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पर्यावरण संरक्षण की मुश्किलें-- पंकज चतुर्वेदी

जिस तरह देश की आबादी बढ़ रही है, हरियाली और खेत कम हो रहे हैं, जल-स्रोतों का रीतापन बढ़ रहा है, हम हर दिन वनस्पति और जंतुओं की किसी न किसी प्रजाति को सदा के लिए खो रहे हैं, खेत और घर में जहरीले रसायनों का इस्तेमाल बढ़ रहा है, भीषण गरमी से जूझने में वातानुकूलित यंत्र और अन्य भौतिक सुखों की पूर्ति के लिए बिजली का इस्तेमाल बढ़ रहा है, उसके मद्देनजर हमें पर्यावरण को लेकर संवेदनशील बनना होगा। नहीं तो, एक दिन ऐसा आएगा जब कानूनन हमें ऐसा करने पर मजबूर किया जाएगा। पिछले सत्तर वर्षों के दौरान भारत में पानी के लिए कई बड़े संघर्ष हुए हैं। कभी दो राज्य नदी के जल बंटवारे पर भिड़ गए, तो कहीं सार्वजनिक नलों पर पानी भरने के सवाल पर उठे विवाद में हत्या तक हो गई। इन दिनों, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली के बीच नदियों के पानी के बंटवारे को लेकर घमासान मचा हुआ है। यह एक कड़वा सच है कि हमारे देश के कई इलाकों में आज भी महिलाएं पीने के पानी के जुगाड़ के लिए हर रोज औसतन चार मील पैदल चलती हैं। जलजनित रोगों से विश्व में हर साल बाईस लाख लोगों की मौत हो जाती है। इसके बावजूद देश के हर गांव-शहर में कुएं, तालाब, बावड़ी, नदी या समुद्र तक को जब जिसने चाहा है, दूषित किया है। पिछले दो महीनों के दौरान आस्था और धर्म के नाम पर देवताओं की मूर्तियों के विसर्जन के जरिए हमने पहले ही संकट में पड़े पानी को और जहरीला कर दिया। मसलन, साबरमती नदी को राज्य सरकार ने सुंदर पर्यटन स्थल बना दिया है लेकिन इस सौंदर्यीकरण के फेर में नदी का पूरा पारिस्थितिकी तंत्र ही नष्ट कर दिया गया। नदी के पाट को घटा कर एक चौथाई से भी कम कर दिया गया। उसके जलग्रहण क्षेत्र में पक्के निर्माण करा दिए गए। नदी का अपना पानी नहीं था तो नर्मदा से एक नहर लाकर उसमें पानी भर दिया गया।


अब वहां रोशनी है, चमक-दमक है, बीच में पानी भी दिखता है, लेकिन नदी के अभिन्न अंग रहे उसके जलीय-जीव, दलदली जमीन, हरियाली और अन्य जैविक क्रियाएं नहीं रहीं। सौंदर्यीकरण के नाम पर पूरे तंत्र को नष्ट करने की कोशिशें किसी एक नदी नहीं, बल्कि हर छोटे-बड़े कस्बों के पारंपरिक तालाबों के साथ भी की गर्इं। कुछ समय से उत्तर प्रदेश के इटावा के एक पुराने तालाब को सुंदर बनाने के नाम पर उसे संकरा कर रंगीन टाइल लगाने की योजना पर काम चल रहा है। हो सकता है कि उससे कुछ दिनों में शहर में रौनक आ जाए लेकिन न तो उसमें पानी इकट्ठा होगा और न ही वहां जमा पानी से जमीन की प्यास बुझेगी। यह भी तय है कि ऐसे तालाब में भी बाहर से पानी भरना होगा।ऐसा ही पूरे देश के सरोवरों के साथ हुआ। यानी तालाब के जलग्रहण और निकासी क्षेत्र में पक्के निर्माण कर उसकी चौहद्दी समेट दी गई, बीच में मंदिर की तरह कोई स्थायी आकृति बना दी गई और इसकी आड़ में आसपास की जमीन का व्यावसायिक इस्तेमाल कर लिया गया। इसके अलावा, करीब दो साल पहले, दिल्ली में विश्व सांस्कृतिक संध्या के नाम पर सारे नियम-कायदों को ताक पर रख कर यमुना के समूचे पारिस्थितिकी तंत्र को जो नुकसान पहुंचाया गया, वह भी महज राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप में उलझ कर रह गया। दोषियों को चिह्नित करने या फिर उनके खिलाफ कोई कार्रवाई करने की जरूरत नहीं समझी गई।


