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पुलिस सुधार का नजरिया -विकास नारायण राय

हर वर्ष पुलिस स्मृति दिवस (इक्कीस अक्तूबर) पर विभिन्न पुलिसबलों के सैकड़ों शहीद याद किए जाते हैं। एक ओर कर्तव्य-वेदी पर प्राणों की आहुति की वार्षिक रस्म-अदायगी देश की तमाम पुलिस यूनिटों में हो रही होती है और दूसरी ओर पुलिस की छवि को लेकर भारतीय समाज में मिश्रित कुंठाएं भी ज्यों की त्यों बनी रहती हैं। पुलिस की पेशेवर क्षमता को लेकर जन-मानस में धारणा रही है, बेशक अतिरेकी, कि पुलिस चाहे तो कैसा भी अपराध रोक दे और किसी भी तरह की अव्यवस्था पर काबू पा ले। ऐसी सकारात्मक लोक-छवि और अनवरत बलिदानी परंपरा के बावजूद, संवैधानिक मूल्यों पर खरी उतरने वाली नागरिक-संवेदी पुलिस का मॉडल भारतीय लोकतंत्र नहीं गढ़ पाया है।

फिलहाल इस संबंध में स्वयं सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में प्रकाश सिंह मामले में चल रही ‘पुलिस सुधार' की कवायद भी विशेष मददगार सिद्ध नहीं होने जा रही, हालांकि न्यायालय के 22 सितंबर 2006 के संबंधित फैसले पर दांव लगाने वालों की कमी नहीं है। एक तो, सर्वोच्च न्यायालय निर्देशित सुधार आधुनिक पुलिस के लिए जरूरी होते हुए भी, तमाम सरकारें इन्हें लागू करने में रुचि नहीं रखतीं। दूसरे, ये सुधार भी आम नागरिक के लिए असंगत पुलिस ‘सॉफ्ट-वेयर' को बरायनाम ही छू पाएंगे। दरअसल, पुलिस सुधार को प्रशासनिक रस्साकशी तक सीमित रखे जाने से ‘अच्छी पुलिस' की राह में मुख्य समस्या राजनीतिकों और नौकरशाहों के नकारात्मक रवैये के रूप में चिह्नित की जा रही है। जबकि जमीनी सच्चाई यह है कि औपनिवेशिक जड़ों वाली समाज-निरपेक्ष पुलिस, बेशक कितनी भी सक्षम क्यों न बना दी जाए, लोकतांत्रिक ढांचे में नहीं खप सकती।

पुलिस सुधार की लंबी मुहिम का पटाक्षेप भी अंतत: पुलिस के बदनाम हार्डवेयर को ही थोड़ा-बहुत चमकाने में होकर रह गया तो चतुर्दिक निराशा स्वाभाविक है। वर्ष 1996 में पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह ने 1977-81 के पुलिस आयोग की भुला दी गई सुधार-सिफारिशों को लेकर सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था। प्रकाश सिंह उत्तर प्रदेश और असम जैसे कानून-व्यवस्था के लिहाज से मुश्किल माने जाने वाले राज्यों में पुलिस महकमे के मुखिया रहे और सीमा सुरक्षा बल के प्रमुख भी। कानून-व्यवस्था को सक्षम बनाने की राह में व्यवस्थाजन्य बाधाओं को वे बखूबी समझते होंगे। उनकी अथक पहल से दस वर्ष में आए सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का प्रमुख जोर, पुलिस आयोग की सिफारिशों के अनुरूप, पुलिस को राजनीति और नौकरशाही के बेजा दबावों से मुक्त करने और उसकी कामकाजी स्वायत्तता को बाह्य निगरानी के अपेक्षाकृत व्यापक उपकरणों से संतुलित करने पर केंद्रित रहा। वैसे इन निर्देशों का, कुछ हद तक केरल को छोड़ कर, तमाम राज्यों और केंद्र ने भी अब तक छद्म अनुपालन ही किया है।

सर्वविदित है कि पुलिस के कामकाजी वातावरण में सत्ताधारियों के प्रति वफादारी दिखाना कहीं अधिक जरूरी बन गया है, बनिस्बत कानून के प्रति एकनिष्ठ समर्पण रखने के। बजाय स्वयं को समाज की शांति और सुरक्षा के प्रति जवाबदेह सिद्ध करने के, पुलिस को बेहिचक प्रभाव और पैसे का मतलब साधते देखा जा सकता है। वर्ष 1861 के औपनिवेशिक पुलिस अधिनियम पर आधारित उसकी साख सामान्य नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों की उपेक्षा करने वाली, अपराध के आंकड़ों में हेराफेरी से अपनी कुशलता दिखाने वाली और शातिर अपराधियों से मिलीभगत वाली बन चुकी है। मानव अधिकारों का नियमित हनन करने के आरोपों से घिरी राज्य की इस निर्णायक एजेंसी की कार्यप्रणाली पर भ्रष्टाचार, संकीर्णता, मनमानी और क्रूरता के गहरे प्रश्नचिह्न हैं, जिनके समाधान में आंतरिक और बाह्य निगरानी की तमाम परतें अप्रभावी सिद्ध हुई हैं।

