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फेल होते राज्य में रास्ता शिक्षक ही दिखायेगा- पुण्य प्रसून वाजपेयी

पिछले दिनों छत्तीसगढ़ सरकार के आर्थिक और सांख्यिकी विभाग ने चपरासी के 34 पदों के लिए आवेदन निकाला. न्यूनतम शिक्षा मांगी गयी थी मैट्रिक पास. राज्य सरकार ने माना कि इतने कम पद हैं, तो ज्यादा से ज्यादा दो-ढाई हजार आवेदन आयेंगे. क्योंकि, छत्तीसगढ़ सरकार का दावा है कि दूसरे राज्यों की तुलना में छत्तीसगढ़ में बेहद कम बेरोजगारी है. 

दो बरस पहले जो आंकड़े जारी किये गये थे उसके मुताबिक, वहां एक हजार में सिर्फ 14 लोग ही बेरोजगार हैं. खैर मामला चपरासी पद की नौकरी का था. जब आवेदन आये, तो आर्थिक व सांख्यिकी विभाग के होश फाख्ता हो गये, क्योंकि चपरासी के 34 पद के लिए 75,786 आवेदन पहुंचे. आवेदन करनेवालों में सिविल और मैकेनिकल इंजिनयर से लेकर स्नाकोत्तर और पीएचडी कर रहे छात्र भी शामिल थे.

फौरन न सिर्फ लिखित परीक्षा रद्द कर दी गयी, बल्कि राज्य के सीएम रमन सिंह को पत्र लिख कर अधिकारियों ने पूछा कि परीक्षा करवाने का बजट कहां से लायें और जब पीएचडी से लेकर इंजिनियरिंग की डिग्री ले चुके छात्र चपरासी की परीक्षा देंगे, तो उसके पेपर को तैयार कौन करेगा और जांचेगा कौन?

किसी ने सवाल किया कि जब देश में कोई भी डिग्री चंद रुपयो में मिल जाती है, तो इंजीनियर हो या पीएचडी छात्र उसके लिए शिक्षा का महत्व तो नौकरी के लिए ही है. मौजूदा दौर में रोजगार को लेकर हर सरकार फेल है, क्योंकि देश में बेरोजगारों की तादाद लगातार बढ़ रही है. सिर्फ रोजगार दफ्तर में दर्ज बेरोजगारों के आंकड़े 125 लाख से ज्यादा हो चुके हैं. 
जो छात्र रोजगार दफ्तर तक नहीं पहुंचे, उनकी तादाद तो तीन करोड़ से ज्यादा है. यानी देश सवा चार करोड़ से ज्यादा बोरजगार युवाओं के कंधे पर सवार है. तो बड़ा सवाल यही है कि राज्य व्यवस्था फेल हो चुकी है और जिस संसदीय चुनावी राजनीतिक सत्ता के आसरे देश चल रहा है, वह न्यूनतम जरूरतों को भी पूरा कर पाने में सक्षम नहीं है, तो फिर नया नजरिया होना क्या चाहिए?
सबके लिए शिक्षा का सवाल कोई आज का नहीं है. संविधान बनने से पहले पहली राष्ट्रीय सरकार के शपथ लेते वक्त नेहरू ने भी सबके लिए शिक्षा को लक्ष्य बनाया था. 

जाहिर है, यह सवाल और लक्ष्य हर न्यूनतम जरूरत के साथ बीते हर लोकसभा में हर सरकार के वक्त गूंजा. लेकिन शिक्षा कब और कैसे सर्टीफिकेट और डिग्री में बदल गयी, कैसे सर्टीफिकेट और डिग्री लेना-देना अपने आप में एक ऐसा धंधा बन गया, जहां हर बरस इनकी खरीद-फरोख्त से करीब तीन लाख छात्र घर बैठे उच्च शिक्षा पाने लगे, कुछ कहा नहीं जा सकता. डिग्री मिलने लगी और इसी आधार पर राज्य नौकरी भी देने लगे. यानी रोजगार भत्ता देकर शिक्षा को भ्रष्ट बना कर नयी व्यवस्था खुद राज्य ने ही खड़ी की. 

अगर साठ हजार में बीएड की डिग्री मिल जाये और उसके आसरे अगर कोई राज्य शिक्षक की नौकरी देकर छह हजार का वेतन देने लगे, तो पढ़ने-पढ़ाने की जरूरत है कहां! यहां सवाल सिस्टम के फेल होते अंधेरे का नहीं, बल्कि अंधेरे को दूर करने का होना चाहिए. लेकिन सिस्टम ऐसा बना हुआ है, जिसमें जिसके पास राजनीतिक सत्ता होगी, उसकी सत्ता में बने रहने की जरूरत के हिसाब से ही समूचा तंत्र चलेगा.

