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फसल किसकी और फायदा किसे? - देविंदर शर्मा

मुझे प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना से बहुत उम्मीदें थीं। गए साल बेमौसम बारिश-ओलावृष्टि से उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र में बड़ी मात्रा में फसलें तबाह हो गई थीं। कई किसानों ने आत्महत्या कर ली थी। ऐसे में किसान उत्सुकतावश नई फसल बीमा योजना की ओर उम्मीद भरी नजरों से देख रहे थे। हालांकि नई योजना को सरकार की ओर से गेमचेंजर बताया गया, लेकिन मैं जब इसकी गहराइयों में गया तो निराशाजनक तस्वीर सामने आई। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना बीमा कंपनियों के लिए बड़ा उपहार है, किसानों के लिए नहीं।

सबसे पहले इस बात की पड़ताल करते हैं कि बीमा कंपनियां इससे किस तरह मालामाल होंगी। वर्ष 2015 में बीमा कंपनियों ने किसानों से प्रीमियम के रूप में 1500 करोड़ रुपए कमाई की। केंद्र और राज्यों की ओर से सब्सिडी के रूप में उन्हें 5500 करोड़ मिले। इस प्रकार उन्हें कुल सात हजार करोड़ रुपए हासिल हुए। आगामी 1 अप्रैल से प्रभाव में आने वाली नई योजना के तहत किसानों द्वारा भरी जाने वाली प्रीमियम की राशि बढ़कर 2000 करोड़ होने की संभावना है। इसके साथ ही केंद्र 8800 करोड़ मुहैया कराएगा। इतना ही राज्यों की ओर से मिलने की उम्मीद है। इस प्रकार प्रीमियम की कुल राशि 19600 करोड़ रुपए हो जाएगी। कहां पहले बीमा कंपनियों को 7000 करोड़ मिल रहे थे, लेकिन अब 19600 करोड़ मिलेंगे। ऐसे में यह योजना किसानों के बजाय बीमा कंपनियों के लिए गेमचेंजर है।

अब इस बात पर विचार करते हैं कि यह योजना किसानों के लिए कैसे काम करेगी? इस योजना के तहत किसान बीमा राशि का रबी फसलों के लिए 1.5 फीसदी, खरीफ फसलों के लिए 2 फीसदी और बागवानी फसलों के लिए 5 फीसदी रकम प्रीमियम के रूप में भुगतान करेंगे। इससे पहले राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना (एनएआईएस) के तहत किसान बीमा राशि का गेहूं के लिए 1.5 फीसदी और रबी फसलों के लिए 2 फीसदी रकम प्रीमियम के रूप में भर रहे थे। मानसून के महीने में खरीफ फसलों जैसे धान और दलहन के लिए 2.5 फीसदी, लेकिन जोखिम वाले बाजारा और तिलहन के लिए प्रीमियम की राशि 3.5 फीसदी थी। बागवानी फसलों के लिए प्रीमियम की राशि फसल की प्रकृति और क्षेत्र के आधार पर तय की जाती थी। नई फसल बीमा योजना में ज्यादा बदलाव नहीं है, लेकिन बीमा की प्रीमियम राशि में एकरूपता एक अच्छा कदम है। बैंककर्मियों ने मुझे बताया है कि बीमा कंपनियां एक सीजन में सिर्फ एक बार प्रीमियम का हिस्सा लेने के लिए ही बैंक आती हैं। उनको पता नहीं होता कि किसान ने कौन-सी फसल बोई थी। नई फसल बीमा योजना को भी इन्हीं बीमा कंपनियों के हवाले किया जाएगा। जाहिर है, व्यवस्था में कोई ठोस बदलाव नहीं किया गया है। दरअसल प्रीमियम की लागत के कारण किसान फसल बीमा के प्रति अनिच्छा नहीं जताते।

उनकी इसमें अरुचि की बड़ी वजह यह है कि फसल खराब होने के बाद बीमा के लिए दावा करने की प्रक्रिया काफी जटिल है। हाल में एक समाचार पत्र में एक सर्वे रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी, जिसमें बताया गया था कि राजस्थान के चार जिलों के दो सौ विधानसभा क्षेत्रों में 85 फीसदी किसानों को पिछले चार सालों में एक बार भी बीमा की राशि नहीं मिली है। राजस्थान विधानसभा के अनुसार 2010 से 2014 के बीच बीमा कंपनियों की कुल आय 1234 करोड़ रुपए थी। 3.14 करोड़ किसानों ने प्रीमियम भरा, लेकिन सिर्फ 1.84 करोड़ किसानों के दावे का निपटारा हो पाया, अर्थात बीमा का लाभ मिला। बाकी 1.30 करोड़ किसान बीमा कंपनियों के दफ्तरों का चक्कर लगाते रह गए और कहीं कोई सुनवाई नहीं हुई।

