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बच्चों को किस भाषा में शिक्षा दें?-- आकार पटेल

बच्चों को किस भाषा में शिक्षा दी जाये- इस सवाल का जवाब देना आसान काम नहीं है. कुछ साल पहले नरेंद्र मोदी, जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे, ने मुझे इस समस्या के लिए अपना समाधान बताया था. मैं कुछ देर में आपसे उनकी बात को साझा करता हूं.

मैं इस बात का उल्लेख उन चार खबरों की वजह से कर रहा हूं, जो हाल के दिनों में प्रकाशित हुई हैं. एक खबर गोवा से है, जहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राज्य प्रमुख को वहां की भाजपा सरकार के विरोध के कारण पद से हटा दिया गया है.

आरएसएस की स्थानीय ईकाई ने गोवा के अंगरेजी माध्यम स्कूलों को राज्य से मिलनेवाले वित्तीय सहयोग का विरोध किया था. इसकी खास मांग यह थी कि चर्च की एक संस्था द्वारा संचालित 127 अंगरेजी माध्यम स्कूलों को अनुदान देना बंद कर दिया जाये. गोवा में चुनाव से पहले भाजपा ने भी शिक्षण संस्थाओं में कोंकणी और मराठी को माध्यम बनाये जाने पर जोर दिया था. लेकिन, जीतने के बाद इस मुद्दे पर उसके सुर नरम पड़ गये, क्योंकि उसका मानना है कि यह व्यावहारिक नहीं है.

भाजपा को यह बात समझ में आ गयी कि यह एक जटिल मुद्दा है और इसका कोई स्पष्ट समाधान नहीं है. शैक्षणिक माध्यम की भाषा के मामले पर स्वतंत्रता से पहले से ही बहस होती चली आ रही है.

रवींद्रनाथ टैगोर और गांधी का विचार था कि स्कूलों में शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होनी चाहिए. खासकर टैगोर का मानना था कि यदि बच्चों को किसी विदेशी भाषा में शिक्षा दी जायेगी, तो उनमें कलात्मक प्रतिभा और संवेदनशीलता का विकास नहीं हो सकेगा. मेरी समझ में गांधी द्वारा ऐसी ही राय रखने के पीछे अधिक देशभक्तिपूर्ण कारण थे.

इस बहस के दूसरी ओर जवाहरलाल नेहरू और गुजरात के विद्वान-राजनेता केएम मुंशी थे. इन दोनों ने टैगोर और गांधी की राय को खारिज नहीं किया, लेकिन उन्हें अंगरेजी से भारत को मिले फायदों के खो जाने की चिंता थी. इन फायदों में बाहरी दुनिया के ज्ञान तक पहुंच और एक आधुनिक कानूनी ढांचा शामिल थे. ये चारों व्यक्ति द्विभाषी थे और इसलिए इस मुद्दे को दोनों छोरों से समझ सकते थे. उनकी मुख्य राय उनकी प्राथमिकताओं पर आधारित थी.

इससे जुड़ी दूसरी खबर भोपाल के अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय की है. सिर्फ हिंदी में होने के कारण विश्वविद्यालय अपने पाठ्यक्रमों के लिए छात्रों को आकर्षित नहीं कर पा रहा है. एक रिपोर्ट में बताया गया है कि यह समस्या खासकर इंजीनियरिंग पाठ्यक्रम के साथ है.

छात्रों को आशंका है कि ऐसी डिग्री से उन्हें नौकरी नहीं मिल पायेगी. उन्हें यह भी चिंता है कि पहले से जाने हुए अंगरेजी के इंजीनियरिंग शब्दों को ताजा बने हिंदी के शब्दों से बदल दिया जायेगा. इस कारण 90 सीटों के लिए सिर्फ दर्जन भर छात्रों ने ही दाखिले के लिए आवेदन दिया है. ये सीटें नागर (सिविल), वैद्युत (इलेक्ट्रिकल) और यांत्रिक (मेकेनिकल) विभागों में इस वर्ष उपलब्ध हैं.

