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बच्चियों के जीने लायक बने दुनिया-- डॉ सय्यद मुबीन जेहरा

कुछ मौतों का जिक्र हमारी जबान पर इसलिए नहीं आता है कि हम अब बड़ी-बड़ी मौतों पर चिंतन करनेवाले लोग हो गये हैं और हमारे चिंतन का केंद्र बिंदु भी सिर्फ सियासी हो चुका है. इसमें समाज के लिए न तो पहले जगह थी और न ही अब है और अगर यही हालात रहे, तो आगे भी नहीं होगी!


जो समाज अपने बचपन से जुड़ी समस्या को लेकर चिंतित नहीं है, तो आप समझ लीजिये कि उसकी जिंदगी के दूसरे अहम मसले भी कभी हल नहीं होंगे. हमारे समाज ने ऐसी खबरों को शायद इतनी बारीकी से नहीं देखा है, जिस बारीकी से एक अदाकारा की अदाओं को. लगता है समाज की प्राथमिकताएं कुछ अलग ही हैं. इसलिए हमारे समाज को वह मिल रहा है, जिसके वह लायक है. वह नहीं, जो उसे मिलना चाहिए.


कुछ सप्ताह पहले आयी यूनीसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में हर साल जन्म के 28 दिनों के भीतर छह लाख नवजात शिशु मर जाते हैं. जिस देश में बच्चों से मजदूरी करायी जाती हो, जहां बच्चे ट्रैफिक सिग्नल पर भीख मांगते हों, जहां बच्चों के साथ हर तरह के जुल्मो-सितम हो रहे हों, यहां तक कि स्कूल तक में उनकी हत्या हो जाती हो, वहां अगर आंखें खोलते ही 28 दिन के भीतर ही मौत को गले लगा लेनेवाले बच्चों के बारे में कोई चिंतित नहीं है, तो इस पर हैरानी नहीं होनी चाहिए. लेकिन, यह बात तो तकलीफ देनेवाली है ही कि हमारा देश नौ महीने मां के पेट में सुरक्षित गुजारनेवाले छह लाख बच्चों को 28 दिन से ज्यादा जिंदा नहीं रख पाता है.


यूनीसेफ की रिपोर्ट के अनुसार, ये आंकड़े दुनिया में सबसे ज्यादा भारत के हैं. दरअसल, पहले 28 दिन की बात इसलिए की गयी है कि ये 28 दिन एक नवजात शिशु के लिए बहुत खास होते हैं और उसके जीवित रहने में मुख्य भूमिका निभाते हैं.
इस रिपोर्ट में जो एक संतोष की बात है, वह यह कि पांच साल से कम आयु के बच्चों की मौत की दर में कमी नजर आयी है, लेकिन इसके बावजूद यह सिलसिला चिंतित करनेवाला जरूर है, क्योंकि हर साल होनेवाली इन मौतों में से 80 प्रतिशत मृत्यु का कोई गंभीर कारण भी नहीं होता है.


कुल 184 देशों से निकाली गयी यूनीसेफ की रिपोर्ट- 'एवरी चाइल्ड अलाइव' यह भी बताती है कि हमारा समाज भविष्य को लेकर कितना संवेदनहीन है.


इसमें भारत को 25.4 प्रतिशत की नवजात मृत्यु दर (एक हजार जीवित बच्चों में) के साथ 31वीं रैंक पर रखा गया है. नवजात शिशुओं की मृत्यु दर मामले में भारत एक साल पहले 184 देशों में 28वें स्थान पर था. वैश्विक दर के अनुसार, हर एक हजार बच्चों में 19 नवजातों की मृत्यु हो जाती है. वैश्विक स्तर पर 26 लाख शिशु जन्म के पहले महीने में ही मर जाते हैं. गौरतलब यह है कि इनमें 80 प्रतिशत से अधिक मौतें गर्भावस्था के दौरान, समयपूर्व जन्म, और बीमारियों को लेकर जागरूकता न होने और उनकी सही रोकथाम न कर पाने के कारण ही होती हैं.


इस रिपोर्ट का एक और परेशान कर देनेवाला पहलू है कि नवजात शिशु की मृत्यु में अधिक संख्या लड़कियों की होती है. मेडिकल साइंस का मानना है कि पैदा होनेवाले बच्चों में लड़कियों में अधिक शक्ति होती है और बीमारियों से लड़ने की उनके अंदर ताकत भी ज्यादा होती है. लेकिन, अगर आंकड़े इसके उलट बता रहे हैं, तो फिर हमें यह मानना पड़ेगा कि इन लड़कियों की मृत्यु में कहीं-न-कहीं समाज की संवेदनहीनता सम्मिलित है. शायद ऐसा होता हो कि बच्चियों को बीमारी की सूरत में अधिक देखभाल या अच्छे डाॅक्टरों या अस्पतालों तक न ले जाया जाता हो, जबकि लड़कों के लिए ये सारी सहूलियतें आसानी से ले ली जाती हों.


यह कहते हुए मुझे अच्छा तो नहीं लग रहा है, लेकिन यहां यह भी मुमकिन है कि यह सोचा जाता हो कि यह मर ही जाये तो अच्छा है. लड़कियां अगर जिंदा रह जाती हैं, तो फिर हमारा यही मानना होगा कि समाज की बेहिसी के बावजूद वह अपनी ताकत से जिंदगी को अपने करीब ले आती हैं, जबकि समाज की तमन्ना उनको दुनिया से रुखसत कर देने की होती होगी.


इसके क्या कारण हैं? इस पर खूब लिखा जा चुका है, जिसमें हमारे समाज के अंदर घुस आयी एक लानत दहेज भी है, लेकिन शायद समाज में लड़कियों की रक्षा को लेकर चिंता सबसे ऊपर है. समाज में पहली बार लड़की के जन्म के बाद अगली बार लड़के के जन्म की चाह के चलते भ्रूणहत्या का सिलसिला भी चलता रहता है. कुछ समय पहले आयी नीति आयोग की 'हेल्दी स्टेट्स प्रोग्रेसिव इंडिया' नामक रिपोर्ट के अनुसार, देश के 21 बड़े राज्यों में से 17 में जन्म के समय लैंगिक अनुपात में भारी गिरावट दर्ज की गयी थी. इनमें कई बड़े राज्य भी शामिल हैं.


रिपोर्ट में कहा गया था कि मौजूदा स्थिति पर अंकुश लगाने के लिए भ्रूण का लिंग परीक्षण कराने के बाद होनेवाले गर्भपात के मामलों के प्रति कड़ा रुख अख्तियार करना जरूरी है.


इस रिपोर्ट के अनुसार, हर मां और बच्चे के लिए उत्तम और उचित स्वास्थ्य सेवा मौजूद होनी चाहिए. इसमें साफ पानी, स्वास्थ्य सेवा के लिए बिजली, जन्म के पहले घंटे में स्तनपान और मां-बच्चे के बीच संपर्क आवश्यक बताया गया है.


काश! हम यह सब करके अपने बच्चों को लड़का या लड़की की चिंता से दूर होकर न सिर्फ दुनिया में जीने दें, बल्कि दुनिया को भी उनके जीने के लायक बना सकें.