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पिछड़ा कहलाने की होड़ क्यों?--- अनुपम त्रिवेदी

पिछले कुछ समय से देश के विभिन्न भागों में आरक्षण की मांग लगातार उठ रही है. परंपरागत रूप से समृद्ध समझे जानेवाले वर्ग भी आज पिछड़ा कहलाने की होड़ में हैं. हरियाणा के समृद्ध जाट, दुनिया के हर हिस्से में फैले गुजरात के मेहनतकश पटेल, कभी जमींदार रहे आंध्र प्रदेश के कप्पू , गौरवशाली अतीत वाले मराठा और कभी राजसी ठाठ-बाट के मालिक रहे उत्तर प्रदेश और राजस्थान के राजपूत- आज सभी आरक्षण की मांग कर रहे हैं.

कल के आरक्षण-विरोधी आज आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण मांग रहे हैं. जो अनुसूचित जाति में हैं वे अनुसूचित जनजाति में आना चाहते हैं. दलित महादलित का लाभ चाहते हैं. ओबीसी अपना स्तर घटाना और आरक्षण बढ़ाना चाहते हैं. आज दुनिया में हिंदुस्तान अकेला ऐसा देश है, जहां पिछड़ा कहलाने की होड़ लग गयी है. आजादी के बाद हमारे नीति-निर्माताओं ने जब आरक्षण की व्यवस्था की थी, तो इसके पीछे उनकी सोच थी कि सदियों से पिछड़े और भेदभाव का शिकार रहे वर्गों को समाज में बराबरी का मौका मिले. लेकिन, शायद उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी कि उनकी बनायी व्यवस्था पूरे देश को ही पिछड़ा बनने को प्रेरित करेगी.

आखिर ऐसा क्या हो गया है कि हर कोई अपने आप को पिछड़ा साबित करना चाहता है? दरअसल, इसके कई कारण हैं, पर असली कारण है घटती नौकरियां और बढ़ती जनसंख्या.

लगभग 60 प्रतिशत युवाओं का यह देश काम की तलाश में भटक रहा है. 1991 से 2013 के कालखंड में देश में लगभग 30 करोड़ लोग रोजगार-योग्य आयु-वर्ग में आये, पर उनमें से केवल 14 करोड़ को ही नौकरी मिली. हर साल औसतन सवा करोड़ लोग रोजगार की लाइन में लग रहे हैं, जबकि देश में नौकरियां घट रही हैं. श्रमिक-ब्यूरो के सर्वे के अनुसार 2011 में जहां 9 लाख और 2013 में 4.19 लाख नौकरियां सृजित हुईं, वहीं 2015 में यह आंकड़ा घट कर मात्र 1.35 लाख रह गया.

सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार 2001-2011 के दशक में श्रम-योग्य व्यक्तियों की संख्या 2.23 प्रतिशत की दर से बढ़ी, जबकि रोजगार का सृजन मात्र 1.4 प्रतिशत की दर से ही हुआ. 

अगर देश की सकल घरेलू आय और रोजगार सृजन में शीघ्र वृद्धि नहीं हुई, तो आनेवाले समय में स्थिति भयावह होनेवाली है. साल 2020 तक देश की औसत आयु 29 वर्ष होगी और 64 प्रतिशत लोग श्रम-योग्य आयु-वर्ग में होंगे. अगर सही मात्रा में और उपयुक्त रोजगार मिले, तो यह संख्या हमारे सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को दो प्रतिशत तक बढ़ा सकती है. यदि उपयुक्त रोजगार नहीं मिला, तो हमारे इस ‘डेमोग्राफिक डिविडेंड' के ‘डेमोग्राफिक डिजास्टर' बनने का पूरा खतरा है.

जहां एक ओर नौकरियां नहीं हैं, वहीं कृषि-आय निरंतर घट रही है. आज देश में एक कृषक परिवार की औसत आय मात्र 6,400 रुपये मासिक है, जो एक सरकारी चपरासी की तनख्वाह के आधे से भी कम है. कृषि-योग्य भूमि भी कम हो रही है. कल तक जो जमींदार थे और अपनी बड़ी जमीनों की उपज से समृद्धि पाते थे, आज या तो वे बिना जमीन के हैं अथवा थोड़ी-बहुत जमीन के साथ खेती का बोझ ढो रहे हैं.

