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पुलिस की छवि बदलने की राह- अजय सिंह

देश का खुफिया विभाग हर साल एक सम्मलेन का आयोजन करता है. इसमें देशभर के पुलिस महानिदेशक और केंद्रीय पुलिस संगठनों के मुखिया शामिल होते हैं. लेकिन हर साल यह एक सालाना रस्म अदायगी के तौर पर होता है. प्रधानमंत्री और गृह मंत्री रटी-रटाई सी भाषा में अपने भाषण को पूरा करते दिखते हैं. लेकिन दस दिन पहले संपन्न हुआ यह सम्मलेन अपनी तय लकीर से हट कर था.

इस बार यह बदलाव प्रधानमंत्री के भाषण से नहीं जुड़ा था. उन्होंने तो हर बार की तरह देश की खराब होती सुरक्षा व्यवस्था का ही हवाला दिया. सोशल मीडिया के गलत इस्तेमाल से आने वाली बड़ी दिक्कतों के प्रति आगाह कराया. इस बार अमूनन दिखाई देने वाले आवेग से भरपूर बयान से हट कर विमर्श की एक नयी जमीन तैयार हुई. तय हुआ कि बेकाबू भीड़ से निपटने के लिए पुलिस को हथियार नहीं, कैमरे का प्रयोग करना चाहिए.

बिहार के पुलिस महानिदेशक अभयानंद ने जब इस नये फलसफे को सम्मलेन में रखा, तो पुलिस महकमे के आला अफसरों का एक वर्ग अचंभित था. सत्ता बंदूककी नली से निकलती है- माओवाद की इस धारणा के करीब पहुंच चुके पुलिस के इस वर्ग की एक बनी-बनायी सोच पर चोट पहुंच रही थी.

अभयानंद बहुत मजबूती से अपना तर्क रखते हुए कह रहे थे कि पुलिस को सत्ता पर काबिज राजनीतिक दलों के लठैत की अपनी छवि को तोड़ना होगा. उन्हें कानून के दायरे में अपने लिए कुछ नये मानक रचने होंगे. पुलिस के आला अधिकारियों के लिए ऐसे सम्मेलन में यह निश्चित तौर पर एक चौंकाने वाला विचार था. हालांकि कुछ अधिकारियों ने संवेदनशीलता से इस पर प्रतिक्रिया भी दी.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि इसी साल जून में रणवीर सेना के मुखिया ब्रम्हेश्वर मुखिया की हत्या के बाद उनके समर्थकों ने पटना में जम कर उत्पात मचाया और बिहार पुलिस के मुखिया अभयानंद का इन उत्पाती समर्थकों को लेकर रवैया नरम रहा. पटना में पुलिस की यह निष्क्रियता राज्य और खासतौर से पुलिस के अपनी जिम्मेवारी से भागने की शक्ल में दर्ज हो गयी. अभयानंद ने देश के आला अफसरों के सामने रखे इस प्रस्ताव में न सिर्फ पुलिस पर लगे निष्क्रियता के आरोपों के खिलाफ दलील पेश की, बल्कि उन्होंने बेहद मजबूती से यह तर्क रखा कि उनका फैसला एक विकसित समाज में पेशेवर पुलिस के लिए तय मानकों के ज्यादा करीब थे.

गौरतलब है कि अभयानंद के तरीकों को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का पूर्ण समर्थन था. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का मानना था कि पुलिस ने पटना में उपद्रवियों के खिलाफ बलप्रयोग की कोशिश की होती तो बिहार अराजकता के दौर में जा सकता था.
लेकिन भारत में बंदूक के रुआब में रहने वाली पुलिस के लिए यह नुस्खा पुलिस के परंपरागत स्वधर्म त्याग की तरह है. एक पल के लिए राजनीतिक आंदोलनकारियों के प्रति पुलिस के तौर-तरीकों पर निगाह डालिए. तमिलनाडु के कुडनकुलम में परमाणु ऊर्जा संयंत्र का विरोध कर रहे आंदोलनकारियों से लेकर मध्यप्रदेश में जल सत्याग्रह कर रहे लोगों पर पुलिस के बल प्रयोग की तसवीरें सबके सामने हैं.