सर्वोच्च न्यायालय का पुलिस सुधार मुख्यत: स्वायत्तता, जवाबदेही और लोकोन्मुखता के पांच बिंदुओं पर केंद्रित है। माना गया कि डीजीपी, आइजीपी, एसपी, एसएचओ की दो वर्ष की निश्चित तैनाती और डीजीपी और चार अन्य वरिष्ठतम पुलिस अधिकारियों के (एस्टैब्लिशमेंट) बोर्ड को उप पुलिस अधीक्षक स्तर तक के तबादलों का अधिकार, पुलिस की स्वायत्तता को मजबूत कर उसे बाह्य दबावों से मुक्त रख सकेंगे। पुलिस को कानूनी चौहद््दी में रखने के लिए राज्य पुलिस आयोग और पुलिस शिकायत प्राधिकरण की अवधारणा लाई गई। यह कहा गया कि हर राज्य नए सिरे से लोकोन्मुख पुलिस अधिनियम बनाए। कागज पर एक शानदार कवायद, पर व्यवहार में ‘नई बोतल में पुरानी शराब' से ज्यादा कुछ नहीं!

साफ है कि न केवल उपरोक्त प्राधिकरणों के गठन और कार्य-संस्कृति में सरकारों की ही निर्णायक भूमिका होगी बल्कि उनके पास पुलिस के घुटने टिकाने के लिए अनुशासन या प्रलोभन के और भी हजारों-हजार तरीके बने रहेंगे। अनुभवसिद्ध है कि दो वर्ष की स्वायत्तता की खातिर पुलिसकर्मी अपना पैंतीस वर्ष का सेवाकाल और सेवा-उपरांत फायदा दांव पर नहीं लगाएगा।

इसी तरह पुलिस पर निगरानी की मौजूदा अनेक प्रणालियों में एक और की वृद्धि, तिकड़मबाज पुलिसकर्मी पर शायद ही असर करे। सुधारों में दो महत्त्वपूर्ण लोकोन्मुखी अनुशंसाएं- कम्युनिटी पुलिसिंग और कानून-व्यवस्था का जांच-कार्य से अलगाव- भी इंगित हैं, पर उन्हें तो कोई भी पुलिस यूनिट बिना अदालती आदेश का सहारा लिए और बिना राजनीतिक कोपभाजन की चिंता किए, खुद भी लागू कर सकती है। असल सवाल है पुलिस के नागरिक-संवेदी होने का।

लोकतांत्रिक प्रणाली में राजनीतिक सत्ता का पूर्ण नकार न संभव है और न सर्वोच्च न्यायालय समेत पुलिस सुधार पर केंद्रित किसी भी आयोग या समिति का ऐसा मत रहा है। हमें समझना चाहिए कि लोकतांत्रिक पुलिस सुधार का क्रियाशील आधार सशक्त समाज ही हो सकता है, न कि समाज-निरपेक्ष पुलिस स्वायत्तता। एक संवेदी और लोकोन्मुख कानून-व्यवस्था, पुलिस के वर्तमान कामकाजी संबंधों के अंतर्गत ही, प्रशासनिक सुधारों के माध्यम से हासिल कर पाना संभव नहीं होगा। दुनिया का यही सबक है- मजबूत समाज अपनी पुलिस की इज्जत करता है और उसे सहयोग देता है; कमजोर समाज पुलिस को अविश्वास से देखता है और प्राय: उसे अपने विरोध में खड़ा पाता है।

भारत जैसे कमजोर लोकतंत्र में, विशेषकर राजनीतिक वर्ग के व्यापक लंपटीकरण के चलते, पुलिस सुधार एक बेहद जटिल कवायद है। इस क्षेत्र में, व्यवहार के धरातल पर, आज एक त्रिधापाश (ट्राइलेमा) की स्थिति बनती है। यानी पुलिस-व्यवस्था की तीन संभावित स्थितियों में से कोई भी या तो कारगर नहीं है या संभव नहीं है। दरअसल पुलिस, सत्ता प्रतिष्ठान और जनता में से एक समय में दो का मिलान ही संभव हो पा रहा है। जबकि ‘अच्छी पुलिस' समीकरण के लिए तीनों का मिलान चाहिए, जो एक मजबूत लोकतंत्र में ही स्वाभाविक है। इन त्रिधापाशी अंतर्संबंधों को इस प्रकार समझा जा सकता है:
पहली स्थिति सत्ता प्रतिष्ठान और उससे संचालित पुलिस के गठजोड़ की है, जिसके अंतर्गत ही आज पुलिस काम कर रही है। सत्ता प्रतिष्ठान के चंगुल में होने से पुलिस की प्रवृत्ति है कि वह सत्ताधारियों के साथ कदमताल करे। इस समीकरण में जनता पुलिस के फोकस से बाहर हो जाती है।
दूसरी स्थिति (स्वायत्त पुलिस और जनता एक साथ) पर पुलिस सुधार की वर्तमान कवायद आधारित है। यह पुलिस को किसी हद तक सत्ता प्रतिष्ठान से मुक्त करने की कोशिश है। साथ ही उसे बाह्य निगरानी से संतुलित रखने की परिकल्पना भी इसमें है। पर यहां भी न पुलिस के नागरिक-संवेदी होने की पूर्वशर्त है और न ही उसकी कार्यप्रणाली में जनता की कोई भूमिका है। यह दिखावटी सुधारों की ही स्थिति है, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय की हिदायत के अनुपालन में कई राज्यों के नए पुलिस अधिनियमों से जाहिर है।