आखिर शिक्षा को बचाने का रास्ता है क्या? नौकरशाह या राजनेता या कॉरपोरेट से तो आस जग नहीं सकती है. जाहिर है कोई भी शिक्षक की तरफ ही इस आस से देखेगा कि रास्ता वही दिखायेगा. लेकिन शिक्षक की भूमिका अब होनी क्या चाहिए. ओड़िशा की राजधानी भुवनेश्वर में चल रहे अच्युत सामंता द्वारा स्थापित ‘कलिंगा इस्टीट्यूट ऑफ सोशल सांइस' यानी ‘किस' में विदेशी छात्रों के लिए एक अंतरराष्ट्रीय स्कूल है और आदिवासी छात्रों के लिए मुफ्त शिक्षा भी. वहां छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, मध्य प्रदेश और बंगाल के करीब छह-सात हजार आदिवासी छात्र पढ़ रहे हैं. तकरीबन 15 से 18 हजार आदिवासी बच्चे खुद ओड़िशा से हैं. 

तो कल्पना करें, एक साथ एक ही कैंपस में 25 हजार आदिवासी बच्चे न सिर्फ मुफ्त शिक्षा पा रहे हैं, बल्कि उनके लिए मुफ्त रहने-खाने की भी व्यवस्था है. अब जरा सोचिए, जहां राज्य सरकारें मुनाफे की इस थ्योरी पर टिकी हैं कि किसी भी संस्थान को चलाने के लिए पूंजी चाहिए और पूंजी बिना कॉरपोरेट के दखल के मिल नहीं सकती, वैसे हालात में भुवनेश्वर में शिक्षा का यह मॉडल मिसाल ही है. सवाल भी यहीं से उठता है कि फेल होते राज्य के बीच अच्यूत सामंता का शिक्षा का मॉडल सफल कैसे हो जाता है और राज्य इसके बावजूद भी क्यों नहीं जाग पाते हैं? 

और जब चपरासी के 34 पद के लिए इंजीनियर और पीएचडी के छात्रों की फौज आवेदन करती है, जिनकी तादाद 75 हजार से ज्यादा होती है, तो समझना होगा कि जो ढांचा शिक्षा के नाम पर राज्य ने अपनाया है, वह शिक्षा है या शिक्षा के नाम पर एक ऐसा नैक्सस है, जिसके दायरे में हर कोई तब तक फंसेगा, जब तक राज्य की निर्भरता को नहीं तोड़ेगा.

अच्युत सामंता को स्कूल कॉलेज के लिए जमीन राज्य सरकार ने नहीं दी. 1991-93 में सिर्फ पांच छात्रों से 125 छात्रों तक को दो कमरों के घर में पढ़ाते हुए ही सामंता ने महसूस किया कि एक तबका शिक्षा पाने के लिए कोई भी कीमत दे सकता है और एक तबका शिक्षा पाने के लिए हर श्रम को करने के लिए तैयार है, सिवाय कुछ भी पैसे दे पाने के.

इस नायाब प्रयोग का असल चेहरा यह भी है कि आइआइटी की रैंकिंग के बाद भुवनेश्वर के ‘कलिंगा इस्टीट्यूट ऑफ इंडस्ट्रियल टेक्नोलॉजी' यानी ‘किट' की पहचान तमाम उत्तर-पूर्व राज्यों के छात्रों के बीच है और ‘किस' की पहचान उन तमाम आदिवासी इलाकों में है, जहां नक्सलवाद का शिकंजा है. 

लेकिन, आलम यह है कि आदिवासी अगर नक्सली हैं, तो वे भी किसी तरह अपने बच्चे को पढ़ाने के लिए ‘किस' भेजना चाहते हैं, ताकि उनके बच्चे शिक्षा पाने के बाद अपनी समझ से नक्सल प्रभावित हालात को भी समझ सकें और हक की लड़ाई के लिए समाज की मुख्यधारा में शामिल होकर नये नजरिये से आदिवासियों को भी राह दिखा सकें. यानी जिस दिशा में छत्तीसगढ़ के सीएम नहीं सोच सके, वह अपने शिक्षक होने के सरोकार से अच्यूत सामंता कर रहे हैं. 

और शिक्षा का कौन सा मॉडल किस रूप में अपनाया जाना चाहिए, इसे लेकर जब दिल्ली में बैठी सरकारें फेल साबित हो रही हैं, तब कोई शिक्षक ही कैसे रास्ता दिखा सकता है, इसका जीता-जागता प्रमाण है भुवनेश्वर का ‘किस' मॉडल. ‘किस' को महीने भर पहले संयुक्त राष्ट्र ने भी मान्यता दी है. लेकिन, एक सच यह भी है कि दिल्ली के राजनीतिक गलियारे में इस ‘किस' को कोई नहीं जानता है.