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पाठशालाओं में छुआछूत की पैठ

अंजलि सिन्हा। अमेठी के पिछौरा गांव के जूनियर हाईस्कूल ने मिड डे मील पर उठी और पूरे सूबे में चर्चा का सबब बनी समस्या का समाधान निकाल लिया है। तय किया गया है कि दलित रसोइए की भी नियुक्ति होगी, लेकिन वह रसोई के बाहर ही काम करेगी और अंदर वाला काम यानी चूल्हे पर रसोई पकाने का काम सवर्ण रसोइया करेगी।

आजाद, संप्रभुता संपन्न कहे जाने वाले दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में जिसके संविधान में जाति जेंडरभेद की मनाही है, वहा यह रास्ता शांतिपूर्वक ढंग से निकाल लिया गया है। प्राइमरी या जूनियर स्कूल की कच्ची उम्र के बच्चों का दबाव इतना तगड़ा था या सवर्णो की दबंगई या कथित सहअस्तित्व की भावना, जिसके कारण बच्चों की पढ़ाई का अब और नुकसान न हो, यह कहते हुए समाधान पर सहमति बना ली गई।

मालूम हो कि स्कूलों से छुआछूत की भावना खत्म हो, इसके लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने रसोइए के पद पर नियुक्ति के लिए अप्रैल 2010 को शासनादेश निकाला था और दलितों के लिए आरक्षण की व्यवस्था दी थी और जगह-जगह इसके विरोध की खबरें आई थीं। कानपुर के संदलपुर ब्लॉक के प्राथमिक विद्यालय की खबर राष्ट्रीय सुर्खिया बनी थी, जिसमें विद्यालय के सवर्ण बच्चों ने दलित महिला के हाथ से बनाया मिड डे मील खाने से इंकार कर दिया था। मामले की जांच में उजागर हुआ था कि इस प्राथमिक विद्यालय में 135 बच्चे पंजीकृत हैं। इनमें 31 बच्चे दलित वर्ग के, 19 पिछड़े और 85 सामान्य वर्ग के हैं।

बताया गया कि पिछले साल तक तो दो सवर्ण महिलाएं मीना और सुमन खाना बनाती थी, लेकिन इस साल ग्रामपंचायत ने शाति नामक दलित महिला को इसके लिए चुना। ग्राम पंचायत का यह कदम सराहनीय माना जाना चाहिए था कि उसने एक बंधन इसके माध्यम से तोड़वाने का प्रयास किया ताकि बच्चों के जेहन से कम से कम ऊंच-नीच की भावना खत्म होगी, लेकिन स्पष्ट है कि लोगों के मन में वर्ण मानसिकता ने जितनी गहरी पकड़ जमाई है, वह अपना असर दिखा गई।

तुतलाती जुबां में बच्चों ने फलां के हाथ का बना खाना खाने से इंकार कर दिया था। जाहिर था कि उन्हें पढ़ाकर, रटवाकर वहां भेजा गया था। अंतत: बच्चों द्वारा मिड डे मील नहीं खाने से खड़े हुए वितंडा को समाप्त करने के लिए प्रदेश सरकार ने 22 जुलाई को यह व्यवस्था समाप्त कर दी। इस कदम से आखिर किसकी जीत हुई? संविधान द्वारा प्रदत्त मूल्यों की हार हुई और सदियों से कायम जातिवादी मानसिकता जीत गई।

