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फास्ट फूड पर नियंत्रण कीजिए-- भरत झुनझुनवाला

उपभोक्ता मामलों के मंत्री रामविलास पासवान ने सुझाव दिया है कि सिगरेट की तरह पिज्जा आदि फास्ट फूड पर भी स्वास्थ के लिए हानिकारक होने की चेतावनी दी जानी चाहिए. इस सुझाव पर गौर किया जाना चाहिए. दक्षिण अमेरिकी देश चिली और इक्वाडोर में ऐसे नियम पहले ही लागू किये जा चुके हैं.

इन देशों द्वारा उपभोक्ताओं को चेतावनी दी जाती है कि फास्ट फूड में चीनी, नमक और फैट की मात्रा अधिक है, मिनरल जैसे शरीर के लिए दूसरे जरूरी तत्व कम हैं. फास्ट फूड का सेवन करने से शरीर में फैट की मात्रा अधिक हो जाती है, मोटापा बढ़ता है और स्वास्थ में गिरावट आती है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार शुगर, हृदय रोग, कैंसर और अस्थमा जैसे रोगों के फैलाव में फास्ट फूड का महत्वपूर्ण योगदान है. इन रोगों से होनेवाली अधिकतर मौतों को रोका जा सकता है, यदि भोजन स्वास्थकारी हो. कुछ समय पूर्व एक कंपनी के नूडल में लेड की मात्रा मानकों से अधिक होने के कारण सरकार द्वारा इनकी बिक्री पर प्रतिबंध लगाया गया था, जो कि उचित ही था. लेकिन वह छोटी बात थी. देश में कई अंतरराष्ट्रीय कंपनियां फास्ट फूड का प्रचलन बढ़ा रही हैं.

बड़ी कंपनियों द्वारा फास्ट फूड के प्रसार के लिए मार्केटिंग स्ट्रैटेजी अपनायी जाती है. बच्चों के टीवी प्रोग्राम के बीच में फास्ट फूड के विज्ञापन दिखाये जाते हैं. फास्ट फूड की पैकेजिंग पर लोकप्रिय कार्टून के चित्र छापे जाते हैं. स्कूलों में मुफ्त सैंपल वितरित किये जाते हैं. इस प्रकार बच्चों को फास्ट फूड के प्रति आकर्षित किया जाता है. इस समस्या का सामना करने में सरकार की आर्थिक नीतियां आड़े आती हैं.

सरकार चाहती है कि विदेशी निवेश को आकर्षित किया जाये, जिससे वैश्विक गुणवत्ता का माल भारतीय उपभोक्ता को मिले. लेकिन यह भुला दिया जाता है कि वैश्विक स्तर पर बड़ी कंपनियों द्वारा जनता को हानिप्रद भोजन परोसा जा रहा है.

ऐसे में वैश्विक गुणवत्ता के खाद्य पदार्थों को उपलब्ध कराने का अर्थ हो जाता है कि भारतीय उपभोक्ता को भी ये हानिप्रद भोजन परोसे जाएं. जैसे एक शीतल पेय कंपनी ने घोषणा की है कि वह भारत में पांच अरब डॉलर का निवेश करेगी. इस कंपनी द्वारा फैक्ट्रियां लगाने से देश में बोतल, डब्बे, लेबर आदि की मांग बढ़ेगी. सरकार को टैक्स भी मिलेगा. लेकिन, फास्ट फूड के अर्थव्यवस्था पर दूसरे नकारात्मक प्रभाव भी पड़ते हैं. जैसे सॉफ्ट ड्रिक्स के सेवन से लोगों का स्वास्थ्य बिगड़ता है.

रोग में वृद्धि होती है. ऐसे में विश्व स्वास्थ संगठन ने अनुमान लगाया है कि शुगर तथा हार्ट के रोगों के कारण भारत को उपरोक्त निवेश से लगभग 20 गुणा अधिक आर्थिक नुकसान होगा. अंतर यह है कि कंपनी द्वारा पांच अरब डॉलर का निवेश प्रत्यक्ष दिखता है, जबकि जनस्वास्थ की हानि के कारण उत्पादन में कमी नहीं दिखती है.

फास्ट फूड पर नियंत्रण करना सरकार की जिम्मेवारी है. यहां व्यक्ति की स्वतंत्रता और उसके हित के बीच संतुलन बनाने की जरूरत है. यह उचित नहीं है कि सरकार तय करे कि लोग क्या पढ़ेगे, क्या पहनेंगे तथा क्या खाएंगे. हर व्यक्ति को अपनी इच्छाओं की पूर्ति का अधिकार है. लेकिन इच्छाओं की धर्मानुकूल पूर्ति तथा स्वेच्छाचारी व्यवहार में मौलिक अंतर है.

लोग अपने ही हित के विपरीत आचरण न करें, इसके लिए धर्म और पुलिस व न्यायालय की व्यवस्था की गयी है. इसी क्रम में सरकार द्वारा शराब तथा अफीम जैसे हानिप्रद पदार्थों की बिक्री तथा विज्ञापन पर प्रतिबंध लगाये जाते हैं. इन प्रतिबंधों से कई लोगों की इच्छाओं की पूर्ति बाधित होती है. लेकिन अल्पदर्शिता के नुकसान से उन्हें बचाने के लिए ही सरकार ऐसे प्रतिबंध लगाती है.
एक कंपनी के नूडल में लेड की मात्रा अधिक होने के कारण सरकार द्वारा उस पर लगाया गया प्रतिबंध इसी दिशा में था. परंतु नूडल स्वयं हानिप्रद है, क्योंकि इसमें फैट अधिक तथा अन्य तत्व कम है. इस तथ्य का संज्ञान नहीं लिया गया है. भारत सरकार द्वारा फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी का गठन किया गया है. यह अथॉरिटी तय करती है कि नूडल में कितना लेड स्वीकार्य है. परंतु स्कूलों में बच्चों द्वारा नूडल की खपत को बढ़ावा देने पर कार्यवाही करना अथॉरिटी के दायरे के बाहर है.

फास्ट फूड के दुष्प्रभावों से जनता को बचाने के लिए कई विकासशील देशों द्वारा कदम उठाये गये हैं. भारत सरकार को भी चाहिए कि इस दिशा में कारगर नियम बनाये. फास्ट फूड की शुद्धता से आगे सोचने की जरूरत है. इससे पूरी जनता को बचाने की जरूरत है. जिस प्रकार फास्ट फूड के नुकसान से बच्चे अनभिज्ञ हैं, वैसे ही वयस्क भी अनभिज्ञ हैं. इसलिए फास्ट फूड क्षेत्र की कंपनियों के निवेश से जनस्वास्थ्य पर होनेवाले प्रभावों का आकलन करके ही सरकार को कोई निर्णय लेना चाहिए. साथ ही फास्ट फूड के नुकसान को छुपाना नहीं चाहिए.