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पूत के पांव और सौ दिन सरकार के- योगेन्द्र यादव

"पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं" वाली कहावत सुनकर मैं अक्सर सोचता हूं कि पालने में नामुराद पांव ही क्यों देखे जाते हैं? शायद, इसलिए कि पांव देखने से पूत के चाल-चलन का पता चलता है।

भान होता है कि पूत के पांव आगे किस ओर जाएंगे, कहां रूके-टिकेंगे और कहां फिसलेंगे। चूंकि नई सरकार और उसके मुखिया ने अभी बस सौ दिन पूरे किए हैं, सो उसके बारे में कुछ कहना पूत के पांव देखने जैसा ही मामला है। तो भी कहावत की पूंछ पकड़कर यह तो कहा ही जा सकता है कि लक्षण शुभ नहीं दिखते।

बेशक प्रधानमंत्री की बातों ने आशा की लौ अभी जगा रखी है। कामकाज के मामले में सçन्नपात की शिकार यूपीए-2 से तुलना करें तो लगता है कि प्रधानमंत्री के कदम सधे हुए हैं लेकिन असल सवाल दिशाबोध का है। न जाने क्यों सरकार विदेश नीति के मोर्चे पर बड़ी तेजी से कदम बढ़ा रही है। कुछ कदम सराहनीय हैं।

शपथ-ग्रहण समारोह में दक्षेस देशों के नेताओं को न्योता गया, नेपाल के प्रति चला आ रहा धौंसपट्टी का अंदाज कुछ नरम पड़ा और विश्व व्यापार संगठन में विकसित देशों की बदमाशियों के आगे तनकर खड़े होने की इच्छाशक्ति के दर्शन हुए।

लेकिन इसी सरकार ने फिलिस्तीन के मामले में ढुलमुल रवैया अपनाया। ब्रिक्स को लेकर उसके मन में ऊहापोह है तो पाकिस्तान के लिए कभी हां-कभी ना। गो कि विदेश नीति के मोर्चे पर मोदी सरकार ने उछल-कूद खूब मचायी लेकिन कदम-ताल गायब लगता है।

जनता से वादे का क्या...
मोदी सरकार से आर्थिक मोर्चे पर बहुत सारी उम्मीदें लगाई गई हैं। रक्षा-मामले, रेलवे और बीमा-क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को ना कहने की अपनी टेक से भाजपा ने सरकार बनने के बाद मुंह मोड़ लिया। मोदी ने महंगाई रोकने और सबको रोजगार देने का वादा किया था। आम आदमी के इन सरोकारों की अनदेखी मोदी सरकार के इकबाल के लिए ठीक नहीं क्योंकि गरीबों को लेकर उसकी निष्ठा पहले ही संदेहास्पद है। दरअसल नई सरकार आम आदमी से किए गए वादे से मुकरती जान पड़ती है।

भाजपा ने अपने घोषणा-पत्र में कहा था कि वह स्वामीनाथन आयोग के सुझावों पर चलते हुए न्यूनतम समर्थन मूल्य में इजाफा करेगी। स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट में कृषि-लागत के ऊपर 50 प्रतिशत और जोड़कर न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने की बात कही गई है लेकिन भाजपा अपने इस वायदे से पीछे हट चुकी है। भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास विधेयक को कमजोर करने की तैयारियों को देखते हुए नहीं लगता कि नई सरकार के पांव किसानों के हित में उठने वाले हैं।

पर्यावरण पर विकास हावी
पर्यावरण के मामले में मोदी सरकार की टेक है, आर्थिक वृद्धि होती है तो पर्यावरण जाय भाड़ में। सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाने और केन-बेतवा नदी लिंक परियोजना को हरी झंडी देने में जो जल्दबाजी दिखाई गई उससे संकेत मिलते हैं कि पर्यावरण सुरक्षा के जतन से किए गए उपायों को धता बताना पहले की तरह जारी ही नहीं रहेगा बल्कि और तेज होगा।

शिक्षा के मोर्चे पर ऎसा नहीं लगता कि सरकार को इस क्षेत्र की भारी-भरकम चुनौतियों का भान भी है। शिक्षा के अधिकार कानून के लागू होने के बाद जरूरत शिक्षा की गुणवत्ता की है। शिक्षा की गुणवत्ता बहाल करने का तरीका यह तो नहीं हो सकता कि बच्चों को प्रधानमंत्री का भाषण सुनाया जाए। इसी तरह बिना नाक-नक्शा बनाए उच्चशिक्षा के क्षेत्र में खुरपेंच करने से स्थिति बनती कम, बिगड़ती ज्यादा है।

साम्प्रदायिकता में वृद्धि
बड़ी आशंका थी कि धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति नई सरकार का रूख क्या होगा। प्रधानमंत्री ने ऎसा कुछ भी नहीं कहा जिससे इस आशंका को खाद-पानी मिले। लेकिन प्रधानमंत्री का इफ्तार पार्टी ना देना, सांप्रदायिक सद्भाव कायम रखने की उनकी सिखावन से कहीं ज्यादा बड़ा अर्थ हासिल कर लेता है।

जिन राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं वहां बढ़ते सांप्रदायिक तनाव को देखकर लगता है कि राज्यसत्ता ने इस तनाव को रोकने से अपने हाथ खींच रखे हैं और आग भड़काने का काम प्रशिक्षित भीड़ को सौंप दिया गया है।

सुशासन पर भी प्रश्नचिह्न
मोदी सरकार के लिए बड़ी परीक्षा गवनेंüस के मोर्चे पर होनी है। अपने भ्रष्टाचार और नकारेपन से वैधता खो चुकी यूपीए-2 की तुलना में मोदी सरकार का आगाज अच्छा होना ही था। ऎसे में प्रधानमंत्री जब कहते हैं कि कर्मचारियों-अधिकारियों को काम पर हर हाल में आना होगा और वे चौदह घंटे काम करेंगे तो मैं पंद्रह घंटे काम करूंगा तो उनकी यह बात निश्चित ही ताली बटोरेगी।

मुश्किल तब खड़ी होगी जब लोग पूछेंगे कि आपके काम का नतीजा क्या निकला? नई सरकार ने काले धन के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट आदेशित एसआईटी को जरूर हरी झंडी दी लेकिन सौ दिन के भीतर कालाधन वापस लाने के दावे को निभाने के नाम पर उसके हाथ-पांव हिलने अभी बाकी हैं।

विपक्ष कुछ तो करे...
सत्ताधारी पार्टी के लक्षण शुभ नहीं दिखते लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि विपक्ष की उम्मीदों को कोई पंख लग गए हैं। उत्तराखंड और कर्नाटक के उपचुनावों में सत्ताधारी कांग्रेस की जीत मन-बहलावन का बहाना भर है।

बिहार में बीजेपी के विरूद्ध नीतीश-लालू के महागठबंधन की जीत अभी चमकदार जान पड़ती है लेकिन आगे चलकर इससे भाजपा को अपना नया जनाधार मजबूत करने में मदद मिलेगी। बीते सौ दिनों में हमने सरकार और उसके तेवर तो देखे लेकिन विपक्ष कहीं नहीं दिखा। शेष 1725 दिन बचे हैं। सच्चा, सिद्धांतनिष्ठ और वैकल्पिक विपक्ष अपने को गढ़े और सार्थक भूमिका निभाए।