दरअसल, कृषि में अब न पैसा रहा है और न जमीन का रुतबा. अब रुतबा और पैसा अगर कहीं है, तो सिर्फ सरकारी नौकरी में है, पर वह भी लगातार घट रही है. 1996-97 में जहां 1.95 करोड़ सरकारी नौकरियां थीं, वह आज घट कर 1.70 करोड़ रह गयी है. वहीं इस काल-खंड में जनसंख्या तेजी से बढ़ी है. ऐसे में नौकरी के लिए मारामारी तो होनी ही है. यही कारण है कि हर कोई आरक्षण मांग रहा है.

हालांकि, प्राइवेट सेक्टर में नौकरियां तो हैं, पर पैसा और सुविधाएं सरकारी नौकरी की तुलना में बहुत कम हैं. दूसरे, प्राइवेट सेक्टर काबिलियत मांगता है, जो उसे मिलती नहीं है. इसके लिए दोषी है हमारी शिक्षा-व्यवस्था, जिसकी खामियों की वजह से हमारे अधिकतर युवा नौकरी करने लायक ही नहीं हैं. 

अपनी गुणवत्ता खो चुके हमारे विश्वविद्यालय हों या खेतों को सपाट कर बनाये गये ‘ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस', सभी अधकचरे युवाओं की ऐसी फसल तैयार कर रहे हैं, जो किसी काम की नहीं है. एक सर्वेक्षण के अनुसार, देश के 93 प्रतिशत एमबीए और 70 प्रतिशत इंजीनियर नौकरी के लिए अक्षम हैं. एक सामान्य स्नातक की तो पूछिए ही मत. दरअसल, हम सिर्फ डिग्रियां इकट्ठी कर रहे हैं और सोचते हैं कि बाकी काम आरक्षण करेगा.

सरकार बड़े पैमाने पर ‘स्किल इंडिया मिशन' चला रही है, जो एक अत्यंत सामायिक और सार्थक कदम है. पर रोजगार चाहनेवालों की संख्या इतनी बड़ी है कि यह अपर्याप्त है. हमें अपनी शिक्षा का स्तर भी बढ़ाना होगा, नहीं तो 2000 लोगों में 2 काबिल लोग भी नहीं मिलेंगे.

स्थिति गंभीर है, फिर भी इसको बदला जा सकता है. शिक्षा की गुणवत्ता में बिना किसी देरी के सुधार होना चाहिए. पैसे के पीछे भागते प्राइवेट स्कूलों को जवाब देने के लिए सरकारी स्कूलों का स्तर ऊंचा उठाना होगा. इसका एक सरल उपाय भी है और वह है कि सभी सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों के लिए उनके बच्चों को सरकारी स्कूल में भेजना अनिवार्य कर दिया जाये. इन स्कूलों के हालात अपने आप ही सुधर जायेंगे.

रोजगार बढ़ाने के लिए हमें लघु उद्योगों की सुध लेनी होगी, जो आज भी देश के 40 प्रतिशत लोगों को रोजगार देते हैं. ये छोटे और मझोले उद्योग सरकारी उपेक्षा के शिकार हैं. बैंक इन्हें आसानी से ऋण नहीं देते और सरकारी महकमा इनके पीछे पड़ा रहता है. सब इनको ऐसी बकरी के रूप में देखते हैं, जिसे कभी भी दुहा जा सकता है. अगर इन लघु उद्योगों को सही प्रश्रय मिले, तो न केवल ये नौकरियों की लाइन लगा देंगे, बल्कि प्रधानमंत्री के ‘मेक इन इंडिया' कार्यक्रम को भी नयी दिशा देंगे.

इन सब से परे बड़ा दायित्व हमारे समाज का है. आवश्यकता है कि हम बच्चों में प्रारंभ से ही स्वाभिमान का बीज डालें और उन्हें नौकरी के काबिल नहीं, बल्कि नौकरी देने के काबिल बनायें. जब ऐसा होगा, तब वह आरक्षण की बैसाखी नहीं मांगेगे, बल्कि दूसरों को आगे बढ़ कर सहारा देंगे.