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प्रदूषण की अर्थव्यवस्था के तर्क-- अनिल प्रकाश जोशी

एक बार फिर जर्मनी में पर्यावरण व जलवायु के मुद्दों पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन की शुरुआत हो चुकी है। और फिर से ऐसा कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा, जिससे यह कहा जा सके कि इस बार हम किसी बड़े निर्णय पर पहुंच पाएंगे। असली बाधा इसलिए है कि दुनिया को गरम होने से बचाने का मुद्दा दरअसल उद्योगों से जुड़ा हुआ है। अगर हम ‘ग्लोबल वार्मिंग' को रोकना चाहते हैं, तो हमें अपने उद्योगों का मिजाज बदलना होगा। मगर कोई भी इसके लिए तैयार नहीं है- न उद्योग और न सरकारें। दुनिया के 20 सबसे बड़े देश, जिन्हें विकसित देशों का दर्जा प्राप्त है, अकेले 96 हजार अरब डॉलर उद्योगों से जुटाते हैं। यह आंकड़ा आईएमएफ के 2016 के सर्वेक्षण के अनुसार है। इनमें से सबसे ज्यादा कमाई चीन की है, जो लगभग 4,566 अरब डॉलर है। दूसरे और तीसरे नंबर पर यूरोपीय संघ व अमेरिका हैं, जिनकी कमाई क्रमश: 4,184 और 3,602 अरब डॉलर है। इन देशों में सबसे कम कमाई पोलैंड की है, जिसकी उद्योगों से आय 180 अरब डॉलर है। भारत की आय 672 अरब डॉलर के आस-पास है, जो ब्रिटेन और फ्रांस से ज्यादा है।

आय के ये आंकड़े दरअसल प्रदूषण में हिस्सेदारी के आंकड़े भी हैं। ग्लोबल वार्मिंग के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार कार्बन डाई-ऑक्साइड का उत्सर्जन है। चीन, जिसका आर्थिक प्रगति में पहला स्थान है, उसका कार्बन उत्सर्जन में भी सबसे ज्यादा योगदान है। विश्व के कुल कार्बन उत्सर्जन का लगभग 30 फीसदी अकेले चीन उत्सर्जित करता है। दूसरे नंबर पर अमेरिका है, जिसका 2013 में कार्बन उत्सर्जन 5.8 अरब टन था। इसके मुकाबले भारत से होने वाला सालाना कार्बन डाई-ऑक्साइड उत्सर्जन 2.6 अरब टन है। इसे हम ऐसे भी समझ सकते हैं कि विभिन्न देशों के सकल घरेलू उत्पाद, यानी जीडीपी में उद्योगों की हिस्सेदारी लगातार बढ़ रही है। अमेरिका की जीडीपी में उद्योगों की भागीदारी 19.1 प्रतिशत है, जबकि चीन में यह लगभग 40 प्रतिशत है। भारत में उद्योग 26 प्रतिशत का योगदान करते हैं। संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब में तो यह आंकड़ा 60 प्रतिशत से ऊपर है। दूसरी तरफ, सभी देशों में खेती-बाड़ी में बड़ी गिरावट आई है। अमेरिका की जीडीपी में कृषि की भागीदारी 1.12 प्रतिशत है। जापान, ब्रिटेन और कनाडा में भी ऐसे ही हालात हैं। यहां जीडीपी में खेती की भागीदारी दो प्रतिशत से भी कम है। भारत में यह हिस्सेदारी लगभग 17 फीसदी है, जो स्वतंत्रता के समय 40 प्रतिशत की आसपास थी।


