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प्रदूषण की भेंट चढ़ता जीवन-- पीयूष द्विवेद्वी

सर्वोच्च न्यायालय ने देश की राजधानी दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण को लेकर एक बार फिर सरकार से जवाब तलब किया है। न्यायालय ने अपनी टिप्पणी में कहा है कि दिल्ली में प्रतिदिन औसतन आठ लोग वायु प्रदूषण जनित बीमारियों से मरते हैं। इसके अलावा न्यायालय ने दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश व राजस्थान के प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों तथा सरकारों से भी प्रदूषण की रोकथाम को लेकर पूर्ण कार्य-योजना पेश करने को कहा है। न्यायालय ने फर्नेस आॅयल आदि के दहन पर प्रतिबंध लगाने का निर्देश भी सरकार को दिया है। अब न्यायालय की इन बातों को कितनी गंभीरता से लिया जाता है, यह तो बाद में पता चलेगा, लेकिन यह वास्तविकता है कि न केवल दिल्ली बल्कि पूरे देश में प्रदूषण बेहद विकराल रूप ले चुका है। इस संदर्भ में हाल ही में आई देश के चौबीस राज्यों के 168 शहरों की स्थिति पर आधारित ग्रीनपीस इंडिया की रिपोर्ट का जिक्र प्रासंगिक है, जिसके अनुसार देश में प्रतिवर्ष प्रदूषणजनित बीमारियों से बारह लाख लोगों के मरने की बात कही गई है। यह भी उल्लेखनीय है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया के प्रत्येक दस में से नौ व्यक्ति प्रदूषित हवा में सांस लेने को मजबूर हैं और वायु प्रदूषण से होने वाली हर तीन में से दो मौतें भारत तथा दक्षिण-पूर्व एशिया में होती हैं। समझा जा सकता है कि भारत में वायु प्रदूषण किस खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है।

बीते वर्ष केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा देश के इक्कीस चुनिंदा शहरों की वायु गुणवत्ता पर एक रिपोर्ट जारी की गई थी। रिपोर्ट के अनुसार, उन इक्कीस में से महज एक शहर पंचकूला में वायु गुणवत्ता का स्तर संतोषजनक है। इसके अतिरिक्त मुंबई और पश्चिम बंगाल के शहर हल्दिया में भी वायु की गुणवत्ता कुछ ठीक है, लेकिन शेष सभी शहरों की हवा का स्तर मध्यम और खराब से लेकर बहुत खराब तक पाया गया। इनमें मुजफ्फरपुर, लखनऊ, दिल्ली, वाराणसी, पटना, फरीदाबाद, कानपुर, आगरा आदि शहरों का प्रदूषण-स्तर बहुत खराब पाया गया। इन शहरों में तब दिल्ली तीसरा सबसे अधिक प्रदूषित शहर पाया गया था। पूर्व केंद्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर द्वारा राज्यसभा में जारी एक आंकड़े के मुताबिक दिल्ली में वायु प्रदूषण जनित बीमारियों से प्रतिदिन लगभग अस्सी लोगों की मौत होती है। नासा सैटेलाइट द्वारा इकट्ठा किए गए आंकड़ों से पता चलता है कि दिल्ली में पीएम-25 जैसे छोटे कण की मात्रा बेहद अधिक है। औद्योगिक इकाइयों और वाहनों द्वारा उत्सर्जित धुएं से हवा में पीएम-25 कणों की बढ़ती मात्रा घनी धुंध का कारण बन रही है। इसी कारण दिल्ली दुनिया के दस सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में शामिल है। देश के अन्य महानगरों की भी कमोबेश यही स्थिति है।

 


अमेरिका के येल विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के मुताबिक पर्यावरण सूचकांक (एनवॉर्नमेंट परफॉर्मेंस इंडेक्स) में 178 देशों में भारत का स्थान 32 अंक गिर कर 155वां हो गया है। वायु प्रदूषण के मामले में भारत की स्थिति ब्रिक्स देशों में सबसे खराब है। अध्ययन के मुताबिक प्रदूषण के मामले में भारत की तुलना में पाकिस्तान, नेपाल, चीन और श्रीलंका की स्थिति बेहतर है जिनका इस सूचकांक में स्थान क्रमश: 148वां, 139वां, 118वां और 69वां है। यह सूची जिन नौ प्रदूषण कारकों के आधार पर तैयार की गई है, उनमें वायु प्रदूषण भी शामिल है। वायु प्रदूषण के कारण देश में प्रतिवर्ष लगभग छह लाख लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है। उपर्युक्त आंकड़ों के संबंध में यह तर्क दिया जा सकता है कि पाकिस्तान, श्रीलंका आदि देशों की जनसंख्या, औद्योगिक प्रगति और वाहनों की तादाद भारत की अपेक्षा बेहद कम है, इसलिए वहां वायु प्रदूषण का स्तर नीचे है। लेकिन इस तर्क पर सवाल यह उठता है कि स्विट्जरलैंड, आस्ट्रेलिया, सिंगापुर आदि देशों ने क्या औद्योगिक प्रगति नहीं की है, या उनके यहां वाहन नहीं हैं? वे तो दुनिया के सर्वाधिक वातानुकूलित देशों में शुमार हैं। दरअसल, अगर प्रगति और प्रकृति के बीच संतुलन स्थापित किया जाए तो न केवल वायु प्रदूषण बल्कि हर तरह के प्रदूषण से निपटा जा सकता है। पर इस संतुलन के लिए कानूनी स्तर से लेकर जमीनी स्तर पर तक मुस्तैदी दिखानी पड़ती है, जिस मामले में हमारा देश काफी पीछे है। प्रदूषण को लेकर हमारे हुक्मरानों की उदासीनता इसी से समझी जा सकती है कि देश का कोई भी राजनीतिक दल अपने घोषणापत्र में प्रदूषण नियंत्रण से संबंधित कोई वादा नहीं करता। ऐसे किसी वादे से इसलिए परहेज नहीं किया जाता कि प्रदूषण नियंत्रण कठिन कार्य है, क्योंकि इससे कठिन-कठिन वादे हमारे हुक्मरानों द्वारा कर दिए जाते हैं। लेकिन वे प्रदूषण नियंत्रण जैसे वादे से सिर्फ इसलिए परहेज करते हैं कि उनकी नजर में यह कोई मुद््दा नहीं होता।

