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बड़े बांध का बड़ा विरोध-- नवीन जोशी

कई तकनीकी एवं कानूनी रुकावटों और लंबे जन-आंदोलनों के बावजूद सरदार सरोवर बांध अंतत: अपनी पूरी ऊंचाई के साथ हकीकत बन गया. मगर ‘एक आदिवासी के विस्थापन की तुलना में सात आदिवासियों को लाभ पहुंचाने' के दावे वाले, दुनिया के दूसरे सबसे बड़े इस बांध के उद्घाटन के साथ बड़े बांधों के व्यापक नुकसान की चर्चा थम नहीं गयी है. 

 
बड़े बांधों के खिलाफ आवाज बुलंद करनेवालों के तेवर और तर्क अपनी जगह कायम हैं. बल्कि, सरदार सरोवर के उद्घाटन के बाद वे और ज्यादा गूंजने लगे हैं. 

 
यह सवाल और भी शिद्दत से पूछा जाने लगा है कि क्या विकास के लिए बड़े बांध जरूरी हैं? क्या बड़े बांधों के आर्थिक लाभ एक विशाल आबादी के अपने समाज, संस्कृति, पेशे, जमीन, रिश्तों, जीवन शैली और पर्यावरण से बेदखल होने की भरपाई कर सकते हैं? क्या छोटे-छोटे कई बांध उनका विकल्प नहीं हो सकते? 

 
यह संयोग नहीं है कि सरदार सरोवर बांध के उद्घाटन के दरम्यान उत्तराखंड में नेपाल सीमा पर महाकाली नदी पर प्रस्तावित पंचेश्वर बांध के विरोध में जनता आंदोलन कर रही है. 

 
पंचेश्वर दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी जल विद्युत परियोजना बतायी जाती है. यह टिहरी बांध से तीन गुना बड़ा होगा, जो पिथौरागढ़, चंपावत और अल्मोड़ा जिलों की चौदह हजार जमीन पानी में डुबो देगा. 134 गांवों के करीब 54 हजार लोग विस्थापित हो जायेंगे. विस्थापित होनेवाले लोगों के समूल उजड़ने की त्रासदी सिर्फ आंकड़ों से नहीं समझायी जा सकती. त्रासदी को कई गुना बढ़ा देनेवाली सच्चाई यह है कि विस्थापित लोगों के लिए राहत और पुनर्वास की ठीक-ठाक व्यवस्था करने में हमारी सरकारें कुख्यात हैं.

 
विरोध टिहरी बांध का भी बहुत हुआ था, लेकिन 2007 में उसे पूरा कर दिया गया. दावा था कि उससे 2400 मेगावाॅट बिजली बनेगी. हकीकत यह है कि आज उससे बमुश्किल 1000 मेगावाट बिजली पैदा हो पा रही है. सैकड़ों गांवों के जो हजारों लोग विस्थापित हुए थे, उनमें से बहुत सारे आज भी उजड़े ही हैं. 

 
टिहरी नगर की जो प्राचीन सभ्यता की क्षति का कोई हिसाब नहीं. टिहरी से विस्थापित नहीं होनेवाले, किंतु उस प्राचीन नगर से जुड़े कई गांवों की आर्थिकी और जीवनशैली नष्ट हो गयी, उसका भी कोई सरकारी हिसाब नहीं. 

 
हिमालय की कमजोर शैशवावस्था और भूकंप के बड़े खतरों के तर्क भी टिहरी बांध के समय नहीं सुने गये थे. अब पंचेश्वर बांध के समय तो बांध विरोधी जनता के तर्क सुनने का धैर्य भी नहीं रहा. इसका जवाब देनेवाला कोई नहीं है कि अगर टिहरी बांध अपनी घोषित क्षमता का एक तिहाई ही विद्युत उत्पादन कर पा रहा है, तो क्या गारंटी है कि पंचेश्वर बांध से 5040 मेगावाॅट बिजली बन ही जायेगी? और उत्तराखंड के उपजाऊ क्षेत्र से बड़ी आबादी का विस्थापन और पर्यावरण की क्षति उसके लिए किस तरह उचित है?

 
बड़े बांध बनाने के मामले में भारत का दुनिया में तीसरा नंबर है. राहत और पुनर्वास के मामले में वह फिसड्डी ही ठहरेगा. आजादी के बाद हीराकुड बांध पहला था, जिसका उद्घाटन करते हुए पंडित नेहरू ने बांधों को ‘आधुनिक भारत के मंदिर' बताया था.

