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परीक्षाओं में धांधली की बढ़ती चुनौती - प्रेमपाल शर्मा

शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो जब देश में चल रही परीक्षाओं को लेकर कोई घोटाला सामने न आए। पिछले दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ ओपन लर्निंग के कई पेपर लीक हुए। ठीक इसी वक्त मेडिकल की प्रवेश परीक्षा में हुई धांधली का मामला भी सुप्रीम कोर्ट के सामने है, जिसने इस मामले में अपना फैसला सुरक्षित कर लिया है। मध्य प्रदेश के व्यापमं घोटाले के बारे में पूरा देश जानता है। बेईमानी की एक से एक युक्तियां सामने आ रही हैं। कभी पर्चा लीक होता है तो कभी उत्तर पुस्तिका खाली छोड़ दी जाती है, ताकि इन्हें मनमाने तरीके से भरकर धांधली की सके। दो वर्ष पहले एम्स और चंडीगढ़ की डॉक्टरी की स्नातकोत्तर परीक्षा में ब्लूटूथ और आईटी के नए औजारों के प्रयोग के मामले सामने आए थे। आखिर यह सब कब तक होता रहेगा? नई पीढ़ी की आस्था शिक्षण, शोध, मेहनत, नैतिकता जैसे शब्दों पर कैसे टिकेगी? क्या दुनियाभर में सम्मान पाने वाले भारतीय युवा परीक्षाओं में होने वाली धांधलियों के चलते अपनी प्रतिभा और मेहनत के दम पर अपेक्षित सम्मान हासिल कर पाएंगे?

अब वक्त आ गया है जब केंद्र सरकार सख्त कानून बनाकर हस्तक्षेप करे। शिक्षा भले ही राज्यों की समवर्ती सूची का विषय हो, लेकिन यदि उससे पूरे देश की शिक्षा व्यवस्था चौपट हो रही है तो केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठ सकता। पिछले दिनों दसवीं, बारहवीं की बोर्ड की परीक्षाओं में बिहार, उत्तर प्रदेश की तस्वीरें आपने देखी होंगी कि कैसे पूरा तंत्र नकल और धांधली में लिप्त था। अफसोस की बात यह है कि देश के कुछ राजनेता तक वोट की खातिर शिक्षा की इन बुराइयों को बढ़ावा दे रहे हैं।

तो क्या परीक्षा आयोजित कराने के लिए भी विदेशी कंपनियों को लगाने की जरूरत है? क्या इंजीनियरिंग, मेडिकल या दूसरी परीक्षाओं में रोज-रोज बढ़ती ऐसी घटनाएं नकल और बेईमानी की इन्हीं प्रवृत्तियों का विस्तार नही हैं? जिस तरह नकल के बूते दसवीं, बारहवीं की परीक्षाएं ऐसे लोग उत्तीर्ण करते हैं, लगभग वैसे ही तौर-तरीकों को वे प्रतियोगी परीक्षाओं में भी आजमाते हैं। व्यवस्था की कमजोरी यही है कि इनमें लिप्त मुजरिमों को कड़ा और अनुकरणीय दंड नहीं मिलता, वरना पिछले दशकों में ऐसी घटनाओं की बाढ़ नहीं आती। सर्वोच्च न्यायालय से लेकर देश के कई न्यायालयों में ऐसे घोटालों के सैकड़ों मामले लंबित होना भी बहुत कुछ कहता है।

बहुत दिन नहीं बीते, जब प्रबंधन के सर्वोच्च संस्थान आईआईएम में दाखिले के लिए होने वाली कैट परीक्षा में भी धांधली का मामला सामने आया था। अपराधी था, नालंदा का रंजीत सिंह डॉन। वह ऐसे ही घोटाले से डॉक्टर बना था, लेकिन बैंक, इंजीनियरिंग, मेडिकल समेत सभी परीक्षाओं में धांधली बिलकुल समाजवादी अंदाज में करता था। बाद में वह पकड़ा तो गया, लेकिन यदि यदि उसे ऐसा दंड दिया जाता जिससे पूरे देश में संदेश जाता तो ऐसे कामों को दोबारा करने की हिम्मत शायद ही कोई अन्य जुटा पाता। ऐसा नहीं है कि सब अपराधी बच जाते हों, देरसबेर कुछ पकड़ में आते ही हैं। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला शिक्षकों की भर्ती घोटाले के मामले में एक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी के साथ सजा भुगत रहे हैं, लेकिन अपराधियों में न्याय व्यवस्था ऐसा भय नहीं पैदा कर पाई कि ये फिर से ऐसी जुर्रत न करें।

