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बिहार चुनाव: क्या राज्य की कृषि व्यवस्था पूरी तरह से नाकाम हो चुकी है

-बीबीसी,

"हम दिन भर खेती करते हैं, दिन भर कमाते हैं और एसी वाले बैठकर खाते हैं. हम भी जनता हैं, हम वोट देने वाले हैं. हम काम देखेंगे. ऐसा नहीं कि आपको वोट दे दिया तो अपने घर में जाकर बैठ जाइए और हमारा विकास ना हो."

पूर्वी चंपारण में खेती करने वाले किसान अरविंद सरकारों की उदासीनता पर ग़ुस्से में कहते हैं.

उनके साथ-साथ बाक़ी कई किसानों की भी यही शिकायत है कि नेता किसानों का नाम तो बार-बार लेते हैं लेकिन ठोस कुछ नहीं करते.

किसान चंद्रप्रकाश पांडे भी कहते हैं, "गन्ना मिलें बंद पड़ी हैं, किसानों को भुगतान हो नहीं रहा है और कोई प्रतिनिधि इस पर कुछ बोल भी नहीं रहा. प्रतिनिधि भी सब चौपट हैं यहाँ."

बिहार चुनाव के लिए राष्ट्रीय जनता दल का संकल्प पत्र आ चुका है और जनता दल यूनाइटेड का सात प्वॉइंट एजेंडा भी लेकिन बिहार में किसानों की समस्या के स्थायी हल तक पहुँचने का रास्ता कोई नहीं दिखा रहा.

आज भी बिहार की 70 प्रतिशत जनता कृषि से जुड़ी हुई है. राज्य की जीडीपी में कृषि का योगदान लगभग 18-19 फ़ीसद है. लेकिन कृषि का अपना ग्रोथ रेट लगातार कम हुआ है.

साल 2005-2010 के बीच ये ग्रोथ रेट 5.4 फ़ीसद था, 2010-14 के बीच 3.7 फ़ीसद हुआ और अब 1-2 फ़ीसद के बीच है. बिहार में बाढ़ और सूखा लगातार आते रहते हैं. उत्तर बिहार बाढ़ से प्रभावित रहता है और उसी साल दक्षिण बिहार सूखे से.

बात बिहार के किसानों की...
उत्तर बिहार में किसानों की लगातार सातवीं फ़सल बाढ़ की वजह से बर्बाद हुई है. इस इलाक़े में अब तक पानी जमा है और अगली फ़सल की बुआई को लेकर किसान आशंकित हैं. हमने पूर्वी चंपारण के किसानों से मुलाक़ात की जिन्होंने बाढ़ के कुप्रबंधन से लेकर लचर बीमा योजनाओं का ज़िक्र किया.

इसी पूर्वी चंपारण से भाजपा नेता राधा मोहन सिंह भी आते हैं. वे 2009 से इस लोकसभा क्षेत्र के सांसद हैं. पाँच साल तक उन्होंने कृषि मंत्री का पद भी संभाला. लेकिन अरेराज और बंजरिया प्रखंड के जितने भी किसानों से हमने बात की, उन्होंने एक स्वर में कहा कि कृषि मंत्री इसी धरती के होकर भी उनके लिए कुछ नहीं कर पाए.

हाल ही में राधा मोहन सिंह ने नए कृषि क़ानून के बारे में मीडिया से बातचीत करते हुए कहा था कि "92 हज़ार करोड़ रुपये सीधा किसानों के खाते में डीबीटी (डायरेक्ट बेनिफ़िट ट्रांसफ़र) के माध्यम से गए हैं. किसान की जेबों तक एक साल में 72 हज़ार करोड़ रुपये पहुंचे हैं."

वैसे तो ये आंकड़ा काफ़ी बड़ा नज़र आता है लेकिन ज़मीन पर किसानों तक पहुँचते-पहुँचते छोटा होता जाता है.

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