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परीक्षा के अंक नहीं हैं जिंदगी का पैमाना- आशुतोष चतुर्वेदी

हाल में बिहार, झारखंड, सीबीएसइ और आइसीएससी बोर्ड के नतीजे आये हैं. साथ ही कई बच्चों के आत्महत्या करने की दुखद खबरें भी आयीं. ऐसी खबरें इसी साल आयीं हों, ऐसा नहीं हैं. ये खबरें साल-दर-साल आ रही हैं.

दुर्भाग्य यह है कि अब ऐसी खबरें हमें ज्यादा विचलित नहीं करती हैं. कुछ दिन चर्चा होकर बात खत्म हो जाती है. गंभीर होती जा रही इस समस्या का कोई हल निकलता हुआ नजर नहीं आ रहा है. महज दो-तीन दिन पहले रांची में रह कर पढ़ रही एक बेटी ने 12वीं में कम नंबर आने पर एक मॉल से कूद कर जान दे दी.

बिटिया का लक्ष्य इंजीनियरिंग करना था, पर नंबर कम आने से वह इंजीनियरिंग की परीक्षा में नहीं बैठ सकती थी़. कम नंबर आने पर घरवालों ने उसे डांटा था. मध्य प्रदेश में बोर्ड परीक्षा के नतीजों के बाद वहां नौ बच्चों ने आत्महत्या कर ली. सीबीएसइ बोर्ड की 10वीं की परीक्षा के नतीजों में अच्छे अंक न आने से निराश दिल्ली के तीन छात्रों ने आत्महत्या कर ली. झारखंड की 12वीं क्लास की एक बेटी नाना-नानी के साथ रहती थी. खराब नतीजे आने पर उसने खुद को कमरे में बंद कर लिया और दुपट्टे से फांसी लगा ली.

दुमका में 12वीं की परीक्षा में असफल रहने पर एक छात्र ने घरवालों की तमाम सजगता के बावजूद आत्महत्या कर ली. उसे सभी विषय में प्रथम श्रेणी के अंक मिले थे, मगर गणित में उसे सिर्फ दो अंक दिये गये थे. यह मूल्यांकन की भूल हो सकती है. घरवालों ने उसे हिम्मत देने में कमी नहीं की. मन बहलाने के लिए उसे घुमाया, होटल में अच्छा खाना खिलाया. फिर एक पारिवारिक कार्यक्रम में बिहार के जमुई ले गये, मगर जब रात में सभी सो रहे थे, छात्र ने आत्महत्या कर ली.

बिहार के बक्सर में एक छात्रा को जब पता चला कि वह 12वीं की परीक्षा में फेल हो गयी है, तो उसने लगभग तीन किमी दूर रेलवे ट्रैक पर जा कर आत्महत्या कर ली. इस बिटिया के बारे में ऐसी सूचनाएं सामने आयीं कि उसने जेइइ मेंस क्लियर कर लिया था. उसका जेइइ एडवांस का पर्चा भी अच्छा गया था. दक्षिणी राज्य तेलंगाना में तो हाहाकार मचा हुआ है. वहां 10 अप्रैल को तेलंगाना बोर्ड के इंटरमीडिएट के नतीजे आये थे, जो बेहद खराब थे. लगभग 10 लाख छात्रों ने 12वीं की परीक्षा दी थी, जिसमें से तीन लाख छात्र फेल हो गये.

नतीजों के बाद अब तक वहां 22 बच्चों ने आत्महत्या कर ली है. माना जा रहा है कि खराब नतीजों की मुख्य वजह पेपर जांचने में हुई तकनीकी गड़बड़ी है. बच्चों की आत्महत्या की घटनाओं ने पूरे राज्य को हिला दिया है. यह स्वाभाविक भी है. 22 बच्चों का आत्महत्या करना कोई साधारण घटना नहीं है. अभिभावक, छात्र संगठन और राजनीतिक पार्टियां, सभी नतीजों पर सवाल उठा रहे हैं. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने राज्य सरकार से चार हफ्ते में रिपोर्ट मांगी है.

राज्य सरकार ने भी फेल हुए सभी छात्रों की कॉपियों को दोबारा जांचने के आदेश दे दिये हैं. हर राज्य से ऐसी दुखद सूचनाएं आयीं हैं. इन घटनाओं का उल्लेख मैं इसलिए कर रहा हूं, ताकि हमें स्थिति की गंभीरता का अंदाज लग सके. कम अंकों का दबाव बच्चे इसलिए भी महसूस कर रहे हैं, क्योंकि हमारे बोर्ड टॉपर के नंबर का स्तर हर साल बढ़ा कर एक अनावश्यक प्रतिस्पर्धा को जन्म देते जा रहे हैं. एक बोर्ड में बच्चों के 500 में 500 अंक आ रहे हैं, तो दूसरे बोर्ड में 500 में 499 अंक लाने वालों बच्चों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है.

