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पत्रकारिता का सुंदरकांड- नासिरुद्दीन

पत्रकारिता के बारे में समालोचना करते वक्त डर क्यों लगता है? क्या इसलिए कि लोकतंत्र के खंभों को पाक दामन माना जाता है? या इसलिए कि ये खंभे काफी ताकत रखते और समय-समय पर ताकत दिखाते भी हैं? अब यह तय करना मुश्किल होता जा रहा है कि चौथा खंभा, लोकतंत्र का भार उठाये है या वही लोकतंत्र पर भारी पड़ रहा है. चौथा खंभा यानी पत्रकारिता यानी अखबार, न्यूज चैनल, रेडियाे, इंटरनेट सब. अगर कुछ मीडिया संस्थानों को छोड़ दिया जाये, तो इस वक्त ज्यादातर मीडिया संस्थान लोकतंत्र के नाम पर ‘एकरंगी भीड़ तंत्र' के हक में खड़े दिख रहे हैं.

नतीजा, अब देश के लोगों को एक नये उन्माद का हिस्सा बनाने की कोशिश चल रही है. पिछले दिनों जवाहरलाल नेहरू विवि (जेएनयू) में एक घटना हुई. इस घटना को न्यूज चैनलों ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय घटना बना दी. राष्ट्रवाद के नाम पर अमूर्त बहस शुरू की गयी.

इसका लोगों के दुख-सुख, रोजगार, दा‍ल-चावल की कीमत से कोई लेना-देना नहीं है. इसी बहस के बहाने देश में उन्माद पैदा किया जा रहा है. यह एक ऐसी बहस है, जिसमें अगर मीडिया के बादशाहों से सहमति नहीं है, तो कोई भी शख्स ‘राष्ट्र' का ‘विरोधी' हो सकता है. यह उन्माद पिछले कुछ उन्मादों की ही तरह खतरनाक, हिंसक और विभाजनकारी दिख रहा है. इस उन्माद की आग को बुझाने के बजाय कुछ अखबारों और खबरिया चैनलों ने इसमें घी डालने का काम किया.

जिन पत्रकारों को याद नहीं या जो पत्रकार इनका हिस्सा रहे हैं, उन्हें अपनी याद्दाश्त ताजा करनी चाहिए. दिल्ली में केंद्रित आरक्षण विरोधी आंदोलन को राष्ट्रव्यापी, हिंसक, उन्मादी और नफरत भरा बनाने में पत्रकारिता की भूमिका अहम थी. बाबरी मसजिद-रामजन्मभूमि आंदोलन में अखबारों और खासकर हिंदी के अखबारों ने जो नफरत फैलायी, वह इतिहास का दस्तावेज है, जिसकी पड़ताल में रघुवीर सहाय जैसे संवेदनशील पत्रकार और साहित्यकार की जान भी चली गयी. याद है न!

कुछ दिनों पहले हैदराबाद केंद्रीय विवि और इसके बाद जेएनयू से निकले कुछ नारों से कुछ पत्रकारों का खून उबल रहा है. उनके बोल, फेसबुक पोस्ट या उनके लेख या उनकी खबरें देखिए- वे शब्दों से उबलते नजर आते हैं. वे अपने उबाल में देश को उबाल देना चाहते हैं. नतीजा, उनके अनुयायी सोशल मीडिया पर आरोपितों को पीटना चाहते हैं. फांसी देना चाहते हैं. बलात्कार कराना चाहते हैं. क्या मीडिया उन्माद बढ़ाने का काम करेगा या स्वस्थ संवाद के जरिये मुद्दों की पड़ताल करेगा?

विमर्श एक सभ्य तरीका है. भारतीय संस्कृति में विमर्श की लंबी परंपरा रही है. लेकिन पत्रकारों का एक समूह दूसरों को डरा-धमका कर या चुप करा कर विमर्श करना चाहता है. यह सब देश के नाम पर भव्य स्टूडियो या अखबारों के बड़े दफ्तरों से हो रहा है. ये वैसा ही उन्माद पैदा करना चाहते हैं, जैसा नब्बे के दशक में वे कर चुके हैं. यह रजामंदी पैदा करने का उन्माद है.

