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बदल रहे हैं, गांव, देहात और जंगल- हरिवंश

फ़रवरी 2008 में चतरा के नक्सल दृष्टि से सुपर सेंसिटिव गांवों में जाना हुआ. साथ के मित्रों के भय और आशंका के बीच, देर शाम तक घूमना हुआ. सूनी सड़कों पर मरघट की खामोशी के बीच. तब तक लिखा यह अनुभव भी छपा नहीं. पाठक पढ़ते समय ध्यान रखें यह फ़रवरी 2008 में लिखी गयी रपट है.

कभी डालटनगंज-चतरा के इन इलाकों में खूब घूमना हुआ. समाजवादी चिंतक, अब बौद्ध अध्येता व दार्शनिक कृष्णनाथजी से सुना था. कैसे लोग पत्तों को खाकर जीवन गुजारते थे? रंका में वह खुद छह माह रहे. भूख के खिलाफ़ लड़ाई में शिरकत की. जेल गये. कृष्णनाथजी से बनारस पढ़ने के दौरान मिलना हुआ. उनके व्यक्तित्व, लेखन ने असर डाला. उनका स्नेह मिला.

वह कितनी ऊंचाई पर गये? आज कितने लोगों को वह याद हैं? उन पर फ़िर कभी. फ़िर रांची प्रभात खबर आना हुआ. और साबका हुआ, 1991-92 के अकाल से. प्रभात खबर, रांची के कुछ साथी, डालटनगंज के साथी, सब मिल कर सक्रिय हुए. त्रिदिव घोष, फ़ैसल अनुराग, डॉ सिद्धार्थ मुखर्जी, कर्नल बख्शी, गोकुल बसंत वगैरह के अनथक परिश्रम, प्रतिबद्धता और हर इलाके में भ्रमण से, अकाल मुद्दा बना.

राहत पहुंचायी गयी. तब पहली बार उस इलाके में जाना हुआ. फ़िर झारखंड बनने के बाद पड़े अकाल के दौरान. 2002-2003 के बीच. कुसमाटाड़ (डालटनगंज) में जीन द्रेज के साथ जन सुनवाई क्रम में पांकी ब्लॉक भ्रमण. तत्कालीन झारखंड सरकार की आवाज दबाने की हर मुमकिन कोशिश!इस चतरा यात्रा (फ़रवरी ’08) के दौरान ये सभी पुराने अनुभव याद आये. बगरा मोड़ पहुंचते-पहुंचते तीन बज गये. वहां से प्रभात खबर से जुड़े साथियों के साथ लावालौंग के अंदरूनी गांवों में जाना हुआ. पुलिस की शब्दावली में‘सुपर सेंसिटिव’एरिया.

सड़क सूनसान थी. पक्की सड़क से उतर, कच्ची सड़क पर यात्रा शुरू हुई. सूचना मिली कि इन जगहों पर बरसों से लैंड माइन बिछी हैं. पुलिस-प्रशासन दूर ही रहना चाहते हैं. पहले एमसीसी गुट का अघोषित राज था. अब अंदरुनी अंतर्विरोध से टीपीसी जन्मा है. ताकतवर और चुनौती देनेवाला. कहते हैं, इन इलाकों में अब एमसीसी का भय घटा है. टीपीसी का दबदबा बढ़ा है.

सिमरिया उपचुनाव में टीपीसी समर्थित प्रत्याशी चुनाव में उतरी थीं. चूड़ी चुनाव चि: था. सबसे अधिक वोट इस इलाके से मिले, टीपीसी समर्थित प्रत्याशी को. बदल रहे हैं, गांव..लावालौंग से सटे गांव, कच्ची, टूटी-फ़ूटी सड़कों से जुड़े हैं. आज तक बिजली नहीं पहुंची है. उप स्वास्थ्य केंद्र कभी कभार खुलता है.

