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पुलिस का सबसे मुश्किल इम्तिहान- विभूति नारायण राय

वर्ष 1977 की शुरुआत। देश में सनसनी और उत्तेजना की बयार बह रही थी। किसी बडे़ अंधड़ की तरह आपातकाल देश को झिझोड़ता-झकझोरता गुजर चुका था और हम सभी विनाश की दृश्य और अदृश्य स्मृतियों को बुहारने में लगे थे। इसी समय देश का वह चुनाव हुआ, जिसने भारतीय समाज और राजनीति का परिदृश्य लंबे समय के लिए बदल दिया। यह वर्ष मेरे अनुभव संसार में भी बहुत कुछ जोड़ने वाला था। पहली बार चुनावों से मेरा साबका एक पुलिस अधिकारी की हैसियत से हो रहा था। मैं था तो अभी प्रशिक्षु ही, पर पुलिस अधिकारियों की कमी के कारण मुझे भी एक भौगोलिक क्षेत्र के पुलिस प्रबंध का प्रभार सौंप दिया गया था। मुझे पहले अनुभव ने ही सिखा दिया कि राजनीतिज्ञों, खासतौर से सत्ता पक्ष के लिए पुलिस की उपयोगिता किसी वफादार कार्यकर्ता जैसी ही होती है। विपक्षी अगर इस स्थिति का विरोध करते हैं, तो मुख्यत: इसलिए कि यह उनके खिलाफ जाती है। कारण बहुत से हो सकते हैं, पर एक बात स्पष्ट हो गई कि देश में पुलिस को पेशेवर और कानून का पालन करने वाली संस्था बनाने में किसी की दिलचस्पी नहीं है। उनकी भी नहीं, जो इस चुनाव से कुछ ही महीने पहले आपातकाल में निरंकुश पुलिस की ज्यादतियां झेल चुके थे। शायद इसी का नतीजा था कि जनता पार्टी की सरकार ने पुलिस सुधारों के लिए कमीशन बैठाया जरूर, पर उसकी सिफारिशों की सुध नहीं ली।

अब 17वीं लोकसभा के लिए चुनाव आधे से ज्यादा खत्म हो चुके हैं, जबकि बहुत कुछ बातें पिछले चुनावों जैसी ही हैं और गंभीर मुद्दे विमर्श से गायब हैं। भारतीय राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले महसूस कर रहे हैं कि इस बार आरोपों-प्रत्यारोपों का स्तर कुछ ज्यादा ही व्यक्तिगत और गिरा हुआ है। यह भी कि इस बार चुनाव आयोग असहाय होने की हद तक निष्क्रिय नजर आया। मेरी चिंता इन सबसे अलग बेशर्मी के साथ राजनीतिज्ञों द्वारा चुनावी हितों के लिए पुलिस के इस्तेमाल का प्रयास और बिना किसी उल्लेखनीय प्रतिरोध के पुलिस द्वारा उनकी धुन पर कदमताल करने को लेकर है।

ऐसा नहीं है कि इस चुनाव में पहली बार पुलिस का दुरुपयोग हो रहा है। शुरू के एक-दो चुनावों को छोड़ दें, तो लगभग हर बार पुलिस पर सत्ताधारी पार्टी के लिए काम करने के आरोप लगते रहे हैं। सत्तर-अस्सी के दशक तक तो स्थिति कुछ ऐसी हो गई थी कि भारतीय चुनाव किसी प्रहसन से लगने लगे थे। उन्हीं दिनों बूथ कैप्र्चंरग या बूथ प्रबंधन जैसे शब्द हमारे विमर्श के अंग बने। नब्बे के दशक में स्थिति काफी बदली और इसका श्रेय सिर्फ एक व्यक्ति टी एन शेषन को जाता है। नौकरशाह के रूप में निहायत ही औसत और जी हजूरी वाला करियर बिताने वाले शेषन सांविधानिक पद मिलते ही पूरी तरह से बदल गए और अपने नेताओं की करतूतों से शर्मसार देश ने भी उन्हें जमकर समर्थन दिया। खुलेआम हथियारबंद गिरोहों द्वारा वोटों की लूट रुकी, चौबीस घंटे के कानफोड़ू शोर-शराबे से नागरिकों को मुक्ति मिली, सार्वजनिक स्थल बदरंग होने से बचे, और भी बहुत कुछ हुआ, जिनसे चुनावों की शुचिता एक हद तक कायम हुई। मतदान के दौरान पोलिंग स्टेशन से राज्य पुलिस की गैर-मौजूदगी ने उसके जरिए सत्ताधारियों द्वारा चुनाव को प्रभावित करने की मंशा पर काफी कुछ अंकुश लगा दिया, पर यह सब व्यक्ति केंद्रित ही रहा। सुधार संस्थाबद्ध नहीं हुए। चुनाव आयोग बहुसदस्यीय कर दिया गया और आयुक्तों की नियुक्ति सरकार या यूं कहें कि सत्ताधारी पार्टी के पास ही बनी रही। बाद में लिंगदोह को छोड़कर शायद ही किसी चुनाव आयुक्त ने शेषन के काम को उसी भावना से आगे बढ़ाया।

