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पग-पग बीहड़ और अंख-अंख पानी - पंकज चतुर्वेदी

चंबल, मध्य प्रदेश के भिंड और मुरैना जिले में ऐसे 948 गांव हैं, जहां का सामाजिक व आर्थिक ताना-बाना जमीन में पड़ती गहरी दरारों के कारण पूरी तरह से बिखर चुका है। यहां की जमीन का रिकॉर्ड रखना सरकार के बस में नहीं है, क्योंकि पता नहीं कौन-सी सुबह किसका घर, खेत या सड़क बीहड़ की भेंट चढ़ जाए। लगभग 16.14 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल वाले चंबल संभाग का कोई 20 प्रतिशत हिस्सा बीहड़ का रूप ले चुका है। लगभग ऐसा ही हाल बुंदेलखंड का भी है। बीहड़ केवल जमीन को नहीं खाते हैं, ये सामाजिक ताने-बाने, आर्थिक हालात और मानवीय संवदेनाओं को भी चट कर जाते हैं। बीहड़ के कटाव इसी गति से बढ़ते रहे, तो मध्य भारत के एक दर्जन जिलों में भुखमरी और बेरोजगारी का स्थायी रूप से बसेरा हो जाएगा। धरती पर जब पेड़-पौधों की पकड़ कमजोर होती है, तब बरसात का पानी सीधा नंगी धरती पर पड़ता है और वहां की मिट्टी बहने लगती है। जमीन के समतल न होने के कारण पानी को जहां भी जगह मिलती है, वहां वह मिट्टी काटते हुए बहता है। इस प्रक्रिया में नालियां बनती हैं और जो आगे चलकर बीहड़ का रूप ले लेती हैं।

एक बार बीहड़ बन जाए, तो हर बारिश में वह और गहराता जाता है। इस तरह के भू-क्षरण से हर साल लगभग चार लाख हेक्टेयर जमीन उजड़ रही है। राष्ट्रीय कृषि आयोग ने सन 1971 में ही चेताया था कि देश में 30 लाख हेक्टेयर से अधिक भूमि बीहड़ में बदल चुकी है, जो कुल क्षेत्रफल का 1.12 प्रतिशत है। बीहड़ों का विस्तार सामाजिक और आर्थिक संकटों का जनक बन गया है। कृषि-प्रधान क्षेत्र में जब जमीन का टोटा हो रहा है, तो एक-एक इंच जमीन के पीछे गरदन-काट लड़ाई होना लाजिमी है। इस इलाके की डकैत समस्या के मूल में यही दिक्कत है। नक्शे पर लिखा है कि अमुक की जमीन की हद नदी से 10 मीटर दूर है। अब दो-तीन साल में नदी की हद ने जमीन काटकर बीहड़ बना दिए। जमीन का मालिक अब अपनी जमीन को दस मीटर आगे से नापता है, जो दूसरे के मालिकाना हक की जमीन है।

यहीं से विवाद शुरू होते हैं और फिर फरारी, डकैत बनते हैं। 20-25 फीट गहरे बीहड़ बागियों के लिए एक निरापद शरण-स्थली होते हैं। बीहड़ कोई अपराजेय संकट नहीं है। अभी तक बीहड़ को रोकने के जो भी प्रयोग हुए, वे भूमि कटाव को रोकने व नमीकरण पर केंद्रित रहे हैं। ये जमीन के वैकल्पिक उपयोग की नीति पर केंद्रित रहे। स्थानीय किसान न तो इससे सहमत रहे हैं, न ही उनकी भागीदारी इसमें रही, सो ये योजनाएं सफल नहीं हो सकीं। चंबल में जमीन समतल करने के साथ-साथ जल संरक्षण और इस पानी का इस्तेमाल खेती के लिए करने हेतु आम लोगों की क्षमता का विकास करना होगा। इसके लिए जागरूकता और प्रशिक्षण दो महत्वपूर्ण कदम होंगे। यह काम लोगों को साथ लेकर ही हो सकता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)