इसी तरह चीन में 2010 में खेती की भागीदारी 10.2 प्रतिशत थी, जिसमें 2016 आते-आते दो फीसदी की और गिरावट आ गई। आज दुनिया में भारत, इंडोनेशिया, पाकिस्तान, नाइजीरिया, इराक, थाइलैंड जैसे कुछ गिने-चुने देश ही हैं, जिनकी जीडीपी में खेती की भागीदारी 10 प्रतिशत से ऊपर है। जाहिर है, अर्थव्यवस्था की सारी जिम्मेदारी उद्योगों के सिर पर ही है। दिक्कत यह भी है कि इसमें वे उद्योग बहुत आगे हैं, जो अपने उत्पाद या अपनी उत्पादन प्रक्रिया के लिए प्राकृतिक संसाधनों के दोहन पर निर्भर हैं। साथ ही वे भी, जो ईंधन के लिए प्राकृतिक संसाधनों, खासकर जीवाश्म ईंधन पर निर्भर हैं। कई देश ऐसे हैं, जिनकी जीडीपी में सबसे ज्यादा हिस्सेदारी खनिज तेल के व्यापार की है। कांगो, कुवैत, इराक, ईरान, सऊदी अरब इन सब की जीडीपी में तेल की भागीदारी 60 प्रतिशत से ऊपर है। दुनिया में गिने-चुने ही देश हैं, जिन्हें संतुलित कहा जा सकता है। खेती व उद्योगों पर अर्थव्यवस्था समान रूप से निर्भर है, लेकिन दिक्कत यह है कि ये सभी देश आर्थिक रूप से पिछड़े देशों में गिने जाते हैं। इस तरह के आंकड़े यही बताते हैं कि जो देश प्राकृतिक संसाधन पैदा कर रहे हैं, वे पिछड़े हैं और जो उनका दोहन कर रहे हैं या उनकी कीमत पर उद्योगों को आगे बढ़ा रहे हैं, वे अगड़े हैं।


दिक्कत यह है कि बॉन के पर्यावरण सम्मेलन में यह मसला इस तरह से नहीं उठाया जाएगा। और जब तक इसे इस रूप में नहीं उठाया जाएगा, सम्मेलन में व्यक्त की जाने वाली सारी चिंताएं बेमतलब रहेंगी। हमें यह स्वीकार करना ही होगा कि पर्यावरण के लिए जो लड़ाई लड़ी जानी है, वह दरअसल आर्थिक लड़ाई भी है। इसे स्वीकार न कर पाने के कारण ही अक्सर ऐसे अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन झगड़ों में बदल जाते हैं, या फिर एक-दूसरे पर आरोप लगाने में। पिछले दिनों अमेरिका ने पेरिस समझौते से हाथ खींच लिए थे। उसका कहना है कि पर्यावरण को बचाने के लिए उठाए गए कदमों से उसे नुकसान होगा और भारत जैसे देशों को लाभ। यहां नुकसान का मतलब अमेरिका के उद्योगों के नुकसान से है, वरना इससे अमेरिकी सरकार या जनता का कोई सीधा नुकसान नहीं होने जा रहा। पर्यावरण को बचाने और ग्लोबल वार्मिंग को रोकने का मसला दरअसल उद्योगों को रोकने या पुरानी कृषि व्यवस्था की ओर लौटने का नहीं है। लौटना तो शायद कभी संभव भी नहीं होता। यह मसला विकास और विज्ञान की सोच बदलने का है। हमें वह रास्ता अपनाना ही होगा, जिससे विकास का अर्थ प्राकृतिक संसाधनों का दोहन न रहे। उद्योग ऐसे हों, जो कार्बन उत्सर्जन को बढ़ाने की बजाय उन्हें रोकें। समाज और अर्थव्यवस्था को इस ओर ले जाने के लिए अब विज्ञान को सक्रिय होना होगा। शुरू में हो सकता है कि इससे उद्योगों को कुछ नुकसान भी हो, लेकिन अंत में इससे सबको फायदा मिलेगा। हमें पर्यावरण पर होने वाले अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों को इसी ओर ले जाना होगा। जब तक यह नहीं होता, पर्यावरण पर होने वाला कोई अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन न तो सफल होगा और न ही इससे कोई सर्वमान्य संधि ही निकल सकेगी। किसी सम्मेलन या उद्योग को बचाने से ज्यादा बड़ा सवाल इस समय धरती को बचाने का है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)