लोग उदाहरण देते हैं कुंभ और सिंहस्थ मेले का, कि वहां भी लाखों लोग आते हैं। लेकिन ऐसा कहने वाले लोग यह विचार नहीं करते कि सिंहस्थ, कुंभ या माघी या ऐसे ही मेले नदी के तट पर होते हैं। तट नदी के बहाव से ऊंचा होता है और वह नदियों के सतत् मार्ग बदलने की प्रक्रिया में विकसित होता है। जबकि किसी नदी का जल ग्रहण क्षेत्र, जैसा कि दिल्ली में था, एक दलदली स्थान होता है जहां नदी अपने पूरे यौवन में बहती है तो जल का विस्तार करती है। वहां भी धरती में कई लवण होते हैं। ऐसे छोटे जीवाणु होते हैं, जो न केवल जल को शुद्ध करते हैं, बल्कि मिट्टी की सेहत भी सुधारते हैं। ऐसी बेशकीमती जमीन को जब लाखों पैर और मशीनें रौंद देती हैं तो वह मृतप्राय हो जाती है और उसके बंजर हो जाने की आशंका होती है। नदी के जल कासबसे बड़ा संकट उसमें डीडीटी (डाइक्लोरो डाइफिनाइल ट्राइक्लोरोइथेन), मलाथियान जैसे रसायनों की बढ़ती मात्रा है। ये रसायन केवल पानी को जहरीला ही नहीं बनाते, बल्कि रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी नष्ट कर देते हैं। सनद रहे कि पानी में अपने परिवेश के सामान्य मल, जल-जीवों के मृत अंश और सीमा में प्रदूषण को ठीक करने के गुण होते हैं। लेकिन जब नदी में डीडीटी जैसे रसायनों की मात्रा बढ़ जाती है तो उसकी यह क्षमता भी खत्म हो जाती है।


स्थिति कितनी जटिल है, इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि पर्व-त्योहार को मनाने के तरीके के लिए भी हम अदालतों या सरकारी आदेशों पर निर्भर होते जा रहे हैं। दिवाली पर आतिशबाजी चलाने के सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की हर साल किस तरह अनदेखी की जाती है, यह किसी से छिपा नहीं है। कुछ लोग तो आदेशों की धज्जियां उड़ाने को ही अपनी सभ्यता मानते हैं। कुल मिला कर हम समाज को अपने परिवेश, पर्यावरण और परंपराओं के प्रति सही तरीके से न तो जागरूक बना पा रहे हैं और न ही प्रकृति पर हो रहे हमलों के विपरीत प्रभावों को सुनना-समझना चाहते हैं।कुछ लोग हरित पंचाट या अदालतों में जाते हैं। कुछ औद्योगिक घराने इसके परदे में अकूत कमाई करते हैं, कुछ ऐसे भी हैं जो ऐसे आदेशों की आड़ में अपनी दुकान चलाते हैं। लेकिन फिलहाल ऐसे लोग बहुत कम हैं जो धरती को नष्ट करने में अपनी भूमिका के प्रति खुद ही सचेत या संवेदनशील होते हैं। बात खेतों में पराली जलाने की हो या फिर मुहल्ले में पतझड़ के दिनों में सूखे पत्तों के ढेर जलाने का, कम कागज खर्च करने या फिर कम बिजली व्यय की, परिवहन में कम कार्बन उत्सर्जन के विकल्प, जल संरक्षण के सवाल या फिर खेती के पारंपरिक तरीकों की, हम हर जगह पहले अदालती आदेश और फिर उस पर अमल के लिए कार्यपालिका की बाट जोहते रहते हैं। जबकि अदालत कोई नया कानून नहीं बनाती। वह तो केवल पहले से उपलब्ध कानूनों की व्याख्या कर फैसला सुनाती है या व्यवस्था देती है।


देश के कई संरक्षित वन क्षेत्र, खनन स्थलों, समुद्र तटों आदि पर समय-समय पर ऐसे ही विवाद होते रहते हैं। हर पक्ष बस नियम-कानून, पुराने अदालती आदेशों आदि का हवाला देता है। कोई भी व्यक्ति सामाजिक जिम्मेदारी, पर्यावरण के प्रति अपनी समझदारी और परिवेश के प्रति संवेदनशीलता की बात नहीं करता है। हर बात में अदालतों और कानून की दुहाई देने का अर्थ यह है कि हमारे सरकारी महकमे और सामाजिक व्यवस्थाएं जीर्ण-शीर्ण होती जा रही है।
आज जरूरत इस बात की है कि प्राथमिक स्तर से ही पर्यावरण संरक्षण के केवल पाठ नहीं पढ़ाए जाएं, बल्कि उसके निदानों पर भी चर्चा हो। आतिशबाजी, पॉलीथीन या जहरीले कीटनाशकों के इस्तेमाल पर पाबंदी की जगह उसके निर्माण पर ही रोक हो। पर्यावरणीय नुकसान पहुंचाने को सियासी दांवपेच से परे रखा जाए। वरना आने वाले दो दशकों में हम विकास-शिक्षा के नाम पर आज व्यय हो रहे सरकारी बजट में कटौती कर उसका इस्तेमाल स्वास्थ्य, जल और साफ हवा के लिए संसाधनों को जुटाने पर मजबूर हो जाएंगे।