सबसे बड़ा दोष फसल के औसत नुकसान का निर्धारण करने के तरीके में है। पूर्व में नुकसान झेलने वाले किसान द्वारा दी जाने वाली जानकारी के आधार पर ही ब्लॉक या तालुका स्तर पर औसत नुकसान की गणना होती थी। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में भी एक गांव या गांव पंचायत को ही बीमा इकाई के रूप में दर्शाया गया है। इसका अर्थ हुआ कि ओलावृष्टि या आंधी से तबाह हुए एक किसान के नुकसान की भरपाई करने के बजाय एक पूरे गांव में फसल उत्पादन में औसत हानि के आधार पर उसको दी जाने वाली मुआवजा की राशि तय होगी। किसानों का फसल बीमा से दुराव होने की मुख्य वजह यही है। मैंने हमेशा इस दोषपूर्ण तरीके पर सवाल उठाया है।

जब एक आवासीय कॉलोनी में किसी एक घर में आग लग जाती है तो मालिक को उसके दावे के आधार पर भुगतान होता है। कृषि क्षेत्र में भी यही तरीका क्यों नहीं अपनाया जाना चाहिए? आखिरकार कुल बीमा का साठ फीसद पूरे देश में जोखिम वाले पचास जिलों में ही किया जाता है। देश में ग्यारह बीमा कंपनियां इस कारोबार में शामिल हैं। इन कंपनियों को प्रत्येक किसान के जोतों के नुकसान का आंकड़ा जुटाने के निर्देश क्यों नहीं दिए जा सकते? इन पचास जिलों में इसकी शुरुआत की जाए तो प्रत्येक कंपनी हर पांच गांव के हरेक खेत में नुकसान का आंकड़ा जुटा सकती है। वास्तव में बीमा कंपनियों को प्रत्येक खेत में नुकसान की भरपाई करने का आदेश नहीं देना ही संदेह का असली कारण है। व्यावहारिकता की कसौटी पर देखें तो नई योजना पहले से चली राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना की रीपैकेजिंग है। अधिकांश समस्याएं कुछ साल पहले संशोधित राष्ट्रीय फसल बीमा योजना की शुरुआत के साथ ही चली आ रही थीं। अधिकतर राज्य जिन्होंने इसे अपनाया था, अब उससे हाथ खींच चुके हैं।

फसलों के नुकसान का आकलन करने के लिए तकनीक का उपयोग निश्चित रूप से एक स्वागतयोग्य कदम है, लेकिन सिर्फ ड्रोन और स्मार्टफोन के जरिए क्षति की सही तस्वीर सामने नहीं आ सकती। नुकसान की गणना जमीनी स्तर पर ही करना पड़ती है। फसलों की कटाई का प्रयोग नुकसान का आकलन करने का अच्छा तरीका है। इसमें औचक तौर पर एक निश्चित क्षेत्र में फसलों की कटाई कर संभावित पैदावार और वास्तविक पैदावार के अनुपात के जरिए नुकसान का आकलन किया जाता है।

मुझे लगता है हरियाणा सरकार ने फसल बीमा योजना का जो खाका खींचा है, वह कई दृष्टिकोण से बेहतर है। हरियाणा ने भी तकनीक के उपयोग की योजना बनाई है। उसने पहले पहले चरण में उपग्रह से तस्वीर लेने की बात की है। इसके अलावा प्राकृतिक आपदा के 48 घंटों के भीतर उपग्रह से प्राप्त आंकड़ों के परीक्षण के लिए एक टीम बनाई है। इसमें ब्लॉक स्तर के संबंधित अधिकारियों सहित तहसीलदार भी सदस्य के रूप में शामिल होंगे। दूसरे चरण में दो टीमों द्वारा तुरंत उसका प्रत्यक्ष सत्यापन किया जाएगा। एक टीम में पटवारी और नंबरदार होंगे तथा दूसरी टीम में सरपंच और कृषि विकास अधिकारी। यह निश्चित रूप से भ्रष्टाचार के अवसरों को न्यूनतम कर देगा, जो कि पूर्व में नुकसान का जायजा लेने पर सामने आते थे।

(लेखक कृषि व खाद्य नीतियों के जानकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं