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फायदे से ज्यादा होगा नुकसान - जयराम रमेश

निश्चित रूप से 14वें वित्त आयोग की सिफारिशों के आधार पर केंद्रीय करों का बड़ा हिस्सा राज्यों को हस्तांतरित किए जाने का निर्णय एक बड़ा कदम है, जो हाल में पेश किए गए बजट का मुख्य बिंदु रहा है। वित्त आयोग ने सुझाव दिया था कि केंद्र द्वारा वसूले जाने वाले करों का 42 फीसदी हिस्सा राज्यों को दे दिया जाए। अभी तक केंद्र द्वारा राज्यों को 32 प्रतिशत हिस्सा ही दिया जाता रहा है। परंपरागत तौर पर वित्त आयोग एक संवैधानिक निकाय है, जो संविधान के अनुच्छेद 280 के तहत गठित किया जाता है। इसलिए राज्यों के संदर्भ में आयोग जो भी कर अनुपात निर्धारित करता है, उसे केंद्र सरकार मानने के लिए बाध्य होती है। लेकिन वित्त आयोग की सिफारिशों को स्वीकार करने का श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद ले रहे हैं, मानो उन्होंने कोई बड़ा काम कर दिया हो।

यहां यह भी सही है कि कर अनुपात को लेकर एक सदस्य ने असहमति भी जताई और उनका सुझाव था कि यह अनुपात 42 फीसद न होकर 38 फीसद रखा जाना चाहिए, लेकिन चार अन्य सदस्य इसे अधिक बढ़ाए जाने के पक्ष में थे। इसलिए केंद्र के पास इसे स्वीकार करने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं था। इस बदलाव के बारे में वित्त आयोग के चेयरमैन डॉ. वाईवी रेड्डी ने स्वयं स्वीकार किया है कि यह फैसला मात्रात्मक न होकर गुणात्मक है। यदि समग्र रूप में देखा जाए तो इससे राज्यों को लाभ नहीं हुआ है। ऐसा इसलिए, क्योंकि केंद्र द्वारा राज्यों को हस्तांतरित किए जाने वाले सभी संसाधनों में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है, लेकिन जैसा कि डॉ. रेड्डी ने अपने दिए गए कुछ साक्षात्कारों में कहा है कि राज्यों को हस्तांतरित की जाने वाली राशि के संदर्भ में यह एक बुनियादी बदलाव है। इसका आशय यही है कि राज्यों के पास अपने खर्च के लिए अधिक राशि होगी और वे अपनी जरूरतों और समस्याओं के समाधान के मद्देनजर जैसा चाहेंगे वैसा खर्च कर सकेंगे। इसके साथ ही राज्यों में नियोजन अथवा नीति निर्माण अधिक महत्वपूर्ण होगा। यह इसके बावजूद होगा कि प्रधानमंत्री ने अपनी जिद के चलते योजना आयोग को खत्म कर दिया है।

जो भी हो, राज्यों को अधिक हिस्सेदारी के संदर्भ में वित्त आयोग की सराहना करनी होगी और ऐसा हो भी रहा है। प्रधानमंत्री इसका श्रेय लेने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि यह सुझाव जनवरी 2013 में संप्रग सरकार के समय में गठित वित्त आयोग का है। इसमें कहीं कोई संदेह नहीं कि प्रधानमंत्री अपने जिस सहयोगात्मक संघवाद के मंत्र का बार-बार उल्लेख कर रहे हैं उसे 1996-97 में संयुक्त मोर्चा गठबंधन सरकार के रूप में बहुत कम समय के लिए सत्ता में रही एचडी देवेगौड़ा सरकार ने सबसे पहले दिया था। यह विचार अब अधिक लोकप्रिय हो रहा है। वास्तव में फरवरी 1997 में संयुक्त मोर्चा सरकार के बजट में (तत्कालीन वित्तमंत्री पी. चिदंबरम द्वारा प्रस्तुत किए गए) एकल और करों के विभाजक पूल का विचार दिया गया था, जिसे 10वें वित्त आयोग की सिफारिशों में स्वीकार किया गया। इसके तहत ही राज्यों को केंद्रीय करों में 29 फीसद हिस्सा देना सुनिश्चित हुआ। राज्य आमतौर पर खुद को मिलने वाले हिस्से के द्वारा पूर्ववर्ती वित्त आयोग के फैसलों की तुलना करते हैं कि उन्हें लाभ हुआ या नुकसान।

