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पर्यावरणीय नैतिकता और यथार्थ-- के. सिद्धार्थ

सभ्यता और सभ्य होने का सिर्फ एक अर्थ है,अपने आसपास के पर्यावरण का आदर और आदरसूचक मूल्य से उसके प्रति सोच। सभ्यताओं का पतन तभी होता है जब आसपास के पर्यावरण के प्रति सम्मान कम हो जाता है, पर्यावरण के प्रति नजरिया व परिप्रेक्ष्य बदल जाता है। सिंधु घाटी, दजला फरात, माया- इन सभी सभ्यताओं का पतन इन्हीं कारणों का प्रतिफल था। आज का आधुनिक और सभ्य समाज पर्यावरण के प्रति नजरिये को लेकर विरोधाभासी मनोवृत्ति और द्वंद्व में उलझा हुआ प्रतीत होता है। पर्यावरण के स्वरूप, उसकी सुंदरता, उसकी विशालता, उसकी भव्यता, उसके परिवर्तन में पर्यावरणीय समस्या भी देखी जा रही है, जैसे कि पर्यावरण खुद पर्यावरणीय समस्याओं के लिए जिम्मेदार है। और अगर यह समस्या है तो क्या यह समस्या मानवता की मनोवृत्ति के साथ है, या पर्यावरण के प्रति समझ न होने के कारण? पर्यावरण में होने वाले परिवर्तन क्या वास्तव में समस्या हैं? हैं भी या नहीं?

 कुछ हद तक इसका जिम्मेवार पर्यावरण शब्द का चलता-फिरता उपयोग भी है। आज ‘पर्यावरण’ शब्द का उपयोग सामान्य अर्थ में अधिकाधिक लिया जा रहा है, जैसे सामाजिक पर्यावरण, व्यापारिक पर्यावरण, खेल पर्यावरण आदि। इसका एक परिणाम यह है कि वह अपनी शुद्धता और विशिष्टता खोता जा रहा है। वास्तव में इस शब्द का पर्याय प्रकृति और जीवन का पर्यावरण के प्रति समायोजन है, जो कहीं अधिक विशेष, सात्त्विक और अर्थपूर्ण है। लेकिन विडंबना यह है कि जो हमारा जीवन है उसे आज पर्यावरणीय समस्या के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है और यह हमारी मानसिक और अवधारणात्मक विकृति को संप्रेषित करता है। दरअसल, हमारी समायोजन न करने की चाह पर्यावरणीय समस्या नहीं बल्कि प्रकृति के साथ दुर्व्यवहार है। यदि तथाकथित समस्याओं की गहराई पर विचार किया जाए तो स्वाभाविक सवाल यह उठता है कि क्या पर्यावरण और प्रकृति से जुड़े हुए सारे परिवर्तन ‘समस्या’ हैं? क्या ज्वालामुखी की क्रिया हमेशा विध्वंसक ही होती है? क्या बाढ़ वास्तव में एक आपदा है? क्या प्रकृति को मनुष्य के मनोनुकूल व्यवहार करना चाहिए? क्या जलवायु की विविधता जलवायविक परिवर्तन है? 
 
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