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बढ़ती बेरोजगारी के बीच-गिरीश मिश्र

नौजवानों के लिए इससे बड़ी त्रासदी क्या हो सकती है कि जब वह शारीरिक और मानसिक रूप से तैयार होकर उत्पादन के क्षेत्र में उतरने को तत्पर होता है, तब उससे कह दिया जाता है कि उसकी आवश्यकता नहीं है। ऐसे में उसका खुद पर गुस्सा लाजिमी है कि उसने अपने परिवार के संसाधनों का इस्तेमाल खुद को राष्ट्रीय उत्पादन में योगदान करने लायक बनाने के लिए व्यर्थ किया। मां-बाप ने अपनी जरूरतों में कटौती कर उसे पढ़ाया और उनकी आशा रही कि वह न सिर्फ अपने पैरों पर खड़ा होगा, बल्कि पारिवारिक आय में समुचित योगदान करेगा। नौजवान हो सकता है कि हताशा का शिकार हो, आत्महत्या, नशाखोरी या फिर आतंकवाद की ओर अग्रसर हो, कि उस सामाजिक व्यवस्था से उसका क्या लेना-देना हो सकता है, जिसे उसकी कोई परवाह नहीं।

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की ताजा रिपोर्ट ग्लोबल एंप्लायमेंट ट्रेंड्स 2012- प्रिवेंटिंग ए डीपर जॉब्स क्राइसिस में रेखांकित किया गया है कि उपर्युक्त स्थिति न आए, इसके लिए अगले दस वर्षों के दौरान दुनिया भर में कम से कम साठ करोड़ नौकरियों का सृजन करना होगा। रिपोर्ट के अनुसार, 2012 की शुरुआत के साथ ही दुनिया के सामने बेरोजगारी की समस्या विकराल रूप में आ गई है। पिछले तीन वर्षों के दौरान भूमंडलीय आर्थिक संकट ने पहले से उपलब्ध रोजगार के अवसरों को काफी कम कर दिया है। आगे आना वाला समय भी उत्साहवर्द्धक नहीं लगता। संकट के आरंभ होने के पहले से ही लगभग 20 करोड़ लोग बेरोजगार हैं। इस संकट ने दो करोड़ 70 लाख लोगों को बेरोजगारी की ओर धकेला है, जो उत्पादक कार्य बंद होने के कारण अपनी नौकरियां गवां बैठे हैं।

अगले दस वर्षों में श्रम शक्ति में 20 करोड़ अतिरिक्त लोग और जुड़ेंगे। इस प्रकार कम से कम 40 करोड़ और बेरोजगारी को पूरी तरह समाप्त करने के लिए 60 करोड़ रोजगार के अवसरों का सृजन करना होगा। अगर ऐसा नहीं होगा, तो रिपोर्ट के मुताबिक, समाज में बिखराव का खतरा पैदा हो सकता है। उल्लेखनीय है कि फिर भी दुनिया भर में 90 करोड़ मजदूर परिवार गरीब ही बने रहेंगे, क्योंकि इनमें से प्रत्येक की दैनिक आय दो डॉलर या उससे कम होगी। अतः चुनौती दोहरी है-रोजगार के नए अवसरों का सृजन, साथ ही रोजगारयुक्त प्रत्येक मजदूर की दैनिक कमाई दो डॉलर से अधिक हो, जिससे वह गरीबी रेखा से ऊपर आ सके।

रिपोर्ट की मानें, तो भूमंडलीय स्तर पर युवा समूह में बेरोजगारी का आतंक प्रौढ़ समूह की तुलना में तिगुना होने का अनुमान है। इसके अतिरिक्त लगभग 64 लाख युवा यह आशा खो बैठे हैं कि उन्हें अब कभी रोजगार के अवसर प्राप्त होंगे। वे श्रम बाजार छोड़कर चले गए हैं। जो रोजगारयाफ्ता हैं, उन्हें सदा यह डर सताता है कि पता नहीं, कब वे पूर्णकालिक से अंशकालिक रोजगार की ओर धकेल दिए जाएं या उनको अस्थायी कोटि में डाल दिया जाए। जहां तक विकासशील देशों का सवाल है, तो वहां कार्यरत गरीबों में युवाओं का अनुपात ऊंचा है। स्थिति को देखते हुए नहीं लगता कि निकट भविष्य में युवा लोगों की बेरोजगारी एवं निर्धनता की स्थिति में कोई फर्क आ सकेगा।

