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पानी का निजीकरण यानी विनाश- कुमार प्रशांत

हमारे प्रधानमंत्री ने रहीम को कब और कितना पढ़ा, यह तो पता नहीं, लेकिन पिछले दिनों उन्होंने जल सप्ताह के आयोजन में पानी को लेकर जो बातें कहीं, उससे एक बात तो साफ हो गई कि उन्हें पानी की चाहे जितनी फिक्र हो, पानी की पहचान नहीं है। प्रकृति ने जो कुछ अक्षय और सर्वसुलभ बनाया था, उसमें सबसे पहले हवा और पानी का नाम आता है।

कभी किसी ने सोचा भी नहीं था कि यह कभी खत्म हो सकता है या इसकी राशनिंग करनी पड़ सकती है। प्रधानमंत्री के मुताबिक, पानी के अपव्यय का कारण यह है कि इसकी कीमत बहुत कम है। उनका कहना था कि इसीलिए कानून में परिवर्तन कर इसके सर्वाधिकार को खत्म करना होगा और इसका संचय व वितरण निजी हाथों में देना होगा। प्रधानमंत्री और उनके विशेषज्ञ सलाहकार ऐसी ही राय हर संकट के बारे में देते हैं।

कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना से जब हमें लुभाया जा रहा था, तब कहा जाता था कि आपको कुछ भी करने-सोचने की जरूरत नहीं है। आप तो बस हमें मौका दो और चैन की तानकर सोते रहो। जो करना है, वह सब हम करेंगे। हमने इन पर भरोसा कर लिया! कोई विनोबा भावे नाम का आदमी आजादी के बाद से ही पांव पैदल कश्मीर से कन्याकुमारी तक घूमता रहा, और एक ही बात कहता रहा कि इनकी बात बहुत खतरनाक है, क्योंकि ये हमें मनुष्य समाज से निकालकर भेड़ों के झुंड में बदलना चाहते हैं और खुद गड़ेरिया बनकर हमें हांकना चाहते हैं।

जिस राज्य ने सारी जिम्मेदारियां अपने सिर ओढ़ ली थीं, अब वह एक-एक कर उन सारी जिम्मेदारियों से छुटकारा चाहता है। ऐसे में प्रधानमंत्री जब पानी की चिंता करते हैं, तो यह पूछना ही पड़ता है कि क्या किसी चीज का दाम बढ़ा देने से उसका दुरुपयोग रुक जाता है। अगर ऐसा होता, तो सत्ता का दुरुपयोग सबसे पहले रुक जाना चाहिए था, क्योंकि इस जैसी महंगी व्यवस्था तो दूसरी हम बना नहीं सके हैं। किसी ने कहा है कि अगर तीसरा विश्व युद्ध हुआ, तो वह पानी के सवाल पर होगा। पानी से आदमी की जान जुड़ी है।

पानी प्यास बुझाने के लिए चाहिए, मनुष्य मात्र की प्यास नहीं, पूरी प्रकृति की प्यास! पानी की ऐसी सार्वत्रिक जरूरत का पता है प्रकृति को, इसलिए उसने पानी के अनंत स्रोत भी बनाए-धरती के नीचे उसका भंडार ही नहीं बनाया, ऊपर से भी पानी बरसने का पुख्ता इंतजाम किया; और यह भी ध्यान रखा कि धरती के ऊपर बरसता पानी इतना हो कि जल-थल एक कर दे और धरती के नीचे भी चला जाए।

तो इतना सारा पानी गया कहां? प्रधानमंत्री जी, कमी पानी की नहीं है, कमी उन नजरों की है, जिनका पानी नहीं उतरा है! आप दूसरा कुछ मत कीजिए, वे सारे प्रतिमान बदल दीजिए, जिन्हें आप विकास कहते हैं, तो देखिए, पानी आप-से-आप पैदा होने लगेगा। शहर हो या गांव, सभी जगहों पर तालाबों की व्यापक व्यवस्था बनानी होगी। आपके विकास की परिभाषा में सबसे अग्रणी मुंबई भी पानी के लिए तालाबों पर निर्भर है! पानी के संकट को हल करने के दो रास्ते हैं- वर्षा का पानी संचित किया जाए और ऐसे किया जाए कि धरती के नीचे का पानी भी पुनर्जीवित होता रहे। ऊपर और नीचे के पानी का यह संतुलन बिठा लेंगे आप, तो नदियों को जोड़ने की विनाशकारी योजना की जरूरत नहीं पड़ेगी।

पानी का निजीकरण भयंकर सामाजिक विद्रोह की कुंजी है। बोलीविया के कोचाबांबा का जल-युद्ध कोई न भूले! 90 के दशक से व्यापारियों ने पानी के निजीकरण का कुचक्र चलाया और समाज के हाथ से पानी छीनने की शुरुआत हुई। वह इस हद तक पहुंचा कि पानी बोतलों में बंद हो गया है। दूध के व्यापार में जितना भयंकर भ्रष्टाचार चल रहा है, पानी में उससे कम नहीं है। लोग सबसे अशुद्ध और गंदा पानी सस्ती बोतलों में पी रहे हैं। बोतलों में जो पानी भरा जा रहा है, उसकी गुणवत्ता कौन देख रहा है? पानी का निजीकरण नहीं, समाजीकरण करने की जरूरत है, और यह तभी संभव है, जब आप समाज को आजादी भी दें और उन पर जिम्मेदारियां छोड़ें भी।