इतना ही नहीं, देश की राजधानी में रामलीला मैदान पर बाबा रामदेव के समर्थकों पर हुआ लाठीचार्ज इस बात का सबूत है कि भीड़ से निपटने के लिए पुलिस कितने निर्मम तरीके से पेश आती है.
अभयानंद के विचार को पुलिस की बनी-बनायी सहज सोच से चुनौती भी मिली. सुना जाता है कि सीआरपीएफ के महानिदेशक ने काटाक्ष करते हुए कहा कि यही प्रक्रिया क्या माओवाद से प्रभावित इलाके में लागू की जा सकती है, जहां पर सीआरपीएफ के जवान तैनात हैं. इस पर अभयानंद का जवाब था- ये दो अलग-अलग परिदृश्य हैं. इस मुद्दे ने इस सम्मलेन में बहस को इतना दिलचस्प बना दिया कि पुलिस का रिसर्च एंड डेवलपमेंट ब्यूरो अभयानंद के इस प्रस्ताव पर एक रिसर्च प्रोजेक्ट के लिए तैयार हो गया.

दरअसल, यह पहला मौका है जब किसी राज्य पुलिस के मुखिया ने ही पुलिस की भूमिका पर सवाल खड़ा किया है. और वह भी उस मंच पर, जहां पुलिस के आला अधिकारी मौजूद थे. अभयानंद के प्रस्ताव ने पुलिस की उस छवि को तोड़ने की कोशिश की है, जिसमें पुलिस को खुद में कानून कहा जाता है. गुजरात में अलग-अलग मामलों में ट्रायल से गुजर रहे दर्जनभर आइपीएस अधिकारियों के आईने में अभयानंद का यह नुस्खा बहुत कारगर हो सकता है. फिर इस बिंदु पर गुजरात अकेला नहीं है, देश में ऐसे बहुत मामले हैं.

कुल मिलाकर अभयानंद उस बड़े सवाल पर हाथ रखना चाह रहे हैं, जहां आम नागरिकों के आंदोलनों और विरोधों का पुलिस बेहद बर्बर तरीके से दमन करती है. नोएडा का किसान आंदोलन इसका उदाहरण है. यहां किसान राज्य सरकार द्वारा ली गयी अपनी जमीन के ज्यादा मुआवजे की मांग कर रहे थे. पुलिस ने भट्टा-पारसोल में अंधाधुंध गोलियां चलायीं, लाठीचार्ज किया, महिलाओं से बदसलूकी की. यह वारदात देश की राजधानी से महज 20 किलोमीटर के फासले पर हो रही थी, लेकिन कुछ ही दिन बाद यह चुनावों के शोर में खो गयी और आम जिंदगी पहले की तरह चलने लगी.

कुछ साल पीछे लौटें, तो 1987 के मेरठ दंगों में पुलिस के इसी बर्बर चेहरे को पढ़ सकते हैं. एक कमांडेंट की अगुवाई में पीएसी के जवानों ने 50 के करीब मुसलिम युवकों को मार दिया. इस जघन्य हत्याकांड का मकसद था- एक समुदाय विशेष को सबक सिखाना. पुलिस को अपनी इस शर्मनाक कार्रवाई के लिए कोई पछतावा नहीं था. राजनेताओं की शह पर शुरू हुए इन दंगों को रोकने के नाम पर वह अपनी कारगुजारी को सही ठहरा रही था. आज 25 साल बाद भी हाशिमपुरा और मलियाना के दंगों के जख्म हरे हैं. मामला आज भी दिल्ली की अदालत में चल रहा है.

पुलिस बर्बरता की महज ये इक्का-दुक्का घटनाएं नहीं हैं. उत्तर प्रदेश में एन्काउंटर के रिकॉर्ड पर एक सरसरी निगाह साफ कर देती है कि पुलिस भी राज्य के गुंडों की भूमिका ही निभा रही है. यही हाल जम्मू-कश्मीर और उत्तर पूर्व का भी है. यही वजह है कि ज्यादातर मुख्यमंत्री गृह मंत्रलय अपने पास रखना चाहते हैं, ताकि पुलिस पर उनकी पकड़ बनी रहे. बिहार के पुलिस महानिदेशक अभयानंद का यह प्रस्ताव साफ तौर पर पुलिस को उसकी भूमिका के बारे में नये सिरे से सोचने के लिए बाध्य करता है. यह भी कि अपनी जिम्मेवारी का निर्वाह करते हुए पुलिस को यह पहलू जेहन में रखना होगा कि अपराधियों या राजनेताओं की उकसाई भीड़ पर काबू पाने के लिए उसे कानून के तय दायरों और आचारनीति के तहत कहीं ज्यादा जिम्मेवारी से अपने काम को अंजाम देना है.