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प्रेस की एकजुटता-- राजेश जोशी

पिछले शुक्रवार को दिल्ली के प्रेस क्लब में पूर्व मंत्री, लेखक और संपादक अरुण शौरी ने ऐसा क्या कह दिया कि हंगामा खड़ा हो गया? एनडीटीवी पर सीबीआइ के छापों का विरोध करने के लिए हुई पत्रकारों की बैठक में कुलदीप नैयर, प्रणय रॉय, शेखर गुप्ता, राज चेंगप्पा भी बोले थे, लेकिन अरुण शौरी एकमात्र वक्ता थे, जिन्होंने सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निशाने पर लिया. उन्होंने अपने भाषण में नरेंद्र मोदी के खिलाफ पांच बातों को साफ तौर पर कहा :-

एक- शायर हबीब जालिब और गुरुग्रंथ साहब के हवाले से उन्होंने कहा कि सत्ता चला रहे आदमी को चाहे अपने खुदा होने पर कितना भी यकीन क्यों न हो, पर एक दिन वह भी चला जाता है. राम गये, रावण गये, ये भी जायेंगे. दो- देश में भय का माहौल बन गया है और लोग कुछ करने से पहले सोचते हैं कि कहीं नरेंद्र मोदी को पता न चल जाये या अमित शाह को पता न चल जाये. तीन- मोदी सरकार ने पहले मीडिया को विज्ञापन देकर उसका मुंह बंद करने की कोशिश की और अब भय का वातावरण बना दिया है. चार- प्रेस की आवाज दबाने का प्रतिकार करने के लिए मोदी के मंत्रियों की प्रेस कॉनफ्रेंस का बॉयकाट करना चाहिए. पांच- मोदी के जिन मंत्रियों को लिखना नहीं आता, उनके बड़े-बड़े लेख अखबारों में क्यों छापे जाते हैं?

अपनी बात की शुरुआत में अरुण शौरी ने कहा- ‘मैं नरेंद्र मोदी को धन्यवाद देता हूं कि उनके कारण इतनी बड़ी संख्या में पुराने दोस्त यहां इकट्ठा हुए हैं.' मंच पर वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर, एचके दुआ, शेखर गुप्ता, प्रणय रॉय के साथ कानूनविद् फली एस नरीमन आदि वे लोग बैठे थे, जिनमें से ज्यादातर ने इंदिरा गांधी की इमरजेंसी का दौर देखा था, जब प्रेस की आवाज दबा दी गयी थी.

अरुण शौरी और कुलदीप नैयर जैसे पत्रकार 1988 में भी इसी तरह एकजुट हुए थे, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने मानहानि कानून लाकर प्रेस (तब प्राइवेट टीवी चैनल नहीं थे) पर लगाम लगाने की कोशिश की थी. लेकिन, तब प्रेस की एकजुटता का असर यह हुआ कि हर शहर में राजीव गांधी के मंत्रियों से पत्रकार पूछने लगे कि आप मानहानि विधेयक का समर्थन करते हैं या विरोध.

अरुण शौरी ने याद किया कि अगर मंत्री इस विधेयक का समर्थन करते, तो सभी पत्रकार चुपचाप उठ कर प्रेस कॉन्फ्रेंस से बाहर आ जाते. इसी दबाव के कारण अंतत: राजीव गांधी को मानहानि विधेयक वापिस लेना पड़ा. और फिर शौरी ने प्रेस क्लब में मौजूद पत्रकारों से नरेंद्र मोदी के मंत्रियों के लिए भी यही नुस्खा अपनाने को कहा. उन्होंने कहा कि मंत्रियों की प्रेस कॉन्फ्रेंस का ‘बॉयकॉट कीजिये.' शौरी ने मोदी सरकार पर सीधे आरोप लगाया कि उसने विज्ञापन देकर पहले मीडिया का मुंह बंद किया.

अरुण शौरी के ऐसे तेवर इमरजेंसी के दौर में दिखते थे, जब वो इमरजेंसी और उसके बाद के दिनों में मानवाधिकार आंदोलनों में सक्रिय थे और सरकारें उन्हें चुप कराने की कोशिश करती थीं.

अस्सी के दशक में इंडियन एक्सप्रेस के संपादक के तौर पर उन्हें हिंदुस्तान का सबसे बड़ा प्रतिष्ठान विरोधी पत्रकार माना जाता था. अस्सी के दशक में जब इंडियन एक्सप्रेस के कर्मचारियों ने हफ्तों तक हड़ताल करके अखबार बंद कर दिया, शौरी ने इसे प्रधानमंत्री राजीव गांधी और कांग्रेस पार्टी की साजिश बताया. हड़ताल को तोड़ने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. शौरी ने हड़ताली कर्मचारियों का घेरा तोड़ने के लिए लाये गये लोगों के जुलूस का खुद नेतृत्व किया और उस रात पुलिस के पहरे में अखबार निकाला गया. सुबह उसमें अरुण शौरी का संपादकीय छपा जिसका शीर्षक था- गुड मॉर्निंग, मिस्टर प्राइम मिनिस्टर!

सत्ता-प्रतिष्ठान के इतना खिलाफ रहनेवाले अरुण शौरी फिर पत्रकारिता छोड़ कर भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गये थे और अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें अपने कैबिनेट में प्राइवेटाइजेशन विभाग का मंत्री बनाया. कुछ समय के लिए वे बीजेपी के प्रवक्ता भी रहे और 11 अशोक रोड में कई प्रेस कॉन्फ्रेंसों के दौरान उन्होंने अपनी पार्टी का कई मौकों पर बचाव किया. तब भी बीजेपी हिंदुत्व की विचारधारा में यकीन करती थी और तब ओड़िशा और झाबुआ से ईसाई चर्चों पर हमलों की खबरें आती थीं. राम जन्मभूमि को लेकर बीजेपी की वही समझ आज भी है. अरुण शौरी कैसे नरेंद्र मोदी के खिलाफ इतने मुखर हो गये? शौरी ने मोदी का विरोध कई बार किया है.

उनके विरोधी उन्हीं की कही जुलू कहावत उन्हें याद दिलाते हैं कि अगर नरेंद्र मोदी सरकार में उन्हें कोई जगह मिली होती, तो शौरी खामोश रहते. मोदी ने आडवाणी, जोशी और यशवंत सिन्हा की तरह शौरी को भी किनारे कर दिया. संघ परिवार से गर्भनाल का संबंध आडवाणी-जोशी को मुंह बंद रखने पर मजबूर करता है. पर, शौरी अगर अपनी पर उतारू हो गये, तो हर फोरम पर बोलने, लिखने और मोदी और उनके मंत्रियों का मखौल उड़ाने से उन्हें कौन रोकेगा?