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पाबंदियों के दौर में- तवलीन सिंह

पिछले हफ्ते जिस दिन अफगानिस्तान में आइएसआइएस की पहाड़ी गुफाओं पर हमला किया अमेरिका ने, मैं दिल्ली के एक जापानी रेस्तरां में दोपहर का खाना खाने गई थी। दो किस्म की सूशी मंगवाई और एक गिलास नाशिक में बनी सफेद वाइन का। वाइन आई, ठंडा घूंट लिया और सोचने लगी डोनल्ड ट्रंप के नए हमले के बारे में। सोच में डूब रही थी कि देखा वेटर मेरे आसपास मंडरा रहा है। जब मैंने पूछा कि ऐसा क्यों कर रहे हो, तो उसने घबरा कर कहा कि शायद सूशी की एक ही प्लेट आपके लिए काफी होगी। याद आया कि इन दिनों रामविलास पासवान कड़ी निगरानी रख रहे हैं हमारे खाने की प्लेटों पर। इससे याद आया कि वाइन पीना भी मना है, अगर हाइवे से पांच सौ मीटर के दरम्यान पी जा रही है।


इतने में मेरा एक पुराना दोस्त आया और मुझे एक पंजाबी झप्पी में जकड़ लिया। मैंने हंस कर उसे याद दिलाया कि एंटी-रोमियो दस्ते का एक बंदा इंडिया टुडे के दिल्ली स्टुडियो में आया हुआ है। यह वही बंदा है, जिसने मेरठ में लोगों के घरों में घुस कर लव जिहाद रोकने की मुहिम चलाई है। हंसते-हंसते उदास हुई मैं उन पुराने दिनों को याद करके, जब खाने-पीने पर पाबंदियां नहीं थीं और लव जिहाद के मुजाहिद नहीं दिखते थे। याद यह भी आया कि किस तरह मेरे पाकिस्तानी दोस्त लाहौर से दिल्ली आकर कहते थे कि इन दोनों शहरों में सबसे बड़ा फर्क यही है कि दिल्ली में लोगों को खाने-पीने, घूमने-फिरने की आजादी है, जो लाहौर में नहीं रही इस्लामीकरण की वजह से। आज आते मेरे वही दोस्त, तो हमारे हाल पर हंसते या शायद रोते।


सच तो यह है कि इन पाबंदियों को देख कर हम सबको रोना चाहिए, क्योंकि इनके होते हुए विदेशी पर्यटक अपने इस भारत महान से दूर भागने लगेंगे। कितना अजीब है कि यह सब हो रहा है एक ऐसे प्रधानमंत्री के कार्यकाल में, जिन्होंने बहुत बार कहा है कि पर्यटन एक ऐसा आर्थिक औजार है, जो भारत की गरीबी दूर कर सकता है। ठीक कहते हैं मोदी, क्योंकि उन्होंने देखा होगा कि किस तरह थाइलैंड जैसे गरीब दक्षिण-पूर्वी देशों में संपन्नता आई है पिछले पच्चीस वर्षों में सिर्फ विदेशी पर्यटकों के पैसों से। 2015 के आंकड़े बताते हैं कि थाइलैंड की राजधानी बैंकाक में करीब दो करोड़ विदेशी पर्यटक आए थे। उस वर्ष पूरे भारत में हमने कोई सात लाख विदेशी पर्यटकों का स्वागत किया।


भारत के पास विदेशी पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए वे तमाम चीजें हैं, जो थाइलैंड में हैं, बल्कि थाइलैंड से ज्यादा। हमारी प्राचीन इमारतों और मंदिरों का मुकाबला करना मुश्किल है, समंदर किनारे हमारे खूबसूरत शहर हैं, योग केंद्र हैं, समुद्र तट हैं और अच्छे होटल भी। उत्तर में हैं खूबसूरत पहाड़ी शहर, वादियां और ऊंचे पर्वत, लेकिन विदेशी पर्यटक कम आते हैं, क्योंकि उन सुविधाओं की कमी है, जिनके बिना विदेशी पर्यटक आना नहीं पसंद करते। हमारी सड़कें बेकार हैं, हवाई और रेल सेवाएं भी इतनी अच्छी नहीं हैं और ऊपर से बिजली-पानी और इंटरनेट का अभाव।


इन सुविधाओं में निवेश होता तो भला अपने लोगों का भी होता, लेकिन निवेश सत्तर वर्षों में बहुत कम इसलिए हुआ, क्योंकि हमारे समाजवादी सोच के राजनेताओं का ध्यान रोटी, कपड़ा, मकान में ही उलझा रहता था। मोदी पहले प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने पर्यटन की शक्ति को पहचाना, लेकिन शायद उन्होंने अभी तक गौर नहीं किया है कि उनके अपने साथी ही सारा खेल खराब करने पर तुले हैं। एक तरफ हैं खाद्यमंत्री, जो तय करना चाहते हैं कि होटलों और रेस्तरां में किसको कितना भोजन परोसा जाना चाहिए। दाने-दाने पर नाम खुद लिखवाने की कोशिश कर रहे हैं। उधर उत्तर प्रदेश से नई हवा चल रही है लव जिहाद की और योगी आदित्यनाथ के एंटी-रोमियो दस्ते दिल्ली तक पहुंचने लगे हैं। यही काफी है विदेशी पर्यटकों को दूर भगाने के लिए, लेकिन ऊपर से आया है सर्वोच्च न्यायालय की तरफ से शराबबंदी का फैसला। नीतियां बनाना न्यायाधीशों का काम नहीं है, लेकिन प्रधानमंत्री ने अभी तक उनको रोकने की कोई कोशिश नहीं की है।


समझ में नहीं आता है कि मोदी, जो दिन में कई बार ट्वीट करके अपने विचार व्यक्त करते हैं, इन चीजों पर चुप क्यों हैं। क्या उनको दिख नहीं रहा कि नुकसान उनकी व्यक्तिगत छवि को हो रहा है? मोदी जब प्रधानमंत्री बने थे तो उन्होंने दुनिया में अपनी छवि एक आधुनिक, प्रगतिशील राजनेता की बनाई थी। विदेशों में जब घूमते तो बातें किया करते थे विकास और परिवर्तन की, सो ज्यादातर दुनिया के राजनेताओं ने तय कर लिया था कि भारत की गाड़ी अब तेजी से दौड़ेगी एक विकसित देश बनने की तरफ। देशवासियों को भी ऐसा ही लग रहा था, जब तक खाने-पीने पर पाबंदियों का सिलसिला महाराष्ट्र की भाजपा सरकार ने 2015 में नहीं शुरू किया था। बीफ पर बैन जब महाराष्ट्र में लगा तो इसकी नकल राजस्थान और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्रियों ने की। देखते-देखते बीफ का मुद्दा देश का सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दा बन गया, विकास और परिवर्तन को पीछे छोड़ कर।


इसको देख कर गोरक्षक घूमने लगे सड़कों पर और गोरक्षा के बहाने मुसलमानों को मारने लगे। पिछले हफ्ते अलवर के उस हादसे में पहलू खान और उनके बेटों के साथ अर्जुन नाम का एक हिंदू भी था, जिसको दो थप्पड़ मार कर छोड़ दिया गोरक्षकों ने। मारा सिर्फ मुसलमानों को। जब दिल्ली-जयपुर हाइवे पर ऐसी हिंसा होने लगती है तो स्पष्ट दिखने लगता है कि भारत की सोच आधुनिक के बजाय पुरानी और दकियानूसी हो गई है। उसका रुख भी बदल गया है।