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'पीर के पर्वत का पिघलाव है यह'- किसान आंदोलन पर योगेन्द्र यादव

पीर के पर्वत का पिघलाव है यह
योगेंद्र यादव राष्ट्रीय अध्यक्ष, स्वराज इंडिया

मध्य प्रदेश के मंदसौर में अपना विरोध व्यक्त करते किसानों पर पुलिस की गोलीबारी किसान आंदोलन के इतिहास में एक नये चरण का आगाज कर सकती है. सरकार के इनकार के बावजूद, अब यह साफ है कि 6 जून को चलीं पुलिस की इन गोलियों ने कम से कम पांच किसानों की हत्या कर दी. वहां की सरकार अब चाहे जो भी कोशिश कर ले, इतना स्पष्ट है कि इस आंदोलन का अंत अब तुरंत नहीं होने वाला है.


जैसा इस तरह के सारे आंदोलनों के साथ हुआ करता है, इसकी शुरुआत महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के एक गांव में हुई. वहां किसानों ने यह फैसला किया था कि पहली जून से वे खाद्यान्न, सब्जियां आदि शहरों को भेजना बंद कर देंगे. जल्दी ही उस गांव के किसानों का फैसला पूरे जिले के किसानों का बन गया और इसके पहले कि कोई इसके आयाम समझ पाता, उनका यह निश्चय महाराष्ट्र के कई जिलों को अपनी जद में ले चुका था. किसान इस निर्णय पर डटे रहे और पहली तथा दूसरी जून को अधिकतर कृषि उत्पाद विपणन सहयोग समितियों तक किसानों का कोई भी उत्पाद नहीं पहुंचा. इस विरोध को हलके में ले रही सरकार के सामने इसके बाद समझौता वार्ता के सिवाय दूसरा चारा न था.


अब यह आंदोलन मध्य प्रदेश तक पहुंच चुका था. महाराष्ट्र की ही तरह, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने भी अपने पक्षधर किसान संगठनों के साथ एक सौदे की घोषणा कर दी, जिसे अधिकतर किसान संगठनों ने यह कह खारिज कर दिया कि यह समझौता करनेवाले बिक चुके. महाराष्ट्र में राज्यव्यापी बंद के बाद, दूसरे राज्यों के किसान संगठनों ने भी मजबूती महसूस की. फिर पुलिस द्वारा गोली चलाने की खबर के बाद तो सभी किसान संगठनों का सक्रिय हो जाना निश्चित है.

जिस घटनाक्रम की परिणति मंदसौर के इस गोलीकांड में हुई, वह असाधारण है. इन आंदोलनों की स्वतःस्फूर्त प्रकृति तथा इसका तेज फैलाव हमें औपनिवेशिक वक्त के किसान विद्रोह की याद दिलाता है. महाराष्ट्र सरकार का आरोप यह है कि किसानों की यह हड़ताल उसके राजनीतिक विरोधियों, मुख्यतः शिवसेना तथा एनसीपी की करतूत है, किंतु तथ्य इसकी तसदीक नहीं करते. विपक्ष ने इसे प्रच्छन्न समर्थन अवश्य दिया, पर किसानों को एक करनेवाले संगठन और उनके नेतागण किसी भी मुख्य सियासी दल से संबद्ध नहीं हैं. शहरी निकायों के लिए संपन्न हालिया चुनावों में अपनी पराजय के सदमे से कांग्रेस और एनसीपी अभी उबर ही कहां सकी है. इसकी संभावना वैसे भी नहीं है कि किसान काफी अंश में श्रीहीन हो चुकी इन पार्टियों की सुनेंगे. ऐसे में प्रतीत तो यही हो रहा कि पूरे देश में किसानों का एक नया नेतृत्व उभर रहा है.

यह तथ्य इस आंदोलन को और भी असाधारण बनाता है कि यह कोई ऐसे वक्त नहीं हो रहा जब किसी प्राकृतिक आपदा अथवा फसलों के नुकसान ने किसानों पर चोट की हो. 2014-15 तथा 2015-16 के लगातार दो सुखाड़ों के बाद पिछले कृषि मौसम में महाराष्ट्र ने सामान्य बारिश और खूब सारी पैदावार पायी. दूसरी ओर, मध्य प्रदेश कई वर्षों से उच्चतम कृषि उत्पादकता के लिए पुरस्कार पाता रहा है. फिर किसानों के गुस्से का यह अचानक विस्फोट हुआ कैसे? इसकी दो संभावित वजहें हैं. पहली, ढेरों पैदावार से उनकी कीमतें किसानों के लिए नीचे आ गिरीं. दूसरी, उत्तर प्रदेश की नवनिर्वाचित सरकार द्वारा किसानों के फसल ऋणों की माफी ने अन्य राज्यों के किसानों के लिए भी उनकी अपूरी मांगों की याद ताजा कर दी.

कीमतों का धराशायी होना दालों के मामले में सबसे स्पष्ट दिखता है. देश में दालों की कमी के मद्देनजर केंद्रीय सरकार ने तुर दाल के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 4,500 रुपये प्रति क्विंटल से बढ़ाकर 5,000 रु. प्रति क्विंटल से भी अधिक कर दिया और इसे दालों के उत्पादन को बढ़ावा देनेवाले प्रमुख कदम के रूप में पेश किया. कृतज्ञ किसानों ने वैसा ही किया और दालों की खेती का रकबा तथा उसका उत्पादन बढ़ चला. पर सरकार अपने वादे के एक हिस्से को निभाने में विफल रही. राज्यों की एजेंसियां इस निर्धारित मूल्य पर अधिकतर उत्पाद न खरीद सकीं और किसान अपनी दाल 3,000 रु. प्रति क्विंटल तक में बेचने को बाध्य हो गये.

