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बजट के पीछे की राजनीति- नीलोत्पल बसु

केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने आम बजट पेश करके देश के सामने विकास का रोडमैप रखा है. इस बजट पर विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता और विशेषज्ञ क्या सोचते हैं. ‘बजट के पीछे की राजनीति' पर ‘प्रभात खबर' एक सीरीज शुरू कर रहा है. इसी सीरीज में आज पढ़ें पहली कड़ी.

एनडीए सरकार द्वारा पेश आम बजट और रेल बजट आम लोगों के लिए निराश करने वाला रहा. आम बजट में भी सिर्फ हवाई घोषणाएं की गयी हैं. गरीब, किसान और आम लोगों की चिंता सरकार को नहीं है. जिन नीतियों के कारण यूपीए सरकार को करारी हार का सामना करना पड़ा, वही नीतियां मोदी सरकार भी आगे बढ़ा रही है.

मोदी ने चुनाव प्रचार के दौरान महंगाई, भ्रष्टाचार, ग्रामीण विकास की बात जोर-शोर से उठायी थी, लेकिन सत्ता में आते ही इन वादों को भुला दिया गया. राष्ट्रपति के अभिभाषण में इसका जिक्र किया गया, लेकिन क्रियान्वयन कैसे होगा, इसके बारे में नहीं बताया गया. आम बजट में महंगाई पर नियंत्रण के लिए 500 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है, लेकिन क्या इस राशि से महंगाई नियंत्रित हो सकती है.

एक ओर सरकार के पास अनाज के पर्याप्त भंडार हैं. अगर इन अनाजों को पीडीएस के जरिये गरीबों तक पहुंचाया जाये तो खाद्य पदार्थ की महंगाई को नियंत्रित किया जा सकता है, लेकिन सरकार ऐसा नहीं कर रही है और जमाखोर इसका फायदा उठा रहे हैं. आर्थिक विकास दर को बढ़ाने के लिए बीमा और रक्षा क्षेत्र में एफडीआइ की सीमा बढ़ा दी गयी. पूर्व के अनुभव से साफ है कि इससे विकास दर नहीं बढ़ेगी. सरकार ने सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं का आवंटन कम कर दिया है. कृषि और इससे जुड़े क्षेत्रों के आवंटन में कटौती की गयी है.

राजस्व घाटा कम करने के लिए सरकार सब्सिडी के बोझ को कम करने पर आमादा है, जबकि लगभग पांच लाख करोड़ रुपये की छूट कॉरपोरेट को दी गयी है. आम आदमी की कीमत पर सरकार बड़े घरानों को फायदा पहुंचाना चाहती है. मोदी सरकार बजट का राजनीतिक इस्तेमाल कर रही है. कई योजनाओं के लिए 100 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है. ऐसी लगभग 28 योजनाएं हैं.

दरअसल भाजपा ने चुनाव प्रचार पर करोड़ों रुपये खर्च किया है. पूरे प्रचार अभियान में कॉरपोरेट ने काफी पैसा खर्च किया है. ऐसे में मोदी सरकार आम आदमी के मुंह में जीरा पहुंचा कर कॉरपोरेट को लाभ पहुंचाने की कोशिश बजट के जरिये की है. सार्वजनिक तौर पर मोदी सरकार आम आदमी के हितों की बात करती है.

लेकिन उन्हें राहत पहुंचाने के लिए सरकार के पास कोई नीति नहीं है. एक खास वर्ग को राहत और लाभ पहुंचाने के लिए रेल और आम बजट में कोशिश की गयी है. मौजूदा सरकार देश का विकास सिर्फ एफडीआइ और बड़े कॉरपोरेट घरानों के बल पर करना चाहती है. अगर इन नीतियों को आगे बढ़ाया गया तो इस सरकार की स्थिति भी यूपीए जैसी होगी.

आम बजट के साथ ही आर्थिक विकास और रेलवे के बेहतर हालात के लिए एफडीआइ और पीपीपी पर जोर दिया गया है. रेल बजट में मुंबई से अहमदाबाद के लिए बुलेट ट्रेन चलाने की बात कही गयी है. इस बुलेट ट्रेन को चलाने के लिए 60 हजार करोड़ रुपये चाहिए. यानी 400 किलोमीटर रेल नेटवर्क तैयार करने के लिए 60 हजार करोड़ रुपये. अगर ये मान लिया जाये कि ऐसी आठ गाड़ियां चलेंगी और हर गाड़ी में 800 लोग यात्रा करेंगे. लेकिन यदि इससे 10 हजार करोड़ का किराया नहीं आया तो क्या होगा? बुलेट ट्रेन के परिचालन और रखरखाव पर ही 5-6 हजार करोड़ रुपये खर्च होगा. इससे अधिक आमदनी नहीं होने पर यह योजना खटाई में पड़ जायेगी. भारतीय रेल आम लोगों की जीवन रेखा है.

मेरा मानना है कि बिना बजटीय सहायता के रेलवे का आधुनिकीकरण नहीं हो पायेगा. रेलवे हर साल सरकार को करोड़ों रुपये का डिवीडेंड देता है. सरकार ने माली हालत सुधारने के लिए बजट से पहले ही यात्रा ी और माल भाड़े के किराये में बढ़ोत्तरी कर दी है. रेलवे की आय का अधिकांश जरिया माल भाड़े से आता है. लेकिन माल भाड़े में बढ़ोत्तरी के कारण रेलवे से सिर्फ 30 फीसदी माल की ही ढुलाई हो पा रही है.

जबकि पहले लगभग 70 फीसदी माल ढ़ुलाई रेलवे से होती थी. सरकार को इस पहलू पर ध्यान देना चाहिए. रेलवे के निजीकरण से स्थितियां और खराब होंगी. 1993 में ब्रिटेन की रेल का निजीकरण कर दिया गया था. लेकिन दो दशक पूरा होने पर इसे लेकर वहां जोरदार बहस हुई. वहां की सरकार ने माना की रेलवे के निजीकरण का अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाया. भारत सरकार को इससे सीख लेनी चाहिए.