भारतीय समाज में लोकतंत्र इतना सशक्त नहीं है कि त्रिधापाश का तीसरा विकल्प संभव हो, जिसके अंतर्गत सत्ता प्रतिष्ठान को हर हाल में जनता से एकाकार बैठाना पड़े। उस हालत में पुलिस का स्वरूप और कार्यप्रणाली भी इस आदर्श समीकरण के अनुरूप ही विकसित होते। यानी तब ‘अच्छी पुलिस' सत्ता प्रतिष्ठान के एजेंडे पर भी उसी तरह होगी जैसे जनता के एजेंडे पर।

यह विकल्प ‘संवेदी पुलिस-सशक्त समाजह्ण की अवधारणा पर आधारित होगा। संवेदी पुलिस से अर्थ है संवैधानिक मूल्यों वाली लोकतांत्रिक पुलिस और सशक्त समाज की कसौटी है कि लोगों को हक/हर्जाना स्वत: और समयबद्ध मिले। फिलहाल ये दोनों मुद््दे नदारद हैं- ‘संवेदी पुलिस', पुलिस प्रशिक्षण से और ‘सशक्त समाज', राजनीतिक प्राथमिकता से।

इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि कानून-व्यवस्था को लेकर हाय-तौबा मचाने वाले राजनीतिक दलों ने पुलिस सुधारों को चुनावी मुद््दा बनाना जरूरी नहीं पाया है। सर्वोच्च न्यायालय के ‘ऐतिहासिक' निर्णय में भी पुलिस अधिकारियों और उच्च न्यायपालिका की जकड़ हावी है, न कि जनता के अधिकार। राजनीति और नौकरशाही के गठबंधन ने इस बीच राज्यवार नए पुलिस अधिनियम लाकर इन सुधारों से अपने बुनियादी स्वार्थों के भरसक संतुलन का सिलसिला चला रखा है। रही आम नागरिक की स्थिति, तो वह इन ‘सुधारों' के दौर में भी जस की तस है। दरअसल, पुलिस सुधार की कवायद में लोकतांत्रिक पुलिस की अवधारणा सतही तौर पर ही शामिल हो पाई है।

जाके पांव न फटी बिवाई वो क्या जाने पीर पराई। स्वतंत्रता-प्राप्ति के साथ मान लिया गया था कि प्रशासनिक मशीनरी अपने आप लोकोन्मुख हो जाएगी। पर जब राजनीतिक सत्ता का चरित्र ही खास नहीं बदला तो नौकरशाही या पुलिस का कैसे बदलता। इस बीच आपातकाल के अपमानजनक दौर (1975-77) के भुक्तभोगी राजनेताओं ने पुलिस और जेल की व्यवस्थाओं में सुधार की अनिवार्यता शिद्दत से महसूस की होगी। लिहाजा, दो अलग-अलग सुधार आयोग बने भी; पर जब तक उनकी रिपोर्टें आतीं पुन: सत्ता परिवर्तन हो गया और इस कवायद को राजनीतिक एजेंडे से ही खारिज कर दिया गया।

जन-विमुख राजनेताओं, पिछलग्गू नौकरशाही और समाज-निरपेक्ष पुलिस नेतृत्व से संचालित और औपनिवेशिक ढांचे में विकसित भारतीय पुलिस के लिए एक लोकोन्मुख योजना क्या संभव है? पुलिस आयोग की रिपोर्ट से पुलिस के अपने सामंती चरित्र और उसकी कार्यप्रणाली पर राजनीति और नौकरशाही के गठजोड़ की अलोकतांत्रिक जकड़ का खुलासा हुआ था। हालांकि लोकतांत्रिक परिप्रेक्ष्य में इस रिपोर्ट में की गई सिफारिशों की तस्वीर भी उतनी उत्साहवर्धक नहीं रह जाती। इनमें सुधार के प्रशासनिक सिद्धांत तो वर्णित हैं, पर सामान्य नागरिक के नजरिये से नहीं। दरअसल, आयोग ने मुख्यत: राज्य-सत्ता के विभिन्न अंगों से पुलिस के परस्पर संतुलन को ही संबोधित किया था। लिहाजा, इस पर आधारित सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की भी यही सीमा है।

जनता के नजरिये से पुलिस सुधार का मतलब है एक संवेदी और लोकतांत्रिक पुलिस। जबकि प्रकाश सिंह मामले में सर्वोच्च न्यायालय का दखल एक स्वायत्त और जवाबदेह पुलिस की जरूरी मगर सीमित अवधारणा से आगे नहीं जा सका है।

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