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पर्यावरण विमर्श का जनपक्ष-- अनुज लुगुन

विश्व बाजार में आज दो विपरीत चीजें एक साथ चल रही हैं- हथियारों की होड़ एवं पर्यावरण विमर्श. ग्लोबलाइजेशन ने ‘ग्लोबल' होने का जो सिद्धांत दिया, उसने ग्लोबल वार्मिंग की समस्या को भी पैदा किया. क्योंकि ‘ग्लोबल' होने का आधार बाजार को बनाया गया और बाजार ने पूंजी के जिस प्रलोभन को जन्म दिया, उसने हथियारों की होड़ को पैदा किया. अगर गंभीरता से देखा जाये, तो इन दोनों का अन्योन्याश्रित संबंध है. ये दोनों आम जन के जीवन को सीधे तौर पर प्रभावित करते हैं. 

इसके बावजूद अक्सर इन दोनों मुद्दों पर बात करते हुए आम जन के हित को परिप्रेक्ष्य से काट कर रखा जाता है. ऐसा सिर्फ हमारे देश की सरकार नहीं करती, बल्कि दुनियाभर की सरकारें करती हैं. आम जन के मुद्दों को राष्ट्रवाद या सुरक्षा जैसे भावनात्मक मुद्दों में रूपांतरित कर दिया जाता है. खास तौर पर वह पक्ष, जो हथियारों का बहुत बड़ा उत्पादक, निर्यातक या बाजार है, वह खुले रूप में राष्ट्रवाद, आतंकवाद या सुरक्षा के नाम पर हथियारों की जरूरतों पर सफलतापूर्वक अपना प्रोपेगंडा कर लेता है. यही पक्ष दूसरी ओर पर्यावरण संकट और सृष्टि पर खतरे की बात को मीडिया और मंच पर भी लाता है. इस चक्र को समझने की जरूरत है अन्यथा वास्तविक प्रश्नों के दायरे से जनपक्ष का मुद्दा बाहर हो जायेगा. 

आज के समय में पर्यावरण संकट पर बात करना एक आम चलन हो गया है. खासतौर पर शहरी मध्य वर्ग के लिए यह सबसे सुविधाजनक मुद्दा है. 

चूंकि इस पक्ष पर सरकारी कार्यक्रम भी होते हैं, इसलिए सरकार से टकराने का भय भी नहीं होता है. पर्यावरण दिवस, पृथ्वी दिवस या ऐसे ही अवसरों पर प्रतीकात्मक रूप में पेड़-पौधा लगा कर यह वर्ग अपनी जिम्मेवारी का निर्वहन करना चाहता है. लेकिन, यही वर्ग अपने ही देश के मामले में राष्ट्रवाद या राष्ट्रीयता के नाम पर युद्ध जैसी विभीषिकाओं का भी समर्थक बन जाता है. यानी, यह वर्ग प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में उन्हीं शक्तियों के साथ खड़ा हो जाता है, जो हमारे समाज को संकट में डाल रहे हैं. 

हाल ही में मुझे केरल में आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय सेमिनार में भागीदारी करने का अवसर मिला था, जिसका विषय था- ‘जल और जमीन से जुड़ी संवेदना और हिंदी साहित्य'. इस विषय में ‘जंगल' नहीं था. संबंधित विषय पर कई शोध पत्र भी प्रस्तुत किये गये, लेकिन इस कार्यक्रम में जन-संघर्षों के पक्ष को जितना उभरना चाहिए था, उतना नहीं हो सका. 

बातें साहित्य की विधाओं के माध्यम से सिर्फ पर्यावरण पर ही केंद्रित रहीं. रोचक बात तो यह थी कि कार्यक्रम में प्रस्तुत शोध पत्रों में सबसे ज्यादा संदर्भ आदिवासी जीवन संघर्ष पर आधारित साहित्य से आये थे जैसे- जंगल के दावेदार, धरती आबा आदि. लेकिन, पाठ से निकल कर आज के प्रश्नों से संवाद करने में हिचक दिख रही थी. वैसे अगर हम इस विषय को ‘जल, जंगल और जमीन से जुड़ी संवेदना' कर दें, तो विषय का स्वरूप आलोचनात्मक हो जायेगा. 

