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पुलिस के अच्छे काम की प्रशंसा भी हो-- क्षमा शर्मा

हाल ही में संत कबीर नगर में फलक नाम की एक साढ़े तीन साल की बच्ची पूछते-पूछते पुलिस थाने पहुंची। उसने रास्ते में एक महिला से पूछा कि पुलिस का घर कहां है। शाम को जब यह बच्ची थाने पहुंची तो पुलिस वाले भी हैरान रह गए। उसने पुलिस से शिकायत की कि वह चलकर उसकी अम्मी को डांटें क्योंकि वह भाई को ज्यादा प्यार करती है, उसे नहीं। उसे स्कूल भी नहीं भेजती और पुआल पर सुलाती है। पुलिस अधिकारी कुछ अन्य लोगों के साथ जब उसके घर पहुंचे तो माता-पिता ने कहा कि वह वाकई इस बात से नाराज है कि भाई की ज्यादा देखभाल क्यों की जाती है। पुलिस वाले माता-पिता को समझाकर लौट गए।


कुछ दिन बाद जब पुलिस वाले फिर से बच्ची का हालचाल लेने पहुंचे तो बच्ची ने फिर शिकायत की। उसने कहा कि देख लीजिए कि भाई को स्वेटर पहनाया है, मुझे नहीं। तब पुलिस अधिकारी ने उसे स्वेटर खरीद कर दिया। अपने प्रति होते भेदभाव को छोटी बच्ची ने किस शिद्दत से महसूस किया और इससे निपटने के लिए पुलिस की सहायता के बारे में सोचा, यह सोचकर हैरानी होती है। अपने प्रति होते भेदभाव को खत्म करने के लिए वह पुलिस की मदद ले सकती है और पुलिस वाले उसकी मदद जरूर करेंगे, यह भावना कितनी महत्वपूर्ण है।


पुलिस बच्ची की सहायता कर सकती है और उसे किसी और के पास न जाकर पुलिस के पास जाना चाहिए, आखिर इतनी छोटी बच्ची में ऐसी सोच और हिम्मत कैसे आई। क्योंकि पुलिस के पास जाने से बड़े-बड़े तक डरते हैं। माता-पिता बच्चियों के साथ भेदभाव करते हैं , यह बात जैसे एक बार फिर से प्रमाणित हुई। जो पुलिस वाले इस बच्ची की मदद के लिए आए, वे तो जीवन भर के लिए बच्ची के मन में जगह बना गए।


कुछ साल पहले एक सात-आठ साल का बच्चा पुलिस थाने पहुंचा था। वहां उसने पुलिस वालों से कहा था कि वे चलकर उसके पिता को डांटें क्योंकि वह उसकी बात नहीं मानते। मां के साथ मारपीट करते हैं। जब पुलिस वाले उसके घर पहुंचे तो बच्चे को डर भी लगा कि कहीं वास्तव में वे उसके पिता को मारें नहीं। पुलिस वालों ने पिता को समझाया और बच्चे को भरोसा दिया कि वह जब चाहे उनसे मिल सकता है। इस बच्चे के मन में भी पुलिस वालों के प्रति कितने अच्छे ख्याल आये होंगे।


मुम्बई की रेलवे पुलिस आफिसर रेखा मिश्रा को मशहूर पत्रकार शेखर गुप्ता ने इंटरव्यू किया था। रेखा ने बताया था कि वह अब तक 434 घर से भागे हुए बच्चों को अपने माता-पिता से मिलवा चुकी हैं। उनका कहना था कि कभी बच्चे डांट के डर से, कभी इम्तिहान में फेल होने के कारण तो कभी बहुत मामूली बातों पर घर वालों से नाराज होकर घर से भाग जाते हैं। एक बच्चा तो सिर्फ इस बात से नाराज होकर घर से भाग गया था कि उसका एडमिशन पिता ने उस स्कूल में नहीं कराया था जहां उसके दोस्त का हुआ था।