कुछ समय पहले सरकार ने संसद में जानकारी दी थी कि 2014 से 2016 के बीच देशभर में 26600 विद्यार्थियों ने आत्महत्या की थी. राज्यसभा में एक प्रश्न के लिखित उत्तर में सरकार ने बताया था कि 2016 में 9474, 2015 में 8934 और 2014 में 8068 छात्र-छात्राओं ने आत्महत्या की थी. 2016 में छात्र-छात्राओं की आत्महत्या के सर्वाधिक 1350 मामले महाराष्ट्र से सामने आये थे, जबकि प बंगाल से 1147, तमिलनाडु में 981 और मप्र में 838 विद्यार्थियों ने आत्महत्या की थीं. 2015 में भी आत्महत्या के सर्वाधिक मामले महाराष्ट्र से सामने आये थे.

वहां 1230, तमिलनाडु में 955, छत्तीसगढ़ में 730 और प बंगाल में 676 विद्यार्थियों ने आत्महत्याकी थी. परीक्षा परिणामों के बाद हर साल अखबार मुहिम चलाते हैं, बोर्ड और सामाजिक संगठन हेल्प लाइन चलाते हैं, लेकिन छात्र-छात्राओं की आत्महत्या के मामले रुक नहीं रहे हैं. जाहिर है, ये प्रयास नाकाफी हैं. बच्चे संघर्ष करने की बजाय हार मान कर आत्महत्या का रास्ता चुन ले रहे हैं. यह चिंताजनक स्थिति है. माता पिता और शिक्षकों की यह जिम्मेदारी है कि वे लगातार बच्चों को यह समझाएं कि परीक्षा परिणाम ही सब कुछ नहीं है. ऐसे सैकड़ों उदाहरण है कि इम्तिहान में बेहतर न करने वाले छात्र-छात्राओं ने जीवन में सफलता के मुकाम हासिल किये हैं.

दरअसल, मौजूदा दौर की गलाकाट प्रतिस्पर्धा और माता-पिता की असीमित अपेक्षाओं के कारण बच्चों को जीवन में भारी मानसिक दबाव का सामना करना पड़ रहा है.

बेटियां तो और भावुक होती हैं. दूसरी ओर माता-पिता के साथ संवादहीनता बढ़ रही है. ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जहां बच्चे परिवार, स्कूल और कोचिंग में तारतम्य स्थापित नहीं कर पाते हैं और तनाव का शिकार हो जाते हैं. रही-सही कसर टेक्नोलॉजी ने पूरी कर दी है. मोबाइल व इंटरनेट ने उनका बचपन ही छीन लिया है. वहीं, माता पिता के पास वक्त नहीं है. जहां मां नौकरीपेशा है, वहां संवादहीनता ज्यादा गंभीर है. स्कूल उन्हें अच्छा नहीं लगता, इम्तिहान उन्हें भयभीत करता है. एक और वजह है.

भारत में परंपरागत परिवार का तानाबाना टूट रहा है. नयी व्यवस्था में बच्चों को बाबा-दादी, नाना-नानी का सहारा नहीं मिल पाता है, जबकि कठिन वक्त में उन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत होती है. यही वजह है कि बच्चे आत्महत्या जैसे अतिरेक कदम उठा लेते हैं. किसी भी समाज और देश के लिए यह बेहद चिंताजनक स्थिति है कि कोई बच्चा आत्महत्या को आखिरी विकल्प क्यों मान रहा है? बच्चों की बढ़ती आत्महत्या भारतीय शिक्षा प्रणाली पर भी सवाल खड़े करती है.

यह सही है कि मौजूदा दौर में बच्चों का पढ़ाना अब आसान नहीं रहा है. बच्चे, शिक्षक और अभिभावक शिक्षा की तीन महत्वपूर्ण कड़ी हैं. शिक्षा के बाजारीकरण के दौर में न तो शिक्षक पहले जैसा रहा, न ही छात्रों से उसका पहले जैसा रिश्ता. आरोप लगते हैं कि शिक्षक अपना काम ठीक से नहीं करते हैं. इसमें आंशिक सच्चाई भी है, पर यह भी सच है कि समाज ने भी उनका आदर करना बंद कर दिया है.

गौर करें, तो पायेंगे कि टॉपर बच्चे डॉक्टर, इंजीनियर और प्रशासनिक अधिकारी तो बनना चाहते हैं, पर कोई शिक्षक नहीं बनना चाहता है. शिक्षा चुनावी मुद्दा नहीं बनती. समाज की इसी उपेक्षा ने शिक्षा को भारी नुकसान पहुंचाया है.