पत्रकारिता का मान्य सिद्धांत है कि किसी पर आरोप लगाने से पहले तथ्यों की पूरी पड़ताल की जाये. जिस पर आरोप लग रहा, उसकी बात भी सुनी जाये. किसी के कहे या सुने पर कुछ न किया जाये. ये सारे सिद्धांत पिछले दिनों ताक पर रख दिये गये. एक वीडियो आया और दिखाया गया. अब इसकी सच्चाई पर ही शक है. नारे निकाले गये, जो बाद में कुछ और निकलते दिखे. कुछ तस्वीर आयी, पता चला इसके साथ कलाकारी की गयी थी. कुछ नाम आये, जिन्हें बड़ी आसानी से आतंक के बने-बनाये खांचे में फिट कर दिया गया.

यह मान कर कि वे आपत्ति दर्ज कराने नहीं आ सकते हैं. कुछ संगठनों या शख्स को राष्ट्रविरोधी साजिश का हिस्सा बनाया गया. कुछ छात्रों की खूंखार छवि तैयार की गयी. एक से ज्यादा संस्करणों वाले अखबारों की हेडलाइन दिल्ली से चलती हुई पड़ाव-दर-पड़ाव ‘धारदार' होती गयी. इनमें से किसी में पत्रकारिता के मान्य नैतिक सिद्धांतों का पालन नहीं किया गया. अब भी नहीं किया जा रहा है.
पटियाला हाउस कोर्ट में छात्रों, अध्यापकों और पत्रकारों पर दो दिन हमला यों ही अचानक तो नहीं हो गया था?

ये बिना उन्माद और तैयारी के मुमकिन नहीं था. क्यों नहीं किसी को 1989 या छह दिसंबर 1992 की याद आयी? अखबारों के उन्माद का ही नतीजा था कि जब बाबरी मसजिद पर हमला हुआ, तो उसी वक्त पत्रकारों और कैमरा वालों पर भी हमला हुआ. वे वही लोग थे, जिनके साथ अखबार या मीडिया कुछ क्षण पहले तक खड़ा था. क्या पटियाला हाउस की घटना ऐसी ही नहीं है? वहां से निकल कर उन्माद समाज में फैल रहा है. ठीक उसी तरह जैसा नब्बे के दौर में फैला था. क्या पत्रकार और आज की पत्रकारिता इस उन्माद की जिम्मेवारी लेगी?

खबरिया चैनलों और अखबारों ने बड़े जन-समूह की सोच की आजादी के हक को कुंद कर दिया है. वे अपनी ताकत का इस्तेमाल खास विचार को थोपने में कर रहे हैं. इसमें सभी राय या असहमतियों को सुनने या इन्हें जगह देने की गुंजाइश खत्म कर दी गयी है.
वे जवाहरलाल नेहरू विवि छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया को दिखाते हैं और बड़ी ‘साजिश' की बात करते हैं. कन्हैया जिस विचार से जुड़ा है, उससे सहानुभूति रखनेवाले हजारों लोग दिल्ली में प्रदर्शन के लिए आते हैं और भूख से आजादी मांगते हैं, तब मीडिया में इनके लिए कोई जगह नहीं होती.

यह बात ध्यान रखने की है कि आज और नब्बे के दशक में फर्क है. इसीलिए उन्माद के साथ-साथ, उन्माद के खिलाफ भी आवाज में तेजी है. बलात्कार की धमकी देने, चुप कराने और डराने की कोशिशों के बावजूद लोग और कुछ पत्रकार/अखबार बोल रहे हैं. अगर एक तस्वीर आती है, तो दूसरी तस्वीर उसका झूठ भी उजागर कर रही है. लेकिन अफवाह, झूठ, उन्माद, बजरिये मीडिया समाज में पसर चुका है.

यह अपना काम कर रहा है. समाज को बांट रहा है. क्या इस बंटवारे की जिम्मेवारी उन लोगों के सर नहीं आनी चाहिए, चिल्लाते हुए जिनके गले सूख जाते हैं. अखबार के पन्ने जिनके जहर बुझे शब्दों के गवाह हैं. क्या चौथे खंभे होने के मद में चूर लोगों को लोकतंत्र के प्रति जवाबदेह नहीं होना चाहिए? क्या देश को उत्तेजना और उन्माद में झोंकना, ‘राष्ट्र' से ‘द्रोह' नहीं है?