कहीं ऐसा तो नहीं कि हमने ऐसा समाज बनाया है जहां नकल, चोरी, धांधली जैसी वारदातों को अपराध ही नहीं माना जाता हो? पिछले वर्ष कुछ शब्दों की चोरी के आरोप में भारतीय मूल के प्रसिद्ध अमेरिकी पत्रकार फरीद जकारिया को अमेरिका की 'टाइम" पत्रिका ने तुरंत तलब किया और संतुष्ट होने तक उनके सभी लेखों के प्रकाशन-प्रसारण पर प्रतिबंध लगा दिया था। दुनियाभर के प्रसिद्ध शिक्षण संस्थानों में ऐसे सॉफ्टवेयर हैं, जहां आप शोध आदि में एक शब्द भी चोरी नहीं कर सकते। एक ओर हमारे विश्वविद्यालय हैं, जहां पूरे के पूरे शोध प्रबंध ही उड़ा लिए जाते हैं। पिछले दिनों उत्तर-पूर्व के एक फर्जी विश्वविद्यालय द्वारा एक वर्ष में तीन सौ से ज्यादा पीएचडी डिग्री देने की खबर तो शायद दुनियाभर के शोध इतिहास में अनोखी है। और तो और, दिल्ली विश्वविद्यालय के पिछले उपकुलपति भी वनस्पति शास्त्र के एक शोध पत्र के मामले में दिल्ली विश्वविद्यालय के सामने सफाई दे रहे हैं। जब इन्हीं के बूते नौकरियां मिलती हों, लोग प्रोफेसर और कुलपति बनते हों, तब इनसे शिक्षा में सुधार की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?

पिछले हफ्ते ऐसी ही एक खबर आई कि दक्षिण भारत में एक न्यायाधीश नकल करते पकड़े गए। उस खबर को भी जनता नहीं भूली होगी जब दिल्ली में बैठे एक पुलिस अधिकारी की पत्नी ने बिना बिहार गए ही एमए की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। ऐसे मामलों पर कुछ दिन या कहिए कि कुछ घंटे ही शोर मचता है। क्या येन-केन-प्रकारेण डिग्री हासिल करना ही शिक्षा का मकसद रह गया है? जब शीर्ष पर बैठे कर्णधार भी उसमें लिप्त हों तो अव्यवस्था के अंधेरे की कल्पना की जा सकती है। दिल्ली के एक मंत्री की फर्जी डिग्रियों का मामला भी इसी कड़ी का उदाहरण है।

संघ लोक सेवा आयोग, आईआईटी जैसी इक्का-दुक्का परीक्षाएं जरूर उम्मीद जगाती हैं। ऐसा नहीं कि इनमें सेंध लगाने की कोशिश नहीं हुई, लेकिन समय रहते उन पर काबू पा लिया गया। सूचना प्रौद्योगिकी का जिस तेजी से विस्तार हो रहा है और ठग जितने चुस्त-दुरुस्त हैं, व्यवस्था को भी उतनी चुस्ती से उसका मुकाबला करना होगा। इसमें सबसे महत्वपूर्ण है कड़े से कड़े दंड की व्यवस्था।

एक और महत्वपूर्ण पक्ष पर विचार करने की जरूरत है और वह है आखिर बार-बार इतनी परीक्षाएं क्यों? दिल्ली या दूसरे विश्वविद्यालय ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं बनाते कि स्नातकोत्तर या दूसरे पाठ्यक्रमों में प्रवेश स्नातक परीक्षा के आधार पर हो और स्नातक में बारहवीं बोर्ड के आधार पर। तमिलनाडु सरकार इंजीनियरिंग में दाखिले तमिलनाडु बोर्ड की परीक्षा के आधार पर कर रही है और परिणाम बहुत अच्छे रहे हैं। ऐसा ही और जगह भी होना चाहिए।

-लेखक स्‍वतंत्र टिप्‍पणीकार हैं।