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फसल बीमा योजना घोटाला-- योगेन्द्र यादव

पिछले दो साल में मैंने सरकार की फसल बीमा योजना के बारे में यह बात कई बार सुनी है कि- 'भाई साहब, यह किसान की फसल का बीमा नहीं है. यह तो बैंकों ने अपने लोन का बीमा करवाया है.' साल 2015 से लेकर अब तक जय किसान आंदोलन के साथियों के साथ मिल कर मैंने देशभर में ‘किसान मुक्ति यात्रा' की. ये यात्राएं उन्हीं इलाकों में हुईं, जहां किसानों पर सूखे या बाजार की मार पड़ी थी. हर सभा में मैं पूछता था, 'क्या किसी किसान को बीमे का भुगतान हुआ?' अधिकांश किसानों ने तो बीमे का नाम ही नहीं सुना. जो किसान क्रेडिट कार्ड वाले थे, उनमें से कुछ पढ़े-लिखे किसानों को पता था कि उनके खाते से बीमे का प्रीमियम कटा है. सैकड़ों सभाओं में मुझे एक-दो से ज्यादा किसान नहीं, मिले जिन्हें कभी बीमे का मुआवजा मिला.

धीरे-धीरे मुझे फसल बीमा का गोरखधंधा समझ आने लगा. जिस किसान ने बैंक से लोन लिया है, उसके बैंक खाते से जबरदस्ती बीमा का प्रीमियम काट लिया जाता है.

यही नहीं बीमाधारक किसान को बीमा पॉलिसी जैसा कोई भी दस्तावेज तक नहीं दिया जाता. यानी किसान को पता भी नहीं होगा कि उसका बीमा हो चुका है और उसे कब कितना मुआवजा मिल सकता है. अगर पता लग भी गया, तो मुआवजा लेने की असंभव शर्तें हैं. अगर आपकी फसल बरबाद हो गयी, तो मुआवजा पाने के लिए आपको यह साबित करना पड़ेगा कि आपकी तहसील या पंचायत में कम-से-कम आधे किसानों की फसल भी बरबाद हुई है.

पिछले हफ्ते एक साथ कई सूचनाएं सार्वजनिक होने से फसल बीमा योजना का पर्दाफाश हो गया. महा लेखाकार (सीएजी) ने 2011 और 2016 के बीच तमाम फसल बीमा योजनाओं के ऑडिट की रिपोर्ट संसद के सामने रखी.

और सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसइ) ने प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के पहले साल का मूल्यांकन करते हुए एक रिपोर्ट छापी. साथ में संसद के इस सत्र में सरकार ने प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के नवीनतम आंकड़े सदन के पटल पर रखे. इन तीनों स्रोतों से साफ जाहिर होता है कि सरकारी फसल बीमा योजना किसान के साथ कितना भद्दा मजाक है.

सीएजी का ऑडिट ऑडिट 2011 से 2016 के बीच चल रही तमाम सरकारी फसल बीमा योजनाओं के बारे में है. ‘राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना', ‘संशोधित राष्ट्रीय किसान बीमा योजना', ‘मौसम आधारित फसल बीमा योजना' जैसी इन योजनाओं से किसान का कोई भला नहीं हुआ.

 


दो तिहाई किसानों को सरकारी योजनाओं की जानकारी भी नहीं थी. देश के 22 प्रतिशत किसानों का ही बीमा किया जा सका, वह भी सर्वश्रेष्ठ साल में. बीमाधारकों में 95 प्रतिशत से अधिक किसान वो थे, जिन्होंने बैंकों से ऋण लिया. अधिकतर मामलों में बीमे की राशि ठीक उतनी ही थी, जितना बैंक का बकाया ऋण था. यानी किसान कार्यकर्ताओं की शिकायत वाजिब थी. बैंक मैनेजरों ने ऋण की वापसी सुनिश्चित करने के लिए किसान से बिना पूछे, बिना बताये उनका बीमा करवा दिया.

 

सीएजी की रिपोर्ट इस आरोप की भी पुष्टि करती है कि बीमे का मुआवजा बहुत कम किसानों तक पहुंचा है. कभी सरकार ने अपने हिस्से का प्रीमियम नहीं दिया, तो कभी बैंक ने देरी की. सरकारी और प्राइवेट बीमा कंपनियों ने खूब पैसा बनाया. रिपोर्ट प्राइवेट बीमा कंपनियों के घोटाले की ओर भी इशारा करती है. सरकार ने कंपनियों को पेमेंट कर दिया, लेकिन कंपनियों ने किसान को पेमेंट नहीं किया. कंपनियों से यूटिलाइजेशन सर्टिफिकेट तक नहीं मांगा गया. नियमों का उल्लंघन करते पकड़ी गयी कंपनियों को ब्लैक लिस्ट नहीं किया गया. किन किसानों को पेमेंट हुई, उसका रिकॉर्ड तक नहीं रखा गया.

अगर आप मोदी सरकार से इस रिपोर्ट के बारे में पूछें तो हमारे मंत्री कहेंगे कि यह तो पुरानी बात है. पुरानी योजनाएं अब बंद हो गयी हैं. अब इनके बदले नयी ‘प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना' आ गयी है. केंद्र सरकार ने इस नयी योजना में पिछले साल के तुलना में चार गुना पैसा खर्च किया.

लेकिन बीमाधारी किसानों की संख्या 22 प्रतिशत से बढ़ कर 30 प्रतिशत ही हो पायी. इस योजना में भी लोनधारी किसानों को ही शामिल किया गया. पिछली योजनाओं की तरह छोटे किसान और बटाइदार इस योजना के लाभ से भी वंचित रहे हैं. योजनाओं के नाम बदल जाते हैं, पर सरकारी काम नहीं बदलते.

हां, इस साल कंपनियों ने रिकॉर्ड मुनाफा जरूरकमाया. लोकसभा में 18 जुलाई को दिये गये उत्तर के अनुसार, 2016 की खरीफ फसल ने कंपनियों को किसानों और सरकारों से कुल मिला कर 15,685 करोड़ रुपये का प्रीमियम मिला और अब तक किसानों को सिर्फ 3634 करोड़ रुपये के मुआवजे का भुगतान किया गया.

इसका कारण सिर्फ अच्छी बारिश और फसल नहीं थी. तमिलनाडु में रबी की फसल में पिछले 140 साल का सबसे भयानक सूखा पड़ा. वहां कंपनियों को 954 करोड़ रुपये का प्रीमियम मिला और अब तक सिर्फ 22 करोड़ रुपये के मुआवजे का भुगतान हुआ है.

31 जुलाई को प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के अंतर्गत खरीफ का बीमा करवाने की अंतिम तारीख थी. बीमा कंपनियां, बैंक मैनेजर, सरकारी बाबू और नेता- सब फसल बीमा के लिए लालायित हैं, सिवाय बेचारे किसान के.