घर से भागे बच्चों में लड़के-लड़कियां दोनों होते हैं। हर रोज रेखा को स्टेशन पर ऐसे सात-आठ बच्चे मिलते हैं। उनसे पता पूछकर, ठिकाना ढूंढ़कर वह घर वालों को सूचित करती हैं। इस दौरान बच्चों का पूरा ध्यान रखना पड़ता है। उन्हें समझाना-बुझाना पड़ता है। बहुत से बच्चे लौटने के बाद भी उसके सम्पर्क में रहते हैं। माता-पिता जब अपने बच्चों से मिलते हैं तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता। जब रेखा से पूछा गया कि वह कैसे पता लगाती है कि अमुक बच्चा घर से भागा हुआ है। तब उन्होंने कहा कि वह ऐसे इतने बच्चों से मिल चुकी हैं कि उन्हें देखते ही पता चल जाता है कि बच्चा घर से भागा हुआ है। डर उनके चेहरे पर साफ झलकता है।


कई थानों में गरीब और बेसहारा बच्चों के लिए पुस्तकालय खोले गए हैं। उन्हें पढ़ाने की व्यवस्था भी की जाती है। लावारिस बच्चों के लिए भी अलग से काम किया जाता है। कोशिश की जाती है कि वे बच्चे पढ़-लिखकर कामधंधे में लग सकें और अपराधियों के चंगुल से बच सकें। पूर्व पुलिस अधिकारी आमोद कंठ की संस्था प्रयास भी ऐसे बच्चों की मदद करती है।


अपने देश में आमतौर पर पुलिस को हर वक्त आलोचना और लोगों की नाराजगी का शिकार होना पड़ता है। पुलिस अच्छे काम भी करती है, इसकी सूचना अकसर नहीं दी जाती। पुलिस की इमेज अकसर ही बहुत अमानवीय और अत्याचारी एजेंसी के रूप में दिखाई जाती है। जबकि कई लोग कहते हैं कि अगर पुलिस का डर न हो तो अपराध सैकड़ों गुणा बढ़ जाएं। पुलिस वालों को इनसान तक नहीं माना जाता।


किसी त्योहार पर जब सब अपने परिवार के साथ खुशियां मना रहे होते हैं तब भी पुलिस वाले काम में लगे होते हैं। जब मई-जून की धूप में घर से बाहर निकलने में भी डर लगता है तब वे धूप में खड़े अपनी ड्यूटी निभा रहे होते हैं। सर्दी के दिनों में भी ऐसे दृश्य आम हैं। पुलिस वालों को लम्बी छुट्टियां तो दूर, साप्ताहिक अवकाश भी मुश्किल से मिलता है।


हाल ही में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने कमलनाथ ने पुलिस वालों के लिए साप्ताहिक अवकाश की घोषणा की है। यह एक अच्छा कदम है क्योंकि अपने यहां पुलिस वालों की संख्या बहुत कम है और काम बहुत ज्यादा। इसलिए उनसे उम्मीद की जाती है कि वे चौबीस घंटे और साल के 365 दिन बस काम में ही लगे रहें। इस कारण वे अकसर तनाव, अवसाद और गम्भीर रोगों के शिकार होते हैं। ऐसी ही बहुत-सी बातें हैं, जो उन्हें अमानवीय होने के लिए प्रेरित करती हैं।


जरूरत तो यह है कि जब पुलिस कोई अच्छा काम करे तो इस एजेंसी को उसके काम की भरपूर तारीफ मिले। जिससे कि दूसरे पुलिस वाले भी इस तरह के कामों को करने के लिए प्रेरित हो सकें। बच्ची फलक पुलिस के पास पहुंच गई। क्या पता कितने मुसीबतजदा बच्चे पुलिस की मदद के लिए राह देख रहे होंगे और पुलिस उनकी मददगार बनेगी।

लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।