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पहचान का संकट 99 प्रतिशत समाप्त

मानव की पहचान स्थापित करना बड़ा विचार है। इससे न सिर्फ व्यक्तिगत व सामाजिक स्तर पर कई समस्याएं सुलझीं बल्कि लंबे अरसे से समस्या बनी सभ्यतागत पहेलियां भी सुलझीं। साधारण शारीरिक चिह्नों से शुरू हुआ यह सफर फिंगरप्रिंट, आंखों की पुतलियों से होता हुआ डीएनए और डिजिटल पहचान तक पहुंचा है।

पिछले कुछ दशकों में कंप्यूटर प्रोसेसिंग में तरक्की की बदौलत हमारी पहचान स्थापित करने के लिए ऑटोमेटेड बायोमेट्रिक सिस्टम आए हैं। हालांकि, इन स्वचालित पद्धतियों में से कई का मूल विचार सैकड़ों बल्कि यह कहना उचित होगा कि हजारों साल पहले आया था। सबसे पुराना उदाहरण चेहरे से पहचान का है। ज्ञात-अज्ञात व्यक्तियों को पहचानने के लिए मानव सभ्यता की शुरुआत से ही चेहरे का सहारा लिया जाता रहा है। आबादी बढ़ने और यात्रा के साधनों के साथ आवाजाही बढ़ने से पहचान का सरल-सा काम चुनौतीपूर्ण होता गया।

चेहरे के बाद फिंगरप्रिंट का उपयोग होने लगा। 31 हजार साल पुरानी प्रागैतिहासिक गुफा में बनी पेंटिंग के नीचे हाथ के कई छापे मिले हैं, जो चित्रकार के हस्ताक्षर थे। यानी तब भी यह मालूम था कि उंगलियों के निशान व्यक्ति की अलग पहचान स्थापित करते हैं। ईसा से 500 वर्ष पूर्व के बिज़नेस के सौदों संबंधी मिट्‌टी की पटि्टयों पर उंगलियों के निशान मिले हैं, जो व्यक्ति विशेष को उस सौदे से जोड़ने के लिए लगाए जाते थे। चीन के शुरुआती व्यापारी भी इस पद्धति का उपयोग करते थे। 18वी सदी के मध्य तक अौद्योगिक क्रांति और अधिक उत्पादक खेती के कारण लोगोें की औपचारिक पहचान स्थापित करना अनिवार्य हो गया। फिर अदालतों ने यह देखा कि पहली बार अपराध करने वालों में ही बार-बार अपराध की प्रवृत्ति रहती है, इसलिए पहचान के चिह्नों के साथ ऐसे व्यक्तियों का रिकॉर्ड रखे जाने लगा। फ्रांस के बर्टीलियान ने पहली बार शरीर के अंगों की नाप लेकर रिकॉर्ड रखना शुरू किया।

1892 में सर फ्रांसिस गैल्टन ने फिंगरप्रिंट का विस्तृत अध्ययन किया और हाथ दस उंगलियों के आधार पर वर्गीकरण की अलग पद्धति विकसित की। गैल्टन के कई तरीके आज भी इस्तेमाल होते हैं। सर एडवर्ड ने भी भारत में पद्धति लागू करने के पहले गैल्टन से विचार-विमर्श किया था। हालांकि, 1903 में अमेरिका के लेवेनवर्थ में दो जुड़वां भाइयों का ऐसा मामला सामने आया कि जिसमें दोनों के बायोमेट्रिक नाप बिल्कुल एक जैसे थे। इसके साथ बर्टिलियान का सिस्टम ध्वस्त हो गया। इसके बाद 1936 में आंखोें की पुतलियों के पेटर्न का इस्तेमाल व्यक्ति की पहचान स्थापित करने का प्रस्ताव नेत्ररोग विज्ञानी फ्रैंक बर्च ने रखा और जल्द ही फिंगरप्रिंट के साथ आंखों की स्केनिंग भी पहचान स्थापित करने का जरिया बन गई। वुड्रो डब्ल्यू ब्लेडसो ने अमेरिकी सरकार के साथ कॉन्ट्रेक्ट के तहत पहली सेमी-ऑटोमेटिक पहचान प्रणाली विकसित की। यह सिस्टम आंखों, कान, नाक और मुंह की स्थितियों और उनकी तुलनात्मक दूरी का हिसाब रखकर पहचान स्थापित करती थी। 1960 में स्वीडन के प्रोफेसर गुनार फांट ने आवाज के आधार पर पहचान का सिस्टम बनाया। उन्होंने विभिन्न व्यक्तियों के एक्स-रे निकालकर यह पता लगाया कि अलग-अलग व्यक्ति विशिष्ट फोनेटिक ध्वनियां निकालते हैं, जिनसे उनकी पहचान स्थापित हो सकती है। 1970 में डॉ. गोल्डस्टीन हार्मोन और लेस्क ने बालों के रंग और ओठों की मोटाई जैसे 21 नए विशिष्ट फीचर लेकर चेहरे के आधार पर पहचान को नया मुकाम दिया।

पहली फिंगरप्रिंट प्रणाली भारत में

-पहली पुख्ता फिंगरप्रिंट प्रणाली ब्रिटिश भारत में बंगाल के इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पोलिस एडवर्ड हेनरी के लिए अजीज उल हक ने विकसित की थी। फिंगरप्रिंट के वर्गीकरण में आज भी इसके कुछ सिद्धांतों का उपयोग होता है। 1857 में भारतीय सिविल सेवा के अधिकारी सर विलियम हर्शेल ने श्रमिकों संबंधी अनुबंध के पिछले हिस्से पर हैंडप्रिंट का जिक्र किया है ताकि वेतन के दिन उस श्रमिक की पहचान हो सके।