इसी तरह, मध्य प्रदेश के सोयाबीन उत्पादकों तथा तेलंगाना के मिर्च उत्पादकों पर भी कहर टूटा. ऐसी रिपोर्टें आयीं कि देश के कई हिस्सों में टमाटर तथा आलू के उत्पादकों ने अपने उत्पाद मंडी की हास्यास्पद कीमतों पर बेचने की बजाय उन्हें फेंक देना कबूल किया. इस तरह किसानों ने न सिर्फ तब तबाही झेली, जब पैदावार हुई ही नहीं, बल्कि उन्हें तब भी तबाह होना पड़ा, जब निसर्ग ने उन्हें बारिश तथा पैदावार की भरपूर मात्रा से नवाजा. यही दोहरी हताशा वर्तमान आंदोलनों को गति दे रही है.

महाराष्ट्र तथा मध्य प्रदेश के किसान आंदोलनों की असली अहमियत यही है. यह कोई स्थानीय, मौसमी, किसी खास फसल के साथ पैदा हुआ याकि आपदा आधारित दर्द नहीं है. यह बेचैनी तो सीधे-सीधे भारतीय कृषि के संकट से जुड़ी है. इस कृषि संकट के तीन रूप हैं: पहला, यह देश की कृषि का पारिस्थितिक संकट है. हरित क्रांति से संबद्ध आधुनिक कृषि रीतियां टिकाऊ विकास का आधार नहीं प्रदान करतीं. संसाधन-केंद्रित, उर्वरकों और कीटनाशकों से बोझिल तथा पानी की अतृप्त प्यास से पीड़ित यह कृषि अब अपने अंत पर पहुंच चुकी है. दूसरा, भारतीय कृषि का एक आर्थिक संकट भी है. इसकी उत्पादकता देश की जरूरतों, जमीन तथा संसाधनों की उपलब्धता के समरूप नहीं रही है. और उससे ही लगा एक अन्य संकट किसानों के अस्तित्व का संकट है. कृषि अब लाभदायक नहीं, बल्कि एक नुकसानदेह पेशे में तब्दील हो चुकी है. कृषि जिंसों की कीमतें उसके इनपुटों की लागत तथा किसानों के उपभोग व्यय की बनिस्बत कहीं पीछे छूट चुकी हैं. किसान तो अब एक अच्छे वर्ष में किसी तरह जी लेते हैं, जबकि विपरीत वर्षों में खुद को ऋणों के फंदे में फंसा पाते हैं. यही वह संकट है, जो किसानों की आत्महत्याओं के लिए प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार है.


वर्तमान किसान आंदोलन के बारे में उल्लेखनीय यह है कि इसने इस बुनियादी संकट को ही संबोधित करने की कोशिश की है. किसानों की मांगों में कोई तात्कालिक और स्थानीय राहत के तत्व शामिल नहीं हैं. इसकी बजाय, इस बार किसानों ने फसल मूल्यों के निर्धारण का आधारभूत मुद्दा ही उठा दिया है. उन्होंने सत्तासीन दल को उसके इस चुनावी वादे की याद दिलायी है कि एमएसपी इस तरह तय किये जाएंगे कि वे किसानों को उनकी लागतों पर पचास प्रतिशत का मुनाफा दे सकें. उन्होंने स्वामीनाथन आयोग की विभिन्न अनुशंसाएं लागू किये जाने की मांग की है. इसके अतिरिक्त, उन्होंने सहज ही सभी किसानों के लिए ऋण माफी की मांग भी रखी है. ये सभी मांगें किसान आंदोलनों की वे दीर्घकालीन मांगें हैं, जिन्हें संबोधित करने का साहस कोई भी सियासी दल नहीं दिखा सका है.

फड़णवीस सरकार एक आंशिक एवं सशर्त ऋण माफी की रजामंदी जाहिर कर चुकी है. पर किसान अब इतने से ही संतुष्ट होनेवाले नहीं. मुख्यमंत्री ने आश्वासन दिया कि पैदावार की खरीद एमएसपी के अनुसार ही होगी. किंतु इससे वह बुनियादी मुद्दा नहीं बदलता जो पहले तो इसकी ही परख करना चाहता है कि एमएसपी तय करने की प्रक्रिया में कौन से सुधार किये जायें. वैसे ही, शिवराज सिंह सरकार द्वारा हड़बड़ी में घोषित किये गये मरहमी प्रस्तावों का भी यही हश्र होनेवाला है. इन भाजपा मुख्यमंत्रियों को केंद्र से शायद ही कोई सहायता मिल सके. इस पर विवाद संभव है, पर एनडीए की यह सरकार स्वतंत्र भारत के इतिहास में किसानों के लिए सबसे अधिक अमैत्रीपूर्ण सरकार है.

अभी यह कहना कठिन है कि पूरे देश के लिए मंदसौर के निहितार्थ क्या होंगे. हमें यह नहीं पता कि वर्तमान विरोध कितना लंबा खिंचेगा. पर हमें इतना तो मालूम ही है कि किसानों की वास्तविक मांगें शायद ही पूरी हो सकें. महाराष्ट्र तथा मध्य प्रदेश के किसानों ने राह दिखा दी है. अब बाकी देश के किसानों को यह झंडा थाम इसे तार्किक परिणति तक पहुंचाना है. हम किसान राजनीति के एक नये चरण की दहलीज पर हैं.
(अनुवाद: विजय नंदन)