वर्ष 2007 में 61.2 प्रतिशत जनसंख्या रोजगारयाफ्ता थी, जो 2010 में घटकर 60.2 फीसदी रह गई। वर्ष 1991 के बाद रोजगार में आई यह सबसे बड़ी गिरावट है। यह गिरावट भले एक प्रतिशत की है, लेकिन विश्व की पूरी जनसंख्या के मद्देनजर यह काफी भयावह है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार, 2013 तक स्थिति सुधरने के बदले काफी खराब होगी, क्योंकि अर्थव्यवस्था के मंदी से बाहर आने के आसार बिलकुल नजर नहीं आ रहे। नतीजतन आम लोगों के जीवन स्तर में गिरावट आएगी।

मंदी के दौर में विकसित एवं विकासशील देशों के मजदूरों की औसत प्रति व्यक्ति उत्पादकता के बीच खाई लगातार बढ़ती जा रही है। वर्ष 2011 में विकसित देश का एक मजदूर सालाना औसतन 72,900 डॉलर मूल्य का उत्पादन करता था, जबकि विकासशील देश का मजदूर औसतन 13,600 डॉलर। इस कारण इन दोनों क्षेत्रों के मजदूरों के बीच आर्थिक असमानता बढ़ी है। रिपोर्ट ने रेखांकित किया है कि आर्थिक संकट चौथे वर्ष में प्रवेश कर रहा है और प्रयासों के बावजूद ऐसा नहीं लगता कि उससे जल्द छुटकारा मिल पाएगा। दरअसल वैश्विक निवेश में कोई जोरदार बढ़ोतरी नहीं दिख रही है, जिससे बेरोजगारी घटने की आशा जगे।

अब जरा भारत की ओर देखें। रिपोर्ट के अनुसार, हमारे यहां सकल घरेलू उत्पादकता में बढ़ोतरी अधिक उत्पादन का परिणाम रहा है, न कि रोजगार के अवसर में वृद्धि के कारण। दूसरे शब्दों में, रोजगार के नए अवसर बढ़ने के बजाय पहले से कार्यरत श्रमिकों से अपेक्षाकृत अधिक उत्पादन कराने से आर्थिक वृद्धि दर ऊंची हुई है। जाहिर है कि सरकार द्वारा आर्थिक विकास दर में वृद्धि का ढिंढोरा पीटकर वाहवाही लूटने की जो कोशिश 1990 के दशक से हो रही है, उसके पीछे एक बहुत बड़ी त्रासदी छिपी है। वस्तुतः विकास दरों में यह बढ़ोतरी रोजगारविहीन है, यानी वृद्धि दर के ऊपर उठने के परिणामस्वरूप रोजगार के अवसर नहीं बढ़ रहे। संगठित क्षेत्र में रोजगार की स्थिति जड़वत है।

रोजगार के नए अवसर मुख्यतः असंगठित या अनौपचारिक क्षेत्रों में पनपे हैं, जहां रोजगार नियमित नहीं है और न ही निर्वाह योग्य मजदूरी की कोई गारंटी है। वहां न काम के घंटे निर्धारित हैं और न बालश्रम पर रोक है। इस क्षेत्र में लोगों को छु्ट्टी की सुविधा नहीं है और न ही भविष्यनिधि की व्यवस्था है। गांवों से भागकर शहरों के गैरसंगठित क्षेत्र में कार्यरत श्रमिक अधिकतर मलिन बस्तियों में रहने को मजबूर होते हैं, जहां बिजली, स्वच्छ पेयजल, साफ-सफाई, शिक्षा, राशन की दुकानों आदि की कोई व्यवस्था शायद ही दिखती हो। तमाम घोषणाओं के बावजूद महिला रोजगार की स्थिति भी बिगड़ती जा रही है। वर्ष 2004-05 में महिला श्रमशक्ति भागीदारी 49.4 प्रतिशत थी, जो 2009-10 में घटकर 37.8 प्रतिशत रह गई। रिपोर्ट बताती है कि भारत में चुनौती रोजगार में वृद्धि की नहीं, बल्कि गैरसंगठित क्षेत्र की बढ़ोतरी की है। पर इस ओर कोई ध्यान ही नहीं दिया जा रहा है।