ध्यान रहे कि यह अकेले उत्तर प्रदेश का ही मामला नहीं है। इधर देश के कई अन्य हिस्सों के प्राइमरी स्कूलों से इसी किस्म की खबरें सुनने को मिल रही हैं। प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जातिभेद की भावना से ग्रस्त नागरिक समाज के ऐसे व्यवहार और नौकरशाही में भी उसकी दिखने वाली छाप को देखते हुए क्या किया जाना चाहिए? अगर हम राजधानी दिल्ली के ही बाहरी इलाकों के सरकारी स्कूलों में अध्ययनरत गरीब जातियों, समुदायों के बच्चों से बात करके भी अंदाजा लगा सकते हैं तो अन्य स्थानों पर किस तरह की स्थिति होगी। मालूम हो कि इन स्कूलों में वर्ण समुदाय से आने वाले शिक्षक-शिक्षिकाओं का निम्न तबके से आने वाले छात्रों के साथ सम्मानजनक व्यवहार कतई नहीं होता है और ऐसे बच्चों के साथ कार्यरत संस्थाओं का अनुभव यही होता है कि उन्हें बार बार अपनी जात याद दिलाई जाती है। दिल्ली के ही समयपुर बादली इलाके में गरीब बच्चों के लिए सांध्यकालीन कक्षा चलाने का भी अनुभव इसी किस्म का रहा है, जहां यह देखने में आता था कि ऐसे कमजोर बच्चों के साथ अध्यापक बुरी तरह पेश आते थे और उन्हें बिना कारण पीट देते थे।

मालूम हो कि जाति आधारित यह विभाजन केवल दलित और सवर्णो के बीच नहीं है, बल्कि एक ही जाति के भीतर की उपजातियों के बीच की खाई भी गहरी है। एक बार उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले के एक गाव में महिलाओं के साथ एक कार्यशाला चल रही थी। यों तो बात जेंडर बराबरी की हो रही थी, औरत के हक की बात हो रही थी और समाज में होने वाले अन्यायों के खिलाफ सहमति बनती-सी दिख रही थी। कार्यशाला के तीसरे दिन जब आयोजकों ने महिलाओं को रात में खाने पर एक ही पात में बिठा दिया तो कुछ महिलाएं अलग होकर लगभग झगड़ने के मूड में आ गई। पता चला की उधर जातियों में चेरो और खैरवार जो दोनों कुर्मी या इसी तरह की किसी जाति की मानी जाती हैं, वे एक पांत में एक-दूसरे का छुआ हुआ नहीं खाती है। हम दो लोग जो बतौर रिसोर्स पर्सन दिल्ली से गए थे, उन्हें अपनी तीन दिन की चर्चा बेकार ही लगी। हालाकि तीन दिन में क्या कुछ बदलता है, लेकिन उम्मीद इसलिए बंध गई थी। क्योंकि ये सभी प्रतिभागी किसी संस्था की कार्यकर्ता थी और वे गांव में समाज सुधार, स्त्री उत्पीड़न आदि के खिलाफ काम करने के लिए नियुक्त की गई थीं और उन्हें तनख्वाह भी मिलती थी।

दरअसल, हर विद्यालय में यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि खाना बनाने या पानी पिलाने आदि जैसे काम जो विशिष्ट समुदायों के लिए प्रतिबंधित रहे हैं, वह उन्हें ही सौंपे जाएं। जुबानी तौर पर लोग यही कहते हैं कि वे भेदभाव नहीं करते, लेकिन पता तो तभी चलता है, जब बनाया गया खाचा टूटता है। कम से कम नई पीढ़ी को इस जातिवादी मानसिकता से मुक्ति मिल सकती है। मामला अब सिर्फ समझाने का नहीं है, बल्कि सरकारी/गैर-सरकारी दोनों स्तरों पर नियम बनाकर उन्हें दृढ़ता से लागू कराने का भी है। यद्यपि जागरूकता अभियानों की अपनी भूमिका होती है, लेकिन भेदभाव बरतने वालों को सिर्फ जानकारी नहीं चाहिए कि ऐसा व्यवहार गलत है, बल्कि उन्हें यह भी पता चलना चाहिए कि ऐसा करना अपराध है, जिसके लिए उन्हें दंडित भी किया जा सकता है। सोचने की जरूरत है कि अगर चंद वर्चस्वशाली लोगों के दबाव में बराबरी ला सकने वाले कानूनों को खारिज किया जाता रहेगा तो क्या भारत में लोकतंत्र का भविष्य सुरक्षित रह सकेगा।