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फिर भारत की खोज-- कुमार प्रशांत

हम खोजते उसे हैं, जिसकी जरूरत तो लगती है, पर वह हमारे पास होती नहीं है; या जो कभी मिली थी और अब खो गई है। भारत के साथ दोनों स्थितियां हैं। दार्शनिक जद्दू कृष्णमूर्ति से कभी किसी ने भारत की खोज करने की ऐसी ही बात की थी, तो उन्होंने पलट कर पूछा था : क्या तुम्हें कहीं कोई भारत मिला? क्या तुमने कहीं भारत की विशालता जितना बड़ा मन पाया? मुझे तो यहां हर कहीं 'ट्राइबल माइंड' ही दिखाई देता है! जद्दू कृष्णमूर्ति जिसे 'ट्राइबल' कह रहे हैं, वह जाति या समुदायसूचक नहीं है, बल्कि वह मनोवृत्ति सूचक है। मतलब यह कि जद्दू कृष्णमूर्ति का भारत संकीर्णताओं में समाता नहीं है। भारतीय मन की पहचान है उसकी उदात्तता। गांधी का भारत कैसा है? गांधी का भारत वह है, जो अपने गहन अनुभव के आंगन में किसी भी आधुनिकतम सोच का पौधा लगाने से न घबराता है और न झिझकता है, क्योंकि उसकी जड़ें, उसकी अपनी मिट्टी में गहरे समाई हुई हैं।

फिर हमें मिलते हैं कविगुरु रवींद्रनाथ ठाकुर। उनका भारत कैसा है? वह प्रार्थनारत होकर उस भारत के गीत गाते हैं, जहां भयमुक्त मन और ज्ञानवान मस्तक एक ऐसे स्वर्ग की रचना करते हैं, जिसमें मनुष्य अपनी पूर्ण संभावनाओं के साथ खिल व खेल सके। और एक भारत लोकनायक जयप्रकाश का भी है, जहां मनुष्य मात्र की स्वाधीनता ऐसी अपूर्व व असीम होगी कि जिस पर किसी राज्य या व्यक्ति की कोई जकड़बंदी नहीं होगी और जिसका सौदा न सत्ता से हो सकेगा, न संपत्ति से। क्या ये सारे भारत अलग-अलग हैं? या यह एक ही वह भारत है, जिसकी मिट्टी से ये महान प्रतिभाएं पैदा हुईं और इसकी महानता में अपना भी कुछ अंश उड़ेल कर तिरोहित हो गईं? 26 जनवरी, 2016 के सूर्य की पहली किरण के साथ हमारे भीतर भी इस खोज और पहचान की कोई किरण उतरे, इस प्रार्थना और कामना के साथ हम सब भी अपने भारत की खोज करें।

ऐसा क्या हुआ कि अपने संविधान की किताब में जो भारत मिलता है, वह यहां के खेतों-खलिहानों, सड़कों-कारखानों, संसद-विधानसभाओं और स्कूलों-कॉलेजों में नहीं मिलता है? सारी मुश्किल शायद वहां से शुरू हुई, जहां से महात्मा गांधी का अवतरण भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में होता है। महात्मा गांधी ने आजादी की लड़ाई को ही जिंदगी बना दिया। गांधी ने कहा : हां, पहले, और सबसे पहले आजादी, पर किसकी आजादी, किससे आजादी और कैसे आजादी भी तय करनी पड़ेगी, क्योंकि इसके बिना आजादी आती ही नहीं है, गुलामी ही रूप बदल कर आ धमकती है।

विधि का विधान ऐसा कि आजाद भारत का संविधान बनाने बैठी संविधान सभा के दो सबसे चमकीली सितारे, जिनके तेज से संविधान सभा चौंधियाती रही थी, वे दोनों एक बात में समान थे कि दोनों ही गांधी से बहुत सावधान थे। संविधान के हर अनुच्छेद, हर व्याख्या और हर व्यवस्था पर जिनकी अमिट छाप रही, वह जवाहरलाल नेहरू और संविधान सभा के सारे निर्णयों को कलमबद्ध करने का विकट काम जिन्होंने अपूर्व प्रतिभा से किया, वह बाबा साहेब अंबेडकर गांधी को समझते भी कम थे, उनसे सहमत भी कम थे और इसलिए उनके विराट व्यक्तित्व से बचने की पूरी सावधानी रखते थे।

शिकायत तब भी नहीं होती, अगर यह संविधान गांधी का भारत न सही, भारत का भारत तो बनाता। अगर यह शहरी सभ्यता और शहरी गति वाला भारत है, तो हमारे शहर बहुत बड़े कूड़ाघर में नहीं बदल गए हैं, जिन्हें स्वच्छ भारत अभियान भी साफ नहीं कर पा रहा है? कृषि को लात मारकर जिस औद्योगिक विकास की माला जपी गई, वह एशिया में ही नहीं, सारी दुनिया में दम तोड़ रहा है और मंदी में छटपटाती वैश्विक अर्थव्यवस्था समझ ही नहीं पा रही है कि वैसे संसाधन कहां से लाएं, कि इसमें जान फूंकी जा सके। हथियारों के बल पर सुरक्षा की खोज ने हमें वहां लाकर खड़ा कर दिया है, जहां अब कोई सुरक्षित नहीं बचा है-स्कूलों में पढ़ने वाली हमारी अगली नस्ल तक हमारे ही निशाने पर है। हमारा संसदीय लोकतंत्र आज इस मुकाम पर आ पहुंचा है कि सारा राजनीतिक विमर्श यहीं अटका हुआ है कि आत्महत्या करने वाला युवक रोहित वेमुला सच्चा और संपूर्ण दलित था या नहीं। इसलिए करनी होगी फिर से भारत की खोज; और यह खोज तभी शुरू होगी और किसी नतीजे पर पहुंचेगी, जब हम में से हर एक के पास उसका अपना भारत होगा। बताइए, आपका भारत कैसा है?