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फिर स्वाइन फ्लू

जनसत्ता(संपादकीय)पिछले कुछ दिनों में दिल्ली में स्वाइन फ्लू से पांच लोगों की मौत हो चुकी है। समझा जा सकता है कि समय पर एहतियाती इंतजाम नहीं करने के क्या नतीजे हो सकते हैं। पिछले चार-पांच सालों में स्वाइन फ्लू एक गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है और इस बीमारी के उभरने के मौसम और बचाव के उपाय आदि को लेकर भी काफी हद तक तथ्य साफ हो चुके हैं। इस बार स्थिति चिंताजनक होने के बावजूद सरकार अब भी स्वाइन फ्लू के मामलों को साधारण बुखार कह रही है। लेकिन इससे मरने वालों की बढ़ती तादाद सच बताने के लिए काफी है। कहने को इस बीमारी से निपटने के लिए राममनोहर लोहिया अस्पताल में जीवन रक्षक प्रणाली की सुविधा से लैस तीस बिस्तरों वाला एक वार्ड अलग से तैयार कराया गया है; इक्कीस चुने हुए सरकारी और निजी अस्पतालों को भी इसके उपचार के लिए मानक संचालन प्रक्रिया का पालन करने का निर्देश दिया गया है। इसके बावजूद इस बार अब तक सांस के संक्रमण से होने वाली बीमारी एनफ्लूएंजा एच1 एन1 यानी स्वाइन फ्लू के इकतालीस मामले सामने आ चुके हैं और समय पर सही इलाज न मिल पाने की वजह से कई लोगों की मौत हो चुकी है। यह स्थिति तब है जब दिल्ली में इस बीमारी से बचाव के लिए कारगर टीका उपलब्ध है। जाहिर है, सक्षम अस्पतालों में भी मरीजों की जान बचाना समय पर इलाज से ही संभव है। हालांकि यह बीमारी अकेले दिल्ली की समस्या नहीं है। इस साल अब तक दिल्ली से ज्यादा लोगों की मौत हैदराबाद में हुई। देश के कई अन्य इलाकों में भी बड़े पैमाने पर लोगों के इसकी चपेट में आने और कइयों के मरने की खबरें आती रही हैं।

स्वाइन फ्लू का फैलाव सबसे पहले मैक्सिको से शुरू हुआ था। भारत में इसका सबसे ज्यादा असर 2010 में सामने आया, जब करीब बीस हजार लोग इसकी चपेट में आए, जिनमें साढ़े सत्रह सौ लोगों की जान चली गई थी। 2013 में भी इस बीमारी के लगभग डेढ़ हजार मामले पाए गए, जिनमें सोलह मरीजों की मौत हुई थी। दरअसल, इसकी पहचान एक बड़ी समस्या के रूप में अब भी बनी हुई है। लोग आमतौर पर स्वाइन फ्लू के लक्षण नहीं समझ पाते और बुखार या सांस फूलने की परेशानी को सामान्य सर्दी का असर मान कर अनदेखी कर देते हैं या घरेलू इलाज करने लगते हैं। यही कोताही घातक साबित होती है, क्योंकि इस बीच स्वाइन फ्लू का विषाणु काफी फैल चुका होता है। मुश्किल यह है कि स्वाइन फ्लू के जोर पकड़ने से पहले उससे निपटने के लिए तैयारी करने के बजाय मौसम के साथ समस्या के अपने आप टल जाने का इंतजार किया जाता है। दूसरी बीमारियों के मामले में भी यही स्थिति है। जब तक किसी रोग से पैदा हुई समस्या काबू से बाहर नहीं होने लगती, तब तक सरकारी महकमों की नींद नहीं खुलती। फिर जैसे ही किसी बीमारी का प्रकोप कमजोर पड़ने लगता है, सरकार यह मान कर निश्चिंत हो जाती है कि समस्या खत्म हो गई। लेकिन सच यह है कि बचाव के इंतजामों में लापरवाही के चलते खासतौर पर संक्रमण से होने वाली गंभीर बीमारियां फिर से जोर पकड़ लेती हैं। सरकार की ओर से चिंता जताई जाने के बावजूद लापरवाह रवैए के चलते ही कई बार उन लोगों की भी जान चली जाती है, जिनकी जिंदगी थोड़ी सावधानी बरतने से बचाई जा सकती थी।