यदि कठोरता के साथ कहा जाए तो यह नजरिया सही नहीं, क्योंकि अलग-अलग वित्त आयोगों ने अलग-अलग राज्यों को दिए जाने वाले इस अनुपात का निर्धारण अलग-अलग फॉर्मूले के आधार पर किया है। 14वें वित्त आयोग द्वारा इस्तेमाल किया गया फॉर्मूला वही नहीं है जो उसके पूर्ववर्ती वित्त आयोग ने किया था। उदाहरण के तौर पर डॉ. रेड्डी आयोग ने वन आच्छादित क्षेत्र के आधार पर 7.5 फीसद का लाभ दिया है, जो कि 13वें वित्त आयोग द्वारा नहीं किया गया था। इसके परिणामस्वरूप उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे कम वन रखने वाले कुछ बड़े राज्य शिकायत कर रहे हैं कि वर्तमान केंद्रीय कर हस्तांतरण व्यवस्था से उन्हें नुकसान हुआ है। यह हुआ है, लेकिन मूल्यांकन के आधार में भी बदलाव हुआ है।

यह कहना गलत नहीं होगा कि 42 फीसद हिस्सा मिलने की ऊंची कीमत भी चुकानी पड़ी है। और यह सब केंद्रीय बजट में कुछ अहम विकास परियोजनाओं और कार्यक्रमों में धन आवंटन में कमी के रूप में किया गया है। कुछ कार्यक्रमों के लिए धन आवंटन में तीव्र कटौती की गई है। कुछ योजनाएं जैसे पिछड़ा क्षेत्र अनुदान कोष (बीआरजीएफ) के तहत दी जाने वाली राशि को पूर्णतया खत्म कर दिया गया है। इसके तहत बिहार को राज्य के बंटवारे के बाद क्षतिपूर्ति के तौर पर 30 फीसद राशि मिलती थी। धारणा यही है कि राज्य इस क्षति से शीघ्र ही बाहर निकल आएंगे और संभवत: वर्ष के अंत तक इस कार्यक्रम अथवा योजना के तहत कुल राष्ट्रीय खर्च में यदि इजाफा नहीं होता तो कम से कम पूर्व की स्थिति बहाल हो जाएगी। इसी तरह लोगों पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालने वाली योजनाएं जैसे राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (आरकेवीवाई), समन्वित बाल विकास सेवा और मध्याह्न भोजन अथवा मिड-डे मील योजना राशि में भी कटौती की गई है।

आश्चर्यजनक रूप से स्वच्छता एवं पेयजल मंत्रालय के बजट को भी आधे से कम कर दिया गया है। स्वच्छ भारत मिशन के लिए दी जाने वाली राशि में कटौती की गई है। सवाल है कि क्या केंद्र की अपेक्षाएं पूरी होंगी और क्या राज्य वास्तव में अपने खर्चों में बढ़ोतरी कर पाने में समर्थ होंगे? इसका पता अगले वर्ष ही चल पाएगा। दुर्भाग्य से बजट में ऐसा कोई संस्थागत तौर-तरीका नहीं है जिससे खर्चों की समीक्षा और निगरानी हो सके ताकि समय रहते जरूरी कदम उठाए जा सकें। नीति आयोग से ऐसी अपेक्षा की जा सकती थी, लेकिन ऐसा लगता है कि यह केवल थिंक टैंक के रूप में काम करेगा। यही कारण है कि योजना आयोग की कमी केंद्र और राज्य, दोनों महसूस करेंगे। 14वें वित्त आयोग में जाने-माने अर्थशास्त्री डॉ. अभिजीत सेन ने इस संदर्भ में अपनी चिंता जताई है, लेकिन इसे अनसुना कर दिया गया।

-लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं