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फसल के दाम का सच-- योगेन्द्र यादव

कल रात एक छोटा-सा वीडियो देखा, कुछ ही मिनट का रहा होगा. इस वीडियो में महाराष्ट्र के जालना जिले का एक किसान अपने खेत में लगी गोभी की फसल को तहस-नहस कर रहा है. किसान का नाम है- प्रेमसिंह लखीराम चव्हाण. कहानी यह है कि खरीफ में कपास की फसल बरबाद होने के बाद प्रेमसिंह ने अपने खेत में टमाटर और गोभी लगाये.

लेकिन, जब चार क्विंटल टमाटर बाजार में बेचने गया, तो मिले सिर्फ 442 रुपये, और बाजार ले जाने का 600 रुपये खर्च हुआ. फसल उगाने का 25,000 रुपये का खर्चा अलग. इस हताशा और क्षोभ में वह फावड़ा उठाता है और खेत में खड़ी गोभी की फसल को भी नष्ट कर देता है.


जालना के इस किसान की कहानी पूरे देश के किसान की दोहरी त्रासदी का एक नमूना भर है. सूखे, अतिवृष्टि या बीमारी के चलते अगर फसल खराब हो गयी, तो किसान मारा गया. और अगर फसल अच्छी हुई, तो भाव नहीं मिलता, तब भी किसान मारा गया.

इस साल बजट के बाद प्रधानमंत्री ने किसानों को वादा किया था कि सरकार उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) दिलाने की विशेष व्यवस्था करेगी. पिछले दो महीने से प्रधानमंत्री अपने हर भाषण में किसान को उनकी फसल का उचित दाम दिलाने का दावा कर रहे हैं.


सरकार के इस दावे की जांच करने के लिए 'एमएसपी सत्याग्रह' के तहत पिछले दस दिन से स्वराज अभियान के जय किसान आंदोलन और अन्य किसान संगठनों के साथियों सहित मैं अलग-अलग राज्यों में मंडियों में गया.

हर मंडी में बाजार भाव की जांच की, किसानों, व्यापारियों और सरकारी अफसरों से बात की और सरकारी खरीद को देखा. शुरुआत कर्नाटक की यादगीर मंडी से हुई, फिर आंध्र प्रदेश में अदोनी और तेलंगाना में सूर्यपेट फिर राजस्थान में श्रीगंगानगर और रायसिंहनगर तथा हरियाणा में रेवाड़ी की मंडी में जांच की. इस बीच देश के बाकी इलाकों की मंडियों की खबर भी लेता रहा.

हालांकि, अभी तो रबी की खरीद की शुरुआत ही है, लेकिन अब तक हमें कोई एक भी मंडी ऐसी नहीं मिली, जहां सभी किसानों की पूरी फसल सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य पर या इससे अधिक पर खरीदी गयी हो.

अब तक पिछले खरीफ मौसम की तीन फसलें यानी अरहर (तुर दाल) मूंगफली और कपास बिक रही थी. अब तक सबसे बेहतर स्थिति कर्नाटक में तूर दाल की दिखायी दी, जहां लगभग आधी फसल राज्य सरकार द्वारा घोषित विशेष दाम यानी ₹6,000 रुपये पर खरीदी गयी. वहां भी किसानों की शिकायत थी कि सरकारी खरीद जल्द ही बंद कर दी गयी और उन्हें खुले बाजार में ₹4,000 रुपये से भी कम दाम पर बेचनी पड़ी. मूंगफली की खरीद के बारे में भी कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के किसानों की शिकायत थी कि थोड़ी सी खरीद के बाद सरकार ने अपनी खरीद बंद कर दी.

समर्थन मूल्य₹ 4,450 रुपये था, लेकिन किसान को 3,600 से ₹3,700 रुपये के बीच में ही बेचनी पड़ी. कहने को कपास का दाम एमएसपी से अधिक चल रहा है, लेकिन असमय बारिश और गुलाबी बोलवर्म नामक कीड़े के कारण अधिकांश फसल एमएसपी पर बिकने लायक ही नहीं थी.

रबी मौसम की फसलों में अभी सरसों, चना और जौ बाजार पहुंचना शुरू हुआ है. गेहूं और मसूर में अभी देर है. इस बार चने की शानदार फसल हुई है, लेकिन इसका और बड़े पैमाने पर विदेशों से हुए आयात का नतीजा यह है कि किसान सरकार द्वारा घोषित समर्थन मूल्य ₹4,400 से लगभग ₹1,000 कम पर बिक रहा है.

जौ की फसल राजस्थान में तैयार खड़ी है और सरकारी दाम ₹ 1,410 रुपये से कम-से-कम ₹200 रुपये नीचे, यानी 1,200 रुपये या उससे भी कम पर बिक रही है. सरसों में इस बार दाम में उछाल आने की अपेक्षा थी, लेकिन अब तक यह फसल सरकारी समर्थन मूल्य ₹4,000 रुपये के मुकाबले ₹3,500 से ₹3,700 रुपये के बीच बिक रही है. यानी कि अब तक इस मौसम में एक भी फसल में किसान को प्रधानमंत्री के वायदे के अनुरूप भाव नहीं मिल रहा है.

जब बाजार भाव सरकारी समर्थन मूल्य से कम हो, तो सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह अपनी गारंटी को पूरा करे और बाजार में खरीद शुरू करे.

लेकिन, जमीन पर यह सफल होता दिखासी नहीं पड़ता है. जौ की फसल पर राजस्थान सरकार ने खरीद करने से इनकार कर दिया है. श्रीगंगानगर में इस सवाल पर किसानों ने बड़ा आंदोलन शुरू कर दिया है. चना और सरसों की खरीद की घोषणा तो कई राज्यों में हुई है, लेकिन हर तरफ सरकारी खरीद में तरह-तरह के लोच हैं.

सरकारी खरीद शुरू इतनी देर से हो रही है कि तब तक अधिकतर किसान अपनी फसल सस्ते दाम पर बेच कर लुट चुके होंगे. किसान कहते हैं कि सरकारी खरीद में तो किसान नहीं, व्यापारी का फायदा है. वे किसान से खरीदी सस्ती फसल को सरकारी भाव पर बेच देते हैं.

कितनी फसल खरीदी जाये, इस पर राज्य सरकारों ने सीमा बांध रखी है. एक तरफ तो सरकार किसानों को अधिक उत्पादन करने के लिए कहती है, दूसरी तरफ ज्यादा उपज की उन्हें यह सजा मिलती है कि वह खरीदी नहीं जायेगी. हर राज्य में सरकारी खरीद के लिए रजिस्ट्रेशन, आधार कार्ड, बैंक पासबुक, कृषि अधिकारी का प्रमाणपत्र, गिरदावरी और न जाने कितने कागजी कार्यवाही में उलझाकर रखा जाता है.

बटाई या ठेके पर खेती करनेवाले छोटे किसान के पास यह दस्तावेज हो नहीं सकते, इसलिए उनकी फसल की सरकारी खरीद नहीं होती. जहां सरकार खरीद कर भी लेती है, वहां महीने दो महीने तक किसान को पैसे का भुगतान नहीं किया जाता. कुल मिलाकर सरकारी खरीद का तंत्र ऐसा बनता है कि किसान झक मारकर सस्ते में अपनी फसल बाजार में बेचने पर मजबूर हो जाता है.

'एमएसपी सत्याग्रह' के इस पहले चरण ने तो यही सिखाया है कि प्रेमसिंह जैसे किसानों की त्रासदी की जड़ में बाजार नहीं सरकार है, अर्थव्यवस्था का खोट नहीं राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है. यानी किसान जब तक अपनी ताकत नहीं दिखाता, तब तक उसे अपनी फसल का सही दाम हासिल नहीं होगा. यहां महाराष्ट्र ही में नासिक से मुंबई तक हुआ किसान मार्च देश में एक बड़े किसान आंदोलन की आहट देता है.