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प्राथमिक शिक्षा की दुश्वारियां-- सुधीर कुमार

एनुअल स्टेटस आॅफ एजुकेशन रिपोर्ट (‘असर'), ग्रामीण भारत के स्कूलों में बच्चों के नामांकन और उनकी शैक्षणिक प्रगति पर किया जाने वाला देश का सबसे बड़ा वार्षिक सर्वेक्षण है। स्वयंसेवी संस्था ‘प्रथम' के सहयोग से जिला स्तर पर स्थानीय संस्थाओं से जुड़े कार्यकर्ताओं के जरिए इस बार देश के चौबीस राज्यों के अट्ठाईस जिलों में चौदह से अठारह वर्ष के किशोरों के बीच कराए गए सर्वेक्षण की बारहवीं रिपोर्ट से कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। यह रिपोर्ट न सिर्फ देश में बुनियादी शिक्षा की बदहाली की तस्वीर बयां कर रही हैं, बल्कि इसने भारत को ‘विश्व गुरु' बनाने के सपने के दिवालिया होने और शिक्षा व्यवस्था में समाहित बुनियादी समस्याओं तथा प्राथमिक शिक्षा के गिरते स्तर की तरफ देश के नीति-नियंताओं का ध्यान भी खींचा है। सर्वेक्षण में देश के 1641 गांवों के पच्चीस हजार से अधिक घरों में रहने वाले करीबन तीस हजार से ज्यादा किशोरों को शामिल किया गया था। सर्वेक्षण के बाद जो तस्वीर उभरकर सामने आई है उसके मुताबिक चौदह फीसद किशोरों को भारत के मानचित्र की सही जानकारी नहीं है, जबकि इक्कीस फीसद को अपने राज्य का नाम भी नहीं पता है। छत्तीस फीसद किशोर ऐसे हैं जिन्हें देश की राजधानी मालूम नहीं है, जबकि साठ फीसद ग्रामीण युवा कंप्यूटर-इंटरनेट के मामले में अब तक निरक्षर हैं। सर्वेक्षण में किशोरों से सामान्य ज्ञान, अंकगणितीय कौशल और दैनिक जीवन से जुड़े प्रश्न भी पूछे गए। सर्वे में शामिल किए गए युवाओं में से करीब पच्चीस फीसद ऐसे हैं जो अपनी भाषा में एक सरल पाठ को धाराप्रवाह रूप में नहीं पढ़ सकते। इसके अलावा आधे से ज्यादा युवा ऐसे हैं जिन्हें गुणा-भाग करने में कठिनाई होती है।


प्राथमिक शिक्षा देश की शिक्षा-व्यवस्था का आधार है। इसे दुरुस्त किए बिना माध्यमिक और उच्च शिक्षा के स्वर्णिम भविष्य की कल्पना नहीं की जा सकती। दरअसल, प्राथमिक शिक्षा का गुणात्मक विकास करके ही नागरिकों और राष्ट्र को उन्नति के पथ पर अग्रसर रखा जा सकता है। भारत में बुनियादी शिक्षा की कल्पना सर्वप्रथम महात्मा गांधी ने की थी। 1937 में वर्धा में आयोजित अखिल भारतीय शैक्षिक सम्मेलन में गांधीजी ने भारतीय शिक्षा में सुधार के लिए ‘नई तालीम' नामक योजना पेश की थी, जिसे बाद में ‘बुनियादी शिक्षा' और ‘वर्धा योजना' भी कहा गया। गांधीजी ने बच्चों को राष्ट्रव्यापी, नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने का प्रस्ताव रखा था। इसके अलावा, वे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, मातृभाषा में शिक्षा तथा रोजगारपरक शिक्षा के हिमायती थे। हालांकि वर्ष 2009 में संसद से शिक्षा का अधिकार अधिनियम (आरटीई) पारित कर देश में छह से चौदह साल के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने की संवैधानिक व्यवस्था लागू तो कर दी गई, लेकिन बच्चों को विद्यालय से जोड़ने तथा शिक्षकों के रिक्त पदों को भरने में उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई है। देश को अब भी नौ लाख शिक्षकों की जरूरत है। कई राज्यों में शिक्षकों की नियुक्तियां अटकी हुई हैं, जिसे भरने में राज्य सरकारें ढुलमुल रवैया अपनाती रही हैं। सरकार ने छात्र और शिक्षक का अनुपात 40:1 निर्धारित किया हुआ है, लेकिन कई सरकारी स्कूलों में यह अनुपात अत्यंत चिंताजनक है। कहीं जरूरत भर के शिक्षक नहीं हैं, तो कहीं बच्चों की उपस्थिति ही कम है। समय पर कभी छात्रों तो कभी शिक्षकों का विद्यालय नहीं पहुंचना तथा गैर-शैक्षणिक कार्यों को शिक्षकों के कंधे पर डालना भी एक प्रमुख समस्या रही है।


दरअसल, बाजारवाद की गिरफ्त में समाती शिक्षा, कुकुरमुत्ते की तरह गली-गली में खुलते निजी विद्यालयों तथा सरकारी उपेक्षा की वजह से बुनियादी शिक्षा निरंतर हाशिये पर जाती रही है। सरकारी स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं के अभाव तथा पढ़ाई-लिखाई के स्तर में गिरावट की वजह से अभिभावक अपने बच्चों के लिए निजी और कॉनवेन्ट स्कूलों की तरफ देख रहे हैं। एक समय था जब सरकारी स्कूलों को सम्मान की नजर से देखा जाता था, लेकिन आज उसे उपेक्षा के भाव से देखा जा रहा है। मैंने भी अपनी प्राथमिक शिक्षा गांव के ही सरकारी विद्यालय से प्राप्त की थी। तब स्थिति इतनी चिंताजनक नहीं थी, लेकिन आज स्थिति यह है कि बमुश्किल पांच से सात बच्चे विद्यालय आ रहे हैं। भोजन वितरण (मिड-डे मील) के बाद बच्चों का चंपत हो जाना भी आम बात है।प्राथमिक विद्यालय की निकटतम उपलब्धता के बावजूद, कक्षा में बच्चों की उपस्थिति कम नजर आ रही है। स्कूल के समय, बच्चे या तो खेलते नजर आ जाते हैं या घर के कामों में बड़ों का हाथ बंटाते। साठ लाख बच्चे आज भी स्कूली शिक्षा से महरूम हैं। आलम यह है कि ‘मध्याह्न भोजन योजना', छात्रवृत्ति तथा मुफ्त पाठ्य-पुस्तकों के वितरण की व्यवस्था भी सरकारी स्कूल में बच्चों को रोके रखने में सफल नहीं हो पा रही है। वहीं, ग्रामीण विद्यालयों में विद्यालय-परित्यक्त छात्रों की संख्या का दिनोंदिन बढ़ना भी चिंता की बात है। सरकारी स्कूलों में आधारभूत संरचना की कमी, शौचालय के न होने या उसकी बुरी स्थिति में होने से लड़कियां स्कूल जाने से कतराती हैं। जबकि प्राथमिक स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा न दिए जाने के कारण आज निम्न आय वाले परिवारों के अभिभावक भी अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेजना ही श्रेयस्कर समझ रहे हैं।


दूसरी तरफ, समाज के उपेक्षित वर्ग के बच्चों की नामांकन संख्या में बढ़ोतरी न होना भी नीति-निर्माताओं का सिरदर्द बन गया है। सच्चाई यह भी है कि सरकारी विद्यालय दिनोंदिन अपनी चमक खोते जा रहे हैं। इन विद्यालयों से अनियमितता की लगातार शिकायतें आ रही हैं। सवाल गंभीर है कि आखिर सरकारी विद्यालयों के लिए तमाम अनुदान और सहायता के बावजूद गुणवत्तापूर्ण शिक्षा बच्चों की पहुंच से कोसों दूर क्यों है? जबकि सरकारी विद्यालयों पर ग्रामीण भारत की एक बड़ी आबादी निर्भर है!इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सरकारी विद्यालयों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा बहाली का एक असाधारण सुझाव दिया था, लेकिन उक्त आदेश कितना लागू हुआ है, समझा जा सकता है। काश! हमारे राजनीतिक, नौकरशाह और अन्य अधिकारी अपने बच्चों को इन विद्यालयों में दाखिल कराते, तो वाकई चंद माह में स्थिति सुधर सकती थी। लेकिन इसकी फिक्र किसे है? शिक्षा व्यवस्था से जुड़े लोगों का ध्यान केवल बच्चों की विद्यालयी उपस्थिति और साक्षरता दर बढ़ाने पर है। लेकिन राज्य में पर्याप्त संख्या में शिक्षक नियुक्ति हैं या नहीं? विद्यालयों में नियमित रूप से शिक्षक आते हैं या नहीं? आते हैं तो क्या पढ़ाते हैं? इन सब मुद््दों से किसी नेता या अधिकारी को तनिक भी सरोकार नहीं रहा। नतीजा? ‘असर' की रिपोर्ट से जाहिर है।


एसोचैम की एक रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि भारत यदि अपनी मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में प्रभावशाली बदलाव नहीं करता है तो विकसित देशों की बराबरी करने में उसे छह पीढ़ियां यानी करीब सवा सौ साल लग जाएंगे। गौरतलब है कि भारत अपनी शिक्षा व्यवस्था पर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का महज 3.83 फीसद हिस्सा खर्च करता है, जबकि अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी में यह हिस्सेदारी क्रमश: 5.22 फीसद, 5.72 फीसद और 4.95 फीसद है। हालांकि इस संबंध में संयुक्त राष्ट्र का मानक यह है कि हर देश शिक्षा व्यवस्था पर अपने जीडीपी का कम से कम छह फीसद खर्च करे। देश में शिक्षा सुधारों के लिए डीएस कोठारी की अध्यक्षता में 1964 में गठित कोठारी आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में कुल राष्ट्रीय आय का छह फीसद शिक्षा पर व्यय करने का सुझाव दिया था। जबकि वास्तविकता यह है कि इस क्षेत्र में महज तीन से चार फीसद ही राशि आबंटित हो पाती है। बहरहाल, देश की मौजूदा शिक्षा प्रणाली में व्यापक परिवर्तन की दरकार है।