्रशिक्षित लाखों लोगों की एक फौज खड़ी की है। खासकर इससे महिलाओं को आगे लाने में काफी कामयाबी मिली है। पंचायती राज के जरिए जनता देश में 38 लाख प्रतिनिधि चुनती है। इसमें 14 लाख महिलाएं होती हैं।
अय्यर के मुताबिक, पिछले 20 सालों में पंचायत चुनावों के माध्यम से 60 से 75 लाख महिलाएं घरों से निकल कर चौपाल तक पहुंचीं। ये महिलाएं हर घर के दरवाजे खटखटाती हैं और अपने लिए वोट मांगती हैं। सर्वेक्षण रपटों से पता चलता है कि कमजोर तबकों की महिलाओं का ज्यादा सशक्तीकरण हुआ है। शायद इसकी एक वजह यह भी है कि इन तबकों की महिलाएं कामकाज की वजह से पहले से ही घर से बाहर निकलती रही हैं। पंचायती व्यवस्था के अमलीकरण में आई रुकावटों के मामले में मणिशंकर अय्यर राज्यों के साथ केंद्र को भी जिम्मेदार ठहराते हैं।
1992 के संविधान संशोधन कानून के बाद पंचायती व्यवस्था में महिलाओं के लिए 33 फीसद आरक्षण रखा गया है। पंद्रह राज्यों में इसे बढ़ा कर 50 फीसद कर दिया गया है। अब देश भर में पंचायत स्तर पर महिलाओं के लिए 50 फीसद आरक्षण करने की कोशिश की जा रही है। इससे संबंधित विधेयक राज्य सभा से पारित हो चुका है। लोकसभा में यह लंबित है। मणिशंकर अय्यर बताते हैं कि 1989 में जब राजीव गांधी ने अपने सहयोगियों से पंचायत में महिलाओं के आरक्षण की बात की थी तो एक केंद्रीय मंत्री ने अय्यर से हुई बातचीत में उस दौरान यह शंका जताई थी कि गांवों में होने वाले इन चुनावों में इतनी ज्यादा संख्या में महिलाएं आएंगी कहां से? यह शंका निर्मूल निकली।
पंचायती राज में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण की व्यवस्था है। उनके लिए रखी गई सीटों में 33 फीसद सीट इस वर्ग की महिलाओं के लिए है। तमिलनाडु को छोड़ कर हर राज्य में ये आरक्षित सीटें चूंकि हर पांच साल बाद रोटेशन से बदलती रहती हैं, इसलिए किसी के लिए भी उस सीट पर दूसरी बार चुनाव जीतना मुश्किल है। अनुसूचित जाति, जनजाति के उम्मीदवार अगर किसी आरक्षित सीट से जीतते हैं, अपने कार्यकाल में मेहनत से काम कर लोगों का भरोसा भी जीतते हैं तो अगली बार उस सीट पर आरक्षण खत्म हो जाने से उनका दोबारा वापस आना तकरीबन नामुमकिन हो जाता है।
अय्यर के मुताबिक, उनकी कमेटी ने अपनी रपट में यह सिफारिश की है कि लोकसभा या विधानसभा की सीटें लंबे समय तक आरक्षित रहती हैं। नए परिसीमन के साथ उसे जैसे बदला जाता है उसी तरह पंचायत स्तर पर भी होना चाहिए। इसके पीछे वे ठोस तर्क भी देते हैं। लोकसभा या विधानसभा की सीटों के लंबे आरक्षण से कमजोर तबकों के कई उम्मीदवार वहां से लगातार जीत कर राज्य या राष्ट्रीय स्तर के बड़े नेता बने। पंचायत स्तर पर भी लगातार अपने प्रभाव को कायम रख कमजोर तबकों के उम्मीदवार बड़े नेता के रूप में उभर सकते हैं।

महिलाओं के पंचायत में आरक्षण के बाद सरपंच पति को ले कर काफी खबरें आती रहीं। यानी सरपंच बनी महिला नाममात्र की कुर्सी पर है। कामकाज की असल बागडोर उसके पति के हाथों में होती है। इस मुद्दे पर मणिशंकर अय्यर का कहना है कि ज्यादतर हिंदीभाषी राज्यों से ये मामले सामने आए हैं। ये वे राज्य हैं जहां पंचायत राज पिछड़ा रहा है। इसमें उत्तर प्रदेश, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, बिहार जैसे राज्य हैं। उन्होंने कहा कि इन राज्यों में पिछले चार-पांच सालों से पंचायत चुनाव को ले कर थोड़ी तरक्की हुई है। केरल, महाराष्ट्र, गुजरात जैसे राज्यों में ऐसा नहीं है। उन्होंने इसके पीछे सदियों से भारतीय समाज में पति-पत्नी के बीच बने सामाजिक और पारिवारिक सरोकार को भी एक कारण बताया।
इस मामले में उन्होंने अपना अनुभव भी बताया। राजस्थान के एक गांव में वे महिला सरपंच से जब सवाल पूछ रहे थे तो हर सवाल का जवाब उस महिला की जगह उसके पास खड़ा एक व्यक्ति दे रहा था। मैंने उससे कहा कि, सवाल आप से नहीं कर रहा हूं। कौन हैं आप? तब उस महिला ने बताया कि वह उसका पति है। उसने साथ में यह भी कहा कि मैं इनकी पत्नी हूं और घर-बाहर के कई कामों को ले कर हम एक-दूसरे से सलाह मशवरा करते हैं।
उन्होंने यह भी कहा कि सरपंच पति या इसी तरह पंचायत चुनाव में दबंगई, हिंसा, जाति, पैसे के दुरपयोग का मुद्दा उठा कर इन्हें पंचायत के खिलाफ तर्क के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन, क्या यह विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में नहीं होता? इसका अर्थ यह तो नहीं कि लोकतंत्र की प्रक्रिया रोक दी जाए। चुनाव व्यवस्था को मजबूत कर इसे सुधारा जा सकता है। एक तर्क यह भी दिया जाता है कि पंचायत राज्य का विषय है। केंद्र इसमें क्या करे? बारहवीं पंचवर्षीय योजना के मसविदे रपट में भी यही दलील दी गई है। यह गलत तर्क है।
कृषि जैसे बहुत से विषय राज्य सूची में हैं। ग्रामीण विकास, गरीबी उन्मूलन पर 70 फीसद से सौ फीसद खर्च केंद्र सरकार करती है। हर साल यह खर्च बढ़ा है। बीस साल पहले केंद्र 75 हजार करोड़ खर्च करती थी, अब तीन लाख करोड़ खर्च किया जा रहा है। ये तीन लाख करोड़ 150 केंद्र प्रयोजित योजनाओं के जरिए राज्यों को भेजे जा रहे हैं। इसी आधार पर राज्य पैसे खर्च कर सकते हैं। ऐसे दिशा-निर्देश पंचायतों के लिए भी बनाए जा सकते हैं।
केंद्र को दिए सुझावों में अय्यर ने अनुसूचित जाति और अन्य दूसरे संवैधानिक आयोगों की तरह पंचायत के लिए भी राष्ट्रीय आयोग की बात कही है। जिससे राज्य सरकार या केंद्र की तरफ से पंचायत से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों का उल्लघंन होने पर पंचायत के लोग सीधे आयोग के पास अपनी शिकायत ले कर जा सकें।