 

 


देश में वायु प्रदूषण के लिए दो सर्वाधिक जिम्मेवार कारक हैं। एक, डीजल-पेट्रोल चालित मोटर वाहन, और दूसरा, औद्योगिक इकाइयां। वाहनों में प्रयुक्त पेट्रोल-डीजल के दहन के फलस्वरूप कई वायुप्रदूषकों की उत्पत्ति होती है, जैसे कार्बन मोनो आक्साइड, नाइट्रोजन व सल्फर के आक्साइड, धुआं, सीसा आदि। एक स्वचालित वाहन द्वारा एक गैलन पेट्रोल के दहन से लगभग 5720 लाख घनफीट वायु प्रदूषित होती है। विश्व के सभी देशों में वाहनों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है और उससे उत्पन्न परिणाम समय-समय पर परिलक्षित हो रहे हैं। एक अध्ययन के अनुसार, तैंतीस प्रतिशत वायु प्रदूषण वाहनों से निकलने वाले धुएं के कारण होता है। फिर भी, मोटर वाहनों में तो कुछ हद तक र्इंधन संबंधी ऐसे बदलाव हुए हैं, जिससे उनसे होने वाले प्रदूषण में कमी आए। सीएनजी वाहन, बैटरी चालित वाहन आदि ऐसे ही कुछेक बदलावों के उदाहरण हैं। लेकिन औद्योगिक इकाइयों पर नियंत्रण के लिए कुछ ठोस नहीं किया जा रहा, जबकि उनसे सिर्फ वायु नहीं, जल में भी प्रदूषण फैल रहा है, मिट््टी भी प्रदूषित हो रही है। दिल्ली और उससे सटे एनसीआर इलाकों में, जहां औद्योगिक इकाइयों की भरमार है, यह धुआं स्थायी धुंध का रूप लेता जा रहा है। आलम यह है कि धुंध के मामले में दिल्ली ने बेजिंग को भी पीछे छोड़ दिया है। इन औद्योगिक इकाइयों पर नियंत्रण के लिए एक सख्त कानून की जरूरत है जिसकी फिलहाल कोई उम्मीद नहीं दिखती।

 

 


एक तरफ तो इन औद्योगिक इकाइयों व वाहनों की भरमार से वायु प्रदूषण बढ़ रहा है, वहीं दूसरी तरफ दिन-ब-दिन पेड़-पौधों में जिस तरह से कमी आ रही है, उससे स्थिति और विकट होती जा रही है। देश औद्योगिक प्रगति के अंधोत्साह में उलझा हुआ है। दोष सिर्फ सरकारों का नहीं है, जाने-अनजाने नागरिक भी इसके लिए बराबर के जिम्मेवार हैं। लोग जरा-जरा सी चीज के लिए उन वैज्ञानिक उपकरणों पर निर्भर हो गए हैं जिनसे वायु प्रदूषण और गहराता है। वाहन, बिजली उपकरण, कागज, सौंदर्य प्रसाधन आदि तमाम चीजें हैं जिन पर लोगों की आवश्यकता से अधिक निर्भरता हो गई है जो कि प्राकृतिक विनाश और प्रदूषणमें महती भूमिका निभा रही है। जैविक र्इंधनों के दहन के फलस्वरूप विभिन्न विषैली गैसों का निर्माण होता है, जो कि वायुमंडल को प्रदूषित करती हैं। तमाम घरों में रेफ्रिजरेटर, एअर कंडीशनरों का प्रयोग एक सामान्य-सी बात है। इन विद्युत-चालित उपकरणों से निकलने वाली क्लोरो-फ्लोरो कार्बन गैस (सीएफसी) वायुमंडल में उपस्थित ओजोन परत को नुकसान पहुंचाती है। उपर्युक्त सभी बातों को देखते हुए यह जरूरी है कि सरकार और नागरिक दोनों इस संबंध में चेत जाएं और वायु को जीवन के अनुकूल रखने के लिए सचेष्ट हों। प्रगति तभी होगी जब हम जिएंगे और हम जिएंगे तभी, जब धरती पर और सांस लेने लायक वायु होगी।