हमें इस बात पर ध्यान रखने की जरूरत है कि पर्यावरण के मुद्दे को जनपक्षों से काट कर नहीं रखा जा सकता है. सत्ता तंत्र और सरकारें तो यह चाहती ही हैं कि संघर्षों की कड़ियां आपस में न जुड़ें. अगर ऐसा हुआ, तो स्वाभाविक रूप से यह सवाल खड़ा होगा कि क्या आदिवासी या किसानों के संघर्ष को कमजोर करने के लिए इस तरह के विमर्श चलाये जा रहे हैं? 

हमें इस बात से कभी समझौता नहीं करना चाहिए कि जल, जंगल और जमीन आम जन की संपदा हैं.आज बाजार की दुनिया सब चीजों को बेच चुकी है और अब वह जीवन के बुनियादी तत्वों को भी बाजार में उतार रही है. जिन चीजों पर जीवन की बुनियाद टिकी हो, उन चीजों को जीवन-संघर्ष से निरपेक्ष कर कैसे विश्लेषित किया जा सकता है? पर्यावरण का मुद्दा भी ठीक इसी तरह है. पर्यावरण पर बात करते हुए कभी भी आदिवासियों और किसानों के विस्थापन विरोधी आंदोलनों या जल, जंगल और जमीन के आंदोलनों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. आज के समय में आदिवासियों और किसानों के जन आंदोलनों का स्वरूप भले ही स्थानीय हो, लेकिन उसका वृहद वैश्विक संदर्भ है. अगर किसान अपनी जमीन बचा लेता है, तो वह स्वाभाविक रूप से वहां की पारिस्थितिकी को भी बचा लेता है. 

अगर नियमगिरि आंदोलन में बॉक्साइट खनन के विरुद्ध आदिवासी समाज की जीत हुई है, तो यह स्वाभाविक रूप से मनुष्यता के उस पक्ष की जीत है, जो दुनियाभर में पर्यावरण संकट को लेकर चिंतित है, जो युद्ध विरोधी आंदोलनों में शामिल है. क्या हम यह नहीं जानते कि बॉक्साइट का इस्तेमाल सबसे ज्यादा युद्धक सामग्रियों के निर्माण में होता है? क्या यह छुपी हुई बात है कि इसका सबसे ज्यादा इस्तेमाल हथियार-निर्माण कंपनियां करती हैं और इसका बहुत बड़ा अंतरराष्ट्रीय बाजार है?

क्या यह जंगलों और जमीन पर कब्जा करने की औपनिवेशिक साजिश नहीं है, जिसे हमारे ही देश की सरकारें संचालित कर रही हैं? इस तरह के सवालों से गुजरे बिना हम किसी स्थायी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकते.

जन-संघर्षों के वैश्विक पक्ष की व्याख्या संभव है. इस दिशा में प्रयत्न होना चाहिए. नियमगिरि आंदोलन के आधार पर ही फेलिक्स पडेल ने उपरोक्त सवालों को अपनी किताब ‘आउट ऑफ दिस अर्थ' में उजागर किया है. कुछ बरस पहले फिल्मकार श्रीप्रकाश अपनी फिल्म ‘बुद्धा वीप्स इन जादूगोड़ा' में यूरेनियम खनन की वजह से जादूगोड़ा के आदिवासी समाज पर विकिरण के दुष्प्रभावों एवं उनके जन-प्रतिरोध को दिखा चुके हैं. इसी तरह मेघनाथ और बीजू टोप्पो की फिल्म ‘आयरन इज हॉट' भी पर्यावरण के मुद्दे पर विस्थापन विरोधी आंदोलन और जन-संघर्षों के संदर्भ में अपनी बात कहती है. 

किसानों, आदिवासियों, वंचितों एवं पर्यावरण इत्यादि आंदोलनों का अलग-अलग ध्रुवीकरण करके न तो हथियारों के नि:शस्त्रीकरण का आंदोलन संभव है और न ही पर्यावरण की सुरक्षा की जा सकती है. आज साहित्य और विचार की दुनिया में पर्यावरण विमर्श की अनुगूूंज भी सुनाई देने लगी है. लेकिन, यह भी ध्यान रहे कि जन-संघर्षों से कट कर किसी भी प्रकार के विमर्श या विचार का कोई औचित्य नहीं है.