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प्रांतीय गौरव पर सबका हक- रामचंद्र गुहा

कुछ समय पहले कोलकाता के एक अखबार में छपे अपने लेख में मैंने यह तर्क दिया था कि कन्नड़ लेखक, अभिनेता, नर्तक, समाज सुधारक और पर्यावरणविद् शिवराम कारंथ देश की उतनी ही महान शख्सियत थे, जैसे रवींद्रनाथ टैगोर। मैं उनसे मिल चुका हूं। उन्होंने जो कुछ लिखा, उनका तर्जुमा मैंने पढ़ा है। इसके अलावा उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व का भी मुझ पर खासा असर रहा है। गिरीश कर्नाड से लेकर यू.आर.अनंतमूर्ति, गिरीश केसरवल्ली से माधव गाडगिल समेत कर्नाटक के तमाम उपन्यासकारों, फिल्म निर्माताओं और विद्यार्थियों सभी ने मुझे बताया कि वे जिन शख्सियत को जानते हैं, उनमें कारंथ सर्वाधिक उल्लेखनीय कहे जा सकते हैं।

इसमें संदेह नहीं कि टैगोर एक विराट व्यक्तित्व के स्वामी थे। हालांकि उन्हें धनी और ऊंची सामाजिक पृष्ठभूमि का फायदा भी मिला, जिसने उन्हें अपनी मर्जी का काम करने और सोच का विस्तार करने के लिए पूरी दुनिया में घूमने की छूट भी दी। दूसरी ओर एक साधारण परिवार में जन्मे कारंथ की शख्सियत पूरी तरह से स्व-निर्मित थी। उन्होंने पुस्तकें पढ़कर और देश भर में यात्राएं करके खुद को तराशा। अपने उपन्यासों और यक्षगान नृत्य-नाट्य के पुनरुत्‍थान के अलावा कई लोकप्रिय आंदोलनों को मिला उनका नेतृत्व, महिलाओं के उत्‍थान के लिए किए गए उनके साहसिक काम, आपातकाल का विरोध जैसी भूमिकाओं के चलते पूरे कर्नाटक और खुद मेरे लिए भी वह घोर सम्मान के पात्र बने हुए हैं। हालांकि साहित्यिक सौंदर्य की नजर से देखने पर एहसास हो सकता है कि लेखक के तौर पर उनमें टैगोर जैसी प्रतिभा न हो। मगर नैतिक साहस के मामले में जहां उन्होंने टैगोर की बराबरी की, वहीं शारीरिक साहस में तो वह बंगाली जीनियस पर भारी पड़ते दिखते हैं।

हालांकि कारंथ को टैगोर की कोटि में खड़ा करने का मेरा दावा बिल्कुल खरा था, मगर यह थोड़ा भड़काऊ भी था। मुझे आशंका थी कि एक कन्नड़भाषी को गुरुदेव की बराबरी पर खड़ा करना, कुछ बंगालियों को नागवार गुजर सकता है। और यही हुआ। मेरा लेख पढ़कर एक प्रवासी बंगाली ने लिखा, 'हड्डियों को गला देने वाली न्यूयॉर्क की एक सर्द सुबह को नाश्ते के दौरान यह लेख पढ़कर मेरा दम घुटने लगा। मैं समझता हूं कि अब आप अधेड़ हो चुके हैं, मगर फिर भी अभी आप सनकने वाली उम्र में नहीं पहुंचे हैं। ऐसा तो नहीं कि भारत की गर्मी ने आपको समय से पहले बूढ़ा बना दिया।'

दरअसल बंगाल में प्रांतीय गर्व की भावना का मजबूत आधार रहा है। 19वीं सदी से ही इस प्रांत ने कई महान लेखक, समाज सुधारक और सृजनशील कलाकार पैदा किए हैं। हालांकि खुद के गुणों का बखान करने में बंगाली हमेशा से एक फायदे की स्थिति में रहे हैं। यहां का बुद्धिजीवी तबका अंग्रेजी भाषा पर मजबूत पकड़ रखता है। इससे बराबर हैसियत वाले देश के दूसरे प्रांतों की तुलना में इस प्रांत की उपलब्धियों के चर्चे दूर तक फैलने में मदद मिली। इतिहास-लेखन में बंगाल की ऊंची प्रतिष्ठा होने की वजह से हमारे दिमाग में शुरुआत से यह बैठा दिया जाता है कि भारत में 'आधुनिकता की धुरी' यही प्रांत था। जबकि सच यह है कि लिंग और जाति समानता के विचार और आधुनिक तर्क आधारित चिंतन ने पश्चिमी और दक्षिणी भारत में कहीं ज्यादा समग्रता से अपने पांव पसारे।

गौरतलब है कि फुले, गोखले, अंबेडकर, नारायण गुरु और ईवी रामास्वामी ने अपने बंगाली समकक्षों की तुलना में भारतीय जनमानस को कहीं ज्यादा स्‍थायी ढंग से प्रभावित किया। दरअसल 'आधुनिकता' का जन्म बेशक बंगाल में हुआ हो, मगर इसका विकास और संचालन महाराष्ट्र, तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों में हुआ। सच तो यह है कि असाधारण लेखक और कार्यकर्ता देश के हर राज्य में हुए हैं। कारंथ को टैगोर के बराबर बताने वाले मेरे लेख से करीब एक वर्ष पहले मुझे पुणे में रहने वाले एक तमिल व्यक्ति का संदेश्‍ा मिला, जिसमें लिखा था, 'इतिहासविद् होने के नाते आपने (सुब्रमनिया) भारती का नाम जरूर सुना होगा, मगर उनके बारे में आपकी जानकारी काफी कम है। वह एक महान कवि, भाषाविद्, स्वतंत्रता सेनानी, दार्शनिक और उदार तमिल ब्राह्मण थे। उनके लेखन और कविताओं की परिधि काफी व्यापक थी। मैं आज तक ऐसे किसी शख्स से नहीं मिला, जिसकी तुलना उनसे की जा सके। और वह केवल 39 वर्ष तक ही जिये। मुझे कहने में हिचक नहीं है कि टैगोर उनसे काफी पीछे थे। भड़काऊ समझकर मेरी सोच को खारिज करने की भूल न करें। मैं जो कह रहा हूं, वही सच है।'

दरअसल क्षेत्रभक्ति की ऐसी भावना भारत में काफी गहरे तक समाई है। हमारी भूमि हजारों भाषाओं वाली है, जिसमें से हरेक की बेहद समृद्ध साहित्यिक परंपरा है। ऐसे में लोगों का उन लेखकों की ओर आकर्षित होना स्वाभाविक है, जो न केवल उनकी भाषा में लिखते हों, बल्कि अच्छा भी लिखते हों। कन्‍नड़भाषियों का कारंथ से, तमिलों का भारती से, मलयालियों का शायद वल्‍लाथल से और उड़ियाभाषियों का फकीर मोहन सेनापति से जुड़ाव इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।� हालांकि स्‍थानीय अभिमान की भावना भाषा और साहित्य के क्षेत्र से परे भी दिखती है। देश का हर राज्य अपने स्वतंत्रता सेनानियों, ऐतिहासिक मंदिरों, मस्जिदों, चर्चों, गुरुद्वारों, संगीत, नृत्य, वेशभूषा और खानपान की शैली, और हां, क्रिकेटरों पर भी गर्व करता है।

मुंबई के एक पत्रकार ने हाल ही में बेहद नजदीकी संघर्ष वाले एक चुनाव को कवर करने के लिए दक्षिणी बंगलूरू की यात्रा की। उसने पाया कि भाजपा और कांग्रेस के प्रत्याशियों के बीच बंटे स्‍थानीय लोग एक बात पर सहमत थे कि जी.आर.विश्वनाथ, सुनील गावस्कर से कहीं बेहतर बल्लेबाज थे। दरअसल प्रांतीय गर्व की भावना के मद्देनजर लोगों में एक अपरिहार्य प्रतिद्वंद्विता दिखती है। न्यूयॉर्क में बसे उस बंगाली को ही लीजिए, जिसका गुस्सा महज इस पर था कि मैंने उसकी नजर में तुच्छ कन्नड़भाषी से उसके आइकन की बराबरी कर दी। उड़िया को शास्‍त्रीय भाषा का दर्जा मिलने के फैसले से ओडिशा के लोगों को इस वजह से ज्यादा खुशी महसूस हुई, कि बांग्ला भाषा को अब तक यह सम्मान नहीं मिला है।

इसके बावजूद अगर समग्र तौर पर देखें, तो अपने प्रांत के प्रति सम्मान एक बहुत अच्छी बात है। इससे अपने राज्य और उसकी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति की सर्वोत्तम भावना के साथ एक गहरा जुड़ाव पैदा होता है। मैं मानता हूं कि अपने प्रांत के प्रति अगाध प्रेम अंध राष्ट्रवाद से कहीं कम खतरनाक है।