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पितृसत्ता की दीवारों में पड़ रही है दरार- सरला माहेश्वरी

हाल में भारत के सुप्रीम कोर्ट का एक महत्वपूर्ण फैसला आया कि औरत को अपनी संतान के परिचय के साथ उसके पिता का नाम लिखना जरूरी नहीं है. यानी भारत में संतान के नाम के साथ उसके पिता का नाम लिखने की अनिवार्यता खत्म हो रही है. जो स्त्री विवाह के बिना किसी पुरुष के साथ रहती है, उसे भी कानूनन वे सारे अधिकार हासिल हैं, जो एक पत्नी के अधिकार होते हैं. स्त्री-पुरुष के सह-जीवन में से विवाह नामक बंधन की अनिवार्यता कानूनन खत्म हो रही है.

उधर, अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने हाल में समलैंगिक विवाह को वैधता दी है. कई पश्चिमी देशों में इसे कानूनी स्वीकृति मिल चुकी है. इन फैसलों ने वह जमीन तैयार की है, जिस पर विवाह लिंग के संदर्भ से मुक्त हो जाता है. विवाह का लिंग से मतलब नहीं है, यह एक युगल के साथ रह कर निश्चित सामाजिक दायित्वों के निर्वाह की वचनबद्धता है. हाल के वर्षो में हमारे देश तथा दुनिया में स्त्री-पुरुष संबंधों के मामले में कानून के स्तर पर लिये जा रहे ऐसे तमाम फैसले बहुत क्रांतिकारी हैं.

इस संदर्भ में हमें प्रो रोमिला थापर की प्रसिद्ध पुस्तक ‘शकुंतला : टेक्स्ट्स, रीडिंग्स, हिस्ट्रीज' की याद आती है. प्रो थापर ने इस पुस्तक में पिछले ढाई हजार वर्षो में शकुंतला के नये-नये आख्यानों पर बदलते हुए समय की छाप का अपना एक आख्यान रचा है. वैदिक साहित्य में जिस शकुंतला का सिर्फ नामोल्लेख मिलता है, महाभारत में वह चक्रवर्ती राजा दुष्यंत से गंधर्व विवाह करके अपने पुत्र भरत के अधिकार के लिए लड़नेवाली वनबाला की कहानी की नायिका बन कर सामने आती है.

लेकिन, वही नायिका कालिदास के ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्' में एक लज्जावती और शीलवान चरित्र है. ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्' राजदरबार में मनोरंजन के लिए लिखा गया श्रेष्ठ साहित्यिक उपादानों से भरपूर एक नाटक था.

इसलिए एक नारी शकुंतला की सामाजिक स्थिति कभी कोई चर्चा का विषय नहीं बन पायी. मुगलों के काल में ब्रजभाषा में उसके रूपांतरण में शकुंतला घर-दुआर की एक औरत नजर आती है, तो उसके उर्दू रूप पर लैला-मजनू की कहानी की पारसी दास्तान शैली छायी रहती है.

प्रो थापर ने अपनी पुस्तक में पूरे विस्तार और प्रामाणिकता के साथ शकुंतला के आख्यानों की कहानी कही है. इन सभी कथा-रूपों पर किस प्रकार सूक्ष्म रूप से उनके युग की छाप रही है, इसका भी उन्होंने जिक्र किया है. 

इसी के आधार पर उन्होंने इतिहास और साहित्य के बीच के सूक्ष्म रिश्तों की बात भी की है. लेकिन, सच यही है कि हजारों वर्षो में बार-बार रची जानेवाली शकुंतला की इस कहानी में पितृसत्ता में किसी भी प्रकार की दरार का प्रो थापर के पूरे आख्यान से कोई संकेत नहीं मिल पाता है. 

इसकी तुलना में, हाल के सुप्रीम कोर्ट के फैसलों और दुनिया के पैमाने पर बदल रहे स्त्री-पुरुष संबंधों के परिदृश्य से साफ लगता है कि जो चीजें सैकड़ों वर्षो से अटल बनी रही हैं, हमारे सामाजिक जीवन को जकड़े रही हैं, वे अब आगे और नहीं चल पा रही हैं. आज सब कुछ तेजी से उलट-पलट रहा है. पितृसत्ता की दीवारों में दरार पैदा करनेवाले इस भूचाल से मेरा मन खुशी से झूम रहा है.