इन चुनावों में पुलिस को लेकर एक खतरनाक प्रवृत्ति और दिख रही है। पश्चिम बंगाल, आंध्र और तेलंगाना में राज्य पुलिस व केंद्रीय पुलिस बलों के बीच कई बार तनाव के क्षण आए और ऐसा लगा कि वे आपस में ही भिड़ जाएंगे। कुछ ही दिनों पहले मध्य प्रदेश में आयकर छापों या कोलकाता के पुलिस कमिश्नर के निवास पर सीबीआई अधिकारियों की उपस्थिति के दौरान ऐसी स्थिति उत्पन्न हो चुकी है। ये घटनाएं संस्थाओं के क्षरण की ओर इशारा करती हैं। पहली बार नागरिकों द्वारा खींचा गया ऐसा वीडियो वायरल हुआ है, जिसमें कुछ फौजी जवान बूथ पर एक खास राजनीतिक दल के लिए अपील करते दिखे। अगर यह फर्जी नहीं है, तो किसी गंभीर परिणाम की तरफ इशारा कर रहा है।

एक औसत पुलिसकर्मी के लिए चुनाव सबसे मुश्किल इम्तिहान हैं। प्रचार के दौरान उसे प्रधानमंत्री समेत तमाम विशिष्ट महानुभावों की सुरक्षा करनी होती है। यह वह समय होता है, जब हर नेता अपने मतदाताओं से सीधा संपर्क करना चाहता है। उसके समर्थक भी उसके और अपने बीच की दूरी मिटाना चाहते हैं। इनके बीच पुलिस को न सिर्फ उसे सुरक्षित रखना होता है, बल्कि अपने समर्थकों से निकट शारीरिक संपर्क कायम करने की उसकी इच्छा भी भरसक पूरी करनी पड़ती है। राजीव गांधी की हत्या इसी द्वैध की उपज थी। प्रधानमंत्री और दूसरे महत्वपूर्ण राजनेताओं की सौ से अधिक चुनावी सभाओं के पुलिस प्रबंध से जुड़ा होने के कारण मैं पाठकों से उस चैन की सांस का जिक्र कर सकता हूं, जो एक पुलिस अधिकारी वीआईपी के सकुशल विदा होने पर लेता है। फिर चुनावी सभा सिर्फ श्रोताओं के विसर्जन से खत्म नहीं होती। दुर्भाग्य से हमारे बहुत से वक्ता आजादी के सत्तर साल बाद भी धार्मिक और जातिगत भावनाओं को भड़काने से बाज नहीं आते और वे तो भाषण खत्म कर फुर्र हो जाते हैं, लेकिन उसके बाद कोई हिंसक प्रतिक्रिया न हो, यह देखना भी पुलिस का काम है।

पूरे तंत्र में बुनियादी परिवर्तन न होने तक मुझे नहीं लगता कि हालात बहुत बदलेंगे। राजनीतिज्ञ येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतना चाहेंगे और पुलिस का दुरुपयोग करेंगे। पुलिस अधिकारियों का एक तबका अपने व्यक्तिगत स्वार्थवश हाकिमे-वक्त को खुश करने के लिए किसी हद तक गिरने को तैयार रहेगा और रही-सही कसर एक कमजोर चुनाव आयोग पूरी कर देगा। जरूरी है कि देश और लोकतंत्र के अस्तित्व के लिए जरूरी इस मुद्दे पर सभी स्टेक होल्डर मिल बैठें और क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर उठकर बुनियादी परिवर्तनों की सोचें।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)