बहरहाल, अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय हताश नहीं है. इसके कुलपति प्रोफेसर मोहनलाल छीपा का इंडियन एक्सप्रेस में बयान प्रकाशित हुआ है- 'यदि हमें एक भी छात्र मिलेगा, तब भी हम इस वर्ष से पाठ्यक्रम शुरू करने के लिए प्रतिबद्ध हैं. हम लहरों के विपरीत तैर रहे हैं. अंगरेजी ने 250 साल पहले अपनी जड़ें जमायीं, हिंदी को उसे पकड़ने के लिए कुछ सालों की जरूरत है.'
तीसरी रिपोर्ट हिंदी में प्रकाशित कानूनों की कमी के बारे में थी. आम तौर पर कानून अंगरेजी में हिंदी अनुवाद के साथ पारित होते हैं.

द हिंदू की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में पर्यावरण सुरक्षा के लिए करीब 200 कानून हैं. रिपोर्ट में आगे बताया गया है, 'ये सभी कानून और नियम ऑनलाइन हैं, जिनमें भारत के गजट का नया डिजिटाइज्ड वेबसाइट भी शामिल है, जहां आप आराम से किसी भी कानून को खोज सकते हैं. लेकिन, यह सब सिर्फ अंगरेजी में है.' इसका एक कारण तो हिंदी में इंजीनियरिंग पाठ्यक्रम की मुश्किल जैसा हो सकता है. लोग अंगरेजी के टेक्निकल शब्दों से परिचित हैं और उन्हें बदलना भ्रम पैदा कर सकता है. एक अन्य कारण मांग की कमी भी हो सकती है.

चौथी खबर बिहार के एक बच्चे की है, जिसने नरेंद्र मोदी से अपने राज्य के सरकारी स्कूलों की बदहाली की शिकायत की है और उनसे इस बच्चे ने अंगरेजी को अनिवार्य बनाने का निवेदन किया है. उस बच्चे ने लिखा था- 'मेरे पिता बहुत थोड़ा कमाते हैं, जिस कारण हमें बिहार के एक सरकारी स्कूल में पढ़ाई करनी पड़ी. मैं आपसे निवेदन करता हूं कि आप बिहार सरकार से पहली कक्षा से ही अंगरेजी पढ़ाने के लिए कहें. अंगरेजी की कमी से ऊंची कक्षाओं में छात्रों को बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है.

यह एक ऐसा मुद्दा है, जिसे मोदी हर तरह से समझते हैं. गुजरात में आरएसएस ने पांचवीं कक्षा तक अंगरेजी पढ़ाने को बंद कर दिया है, और तब तक बहुत देर हो जाती है.

मोदी ने मुझे जो समाधान बताया था, वह था- कुछ विषयों को गुजराती में पढ़ाना और शेष विषयों को अंगरेजी में. जहां तक मुझे याद पड़ता है, वे गणित और विज्ञान को अंगरेजी में तथा इतिहास और भूगोल को गुजराती में पढ़ाने पर विचार कर रहे थे. मेरी समझ में यह एक शानदार समाधान था, हालांकि मुझे नहीं पता है कि क्या वे आरएसएस के दबाव में इस समाधान को अमली जामा नहीं पहना सके.

लेकिन यह भी एक सवाल है कि बच्चों को अंगरेजी पढ़ायेगा कौन, क्योंकि भारत में बहुत कम लोग हैं, जो पढ़ा सकने लायक अंगरेजी जानते हैं. निश्चित रूप से हमारे पास लाखों सक्षम जरूरी लोग नहीं हैं. जैसा कि मैंने पहले कहा, यह एक मुश्किल सवाल है. यह समस्या हमारे सामने बहुत लंबे समय तक बनी रहेगी, क्योंकि हम ऐसा एकमात्र बड़ा देश हैं, जिसका अभिजात्य वर्ग ऐसी भाषा बोलता है, जो विदेशी है.