 
विस्थापितों की समस्या पर तब उन्होंने कहा था कि ‘देश के हित में तकलीफ उठानी चाहिए.' देश के हित में तकलीफ उठाने का हाल यह है कि हीराकुड और भाखड़ा नंगल बांधों से विस्थापित होनेवाले लाखों लोगों में से कई के वंशज आज भी पुनर्वास का इंतजार करते हुए रिक्शा चला रहे हैं या मजदूरी कर रहे हैं. बाद में नेहरू जी बांधों से विस्थापित होनेवाली जनता के प्रति ज्यादा संवेदनशील हो गये थे. सन् 1958 में भाखड़ा नंगल बांध का उद्घाटन करते हुए उन्होंने कहा था कि भारत ‘विशालता के रोग' से पीड़ित हो रहा है. उसी दौरान मुख्यमंत्रियों को लिखे एक पत्र में उन्होंने इस बात पर जोर दिया था कि विकास परियोजनाओं की जरूरत और पर्यावरण की सुरक्षा की आवश्यकता में संतुलन बनाया जाना चाहिए.

 
सात-आठ दशक पहले जब सरदार सरोवर बांध की योजना बनी थी, तब बड़े बांधों के बारे में समझ एकतरफा थी. सोचा यह गया था कि नदियों की क्षमता का बेहतर उपयोग होगा, प्रदूषण-मुक्त बिजली मिलेगी और खेतों की सिंचाई हो सकेगी. लेकिन पचास के दशक तक आते-आते इससे उपजनेवाली बड़ी समस्याएं सामने आने लगी थीं. नेहरू जी का विचार-परिवर्तन इसी का नतीजा था. 

 
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी बड़े बांधों के तुलनात्मक लाभों पर सवाल उठने लगे थे. दुनियाभर में एक बड़ा वर्ग बड़े स्तर पर जन-जीवन के अस्त-व्यस्त होने के अलावा बांधों के क्षेत्र में जैविकी एवं पर्यावरण के तहस-नहस होने का मुद्दा उठाने लगा. उनकी आवाज को व्यापक समर्थन मिला. अमेरिका में अब तक करीब एक हजार बांध ध्वस्त किये जा चुके हैं और मध्यम आकार के बांधों को भी पानी की गुणवत्ता और नदी की संपूर्ण जैविकी को नष्ट करनेवाला माना जाने लगा है. मिस्र में नील नदी के प्रवाह-क्षेत्र में व्यापक क्षरण, कृषि-उत्पादन में गिरावट और कई परजीवी-जनित रोगों के लिए आस्वान बांध को जिम्मेदार ठहराया जाता है. 

 
हमारे देश में बड़े बांधों से उपजी समस्याएं और भी ज्वलंत इसलिए हैं, क्योंकि विस्थापित जनता को राहत देने और उनके पुनर्वास के मामले में घोर संवेदनहीनता बरती गयी. सरदार सरोवर और टिहरी बांधों के विरोध में छिड़े व्यापक आंदोलनों ने इन मुद्दों को जोर-शोर से उठाया. उन्हें समर्थन भी काफी मिला. नर्मदा बचाओ आंदोलन का ही नतीजा था कि सरदार सरोवर बांध के लिए मदद दे रहे विश्व बैंक ने बाद में अपनी शर्तें काफी कड़ी बना दीं, जो भारत सरकार को मंजूर नहीं हुईं और मदद अस्वीकार कर दी गयी.

 
सरदार सरोवर बांध के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने भी राहत और पुनर्वास के सवालों को अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना. एक समय तो उसने बांध के निर्माण पर रोक लगा दी थी. बाद में पूरी ऊंचाई तक निर्माण की इजाजत देते हुए विस्थापितों के पर्याप्त पुनर्वास और राहत प्रक्रिया की नियमित देख-रेख करते रहने के निर्देश दिये थे. 

 
बांध-विरोधी आंदोलनकारी न टिहरी बांध का बनना रोक सके, न सरदार सरोवर बांध को. सरकारों के तेवर से लगता है कि पंचेश्वर बांध भी बन कर रहेगा. इतने वर्षों के आंदोलन की सफलता यह है कि राहत और पुनर्वास के मुद्दों पर राष्ट्रव्यापी जागरूकता फैली है. यह भी स्वीकार किया गया है कि बड़े बांधों या विशाल परियोजनाओं वाले विकास-मॉडल का विकल्प अपनाया जाना चाहिए.