1995 में प्रखंड बना. बीडीओ नहीं बैठते. कार्यालय भवन बन रहा है. पड़ोसी प्रखंड कुंदा है. कहते हैं, एमसीसी का जन्म स्थल ये दोनों प्रखंड हैं. यहीं का घी, बांस, खैर लकड़ी और बेशकीमती जंगली लकड़ियां मशहूर थीं. लावालौंग चौक से तकरीबन 10 किमी दूर एक गांव में जलील खां मिले. कहा. 15 साल से दौड़ रहा हूं. गांव में चापानल या कुआं के लिए? पर आवेदन मैं देता हूं, काम आवंटन कहीं और होता है.
पीने के पानी के लिए नदी जाना पड़ता है. इसी गांव के राज गंझू इंटर पढ़े हैं. नौकरी की तलाश में हैं. संजीत केशरी आइएससी करके बैठे हैं. विकास भारती के अशोक भगतजी की सुनाई एक नागपुरी कहावत याद आती है. ढेर पढ़ले घर छोड़ले कम पढ़ले हर छोड़ले.बुंदेली कहावत भी है, कम पढ़े थे, हर से गये, अधिक पढ़े घर से गये.

भाषा-बोली कोई भी हो, यह भाव-चिंता हर जगह है. शिक्षा व्यवस्था कुछ ऐसी है कि युवकों को न घर का रहने देती है, न घाट का. पढ़े लिखे युवक बेकार बैठे हैं. यह बोझ कोई समाज ढो सकता है? पर गांवों की कथा-व्यथा यही है. बगल के हुटरू गांव में गाय-गो के लिए भी पानी नहीं. कपड़ा धोने के लिए इधर-उधर दौड़ते हैं. पर गांव की बच्चियां स्कूल जा रही हैं.

कुछेक साइकिल की प्रतीक्षा में भी हैं. सरकार से साइकिल मिलने की योजना चर्चित रही है.यहां एक लड़की ने साइकिल मांगी. उसका साहस देख प्रभावित हूं. आगे बढ़ने की ललक है. हक मांगने का आत्मविश्वास. पीने के पानी का संकट है. सड़क नहीं है. बिजली नहीं है. गांव में कुआं कोई और खुदवाता है, कमीशन लेता है. पढ़ कर दो लड़के बैठे हैं. इनमें से एक अंधा बच्चा भी है.

उसकी मां कह रही थी. लोकतंत्र ने बेजुबानों को बोलने की आवाज दी है. इन इलाकों को देखते हुए लगता है. सरकारी योजनाओं ने लोगों को पराश्रयी बना दिया है. उनकी निजी पहल, हुनर-उद्यम खत्म हो गये. चीन ने मछली देकर भूख शांत नहीं की, मछली मारना सिखा कर हुनर दिया. भूख मिटाने का. भारत ने परनिर्भर बनाया. हर चीज के लिए सरकार की ओर आंख. आत्मस्वभिमान खत्म. याद आते हैं.

बचपन के दिन. पीएल 480 ( अमेरिकी सहायता) के तहत विदेशी गेहूं गांवों में बंटता था. राहत के लिए. जल्द कोई लेना नहीं चाहता था. गरीब लोग भी कहते, पहले मुसमात (विधवा), लाचार, बूढ़ों और अनाथ लोगों को दें. 1991-92 के आसपास पलामू अकाल के दिनों में भी ऐसा अनुभव हुआ. बुंडू-खूंटी के कुछेक गावों में लोगों ने राहत लेने से मना कर दिया. कहा, मुफ्त चीज नहीं लेंगे.

भारतीय समाज में श्रम-स्वाभिमान की यह धारा थी. अब हालात बदल गये हैं. समाज को भी मुफ्तखोरी की आदत पड़ गयी है. लोभ-लालच का दौर है. बिना श्रम, अर्जन की भूख. सरकारी विकास संस्कृति और भ्रष्टाचार ने हमें कहां पहुंचा दिया है?इसी प्रखंड में मुलाकात हुई, लुखरी बिरहोरिन से. कहती हैं, एको लुर ढंग का घर नहीं है. लुर शब्द सुनते ही मित्र मनोज प्रसाद याद आते हैं.

वह बार-बार कहते हैं, हमारे शासकों में लुर का अभाव है. यहां बिरहोरों के लिए सरकारी घर बने हैं. टूटे-फ़ूटे, अधूरे और कमरों में अंधकार. प्रकृति के बीच खुले जीनेवालों को यह रास नहीं आ रहा. रघु बिरहोर की शिकायत है कि अब खरहा सिरा (खत्म) गया. चटाई कम बिकता है. घर चूते हैं. छत गिरती है. कहते हैं. पहले पत्ता के घर में रहते थे. वह ठीक था. जीतन बिरहोर की दोनों आंखें खराब हैं. देख नहीं पाते. 10-15 वर्षो से. कहते हैं, यहां सरकारी इंदिरा आवास में ठंड है.

पत्ता घर में ठंड नहीं थी. दो बेटे हैं. कमाने बाहर गये. आज तक नहीं लौटे. पुराने दिन याद करते हैं. जंगल सिरा गया. पहले खरहा, तितिर, मुरगा-मुरगी, खाते थे. 80 के ऊपर के हैं, पर उम्र पूछने पर कहते हैं, का पता 40-45 वर्ष होइ. आज तक किसी को वोट नहीं दिया है.दरअसल बिरहोरों के लिए बड़ा बदलाव है. हजारों वर्ष से जिस जंगल में रैन बसेरा था. घूमंतू जीवन था. शिकार व्यसन था. अब वह दुनिया खत्म हो चुकी है.

पर उनका मन वहीं अटका है. ‘सरकार-शासन’, ऐसे घूमंतू लोगों के इस संक्रमण दौर में ‘मिडवाइफ़’ की भूमिका में होते, तो यह शहरी बदलाव उन्हें पीड़ा नहीं देता. सहज, सपाट और आसान होता जीवन बदलाव. पर यह परिवर्तन रोका भी नहीं जा सकता, क्योंकि मानव समाज के मूल में टेक्नोलॉजी और बाजार की भूमिका निर्णायक है.

बदलाव पीड़ादायक होता है, पर इसी पीड़ा और दुख से तप कर ही मानव समाज पत्थर युग से यहां पहुंचा है. और ये इलाके भी बदल रहे हैं. मोबाइल फ़ोन ने इन जंगल के गांवों को भी एक सूत्र में बांधा है. शायद यही कारण है कि आधुनिकता के इन प्रतीकों को नक्सली ढाह रहे हैं. हाल में नक्सली समूहों ने पांच-छह टेलीफ़ोन टावर उड़ा दिये हैं. मोबाइल की तरह सड़कों ने भी सूरत बदली है. आवागमन और संपर्क ने सीमित दुनिया का ताना-बाना तोड़ा है.

लोगों का बाहर आना-जाना महज यात्रा नहीं होती. विचारों, बदलावों के बयार भी इन यात्रियों के साथ गांव लौटते हैं. टीवी ने दुनिया को घरों-गांवों में समेट दिया है. भोग और बेहतर जीवन की भूख की आंधी गांवों में भी बह रही है. यह उपभोक्तावाद की हवा है. बाजार भी इस बदलाव का कड़ा कारक है. इस जंगल में बसे, इन गांवों-हाटों में चाउमीन, पापकॉर्न वगैरह धड़ल्ले से मिलते हैं.

सरकारी स्कूलों में पढ़ाई हो या न हो, छात्र-छात्राएं पंक्तिबद्ध होकर जाते हैं. बैंकों में ऋण लेकर निजी रोजगार-कारोबार के भी दरवाजे खुल रहे हैं.पिछले समाज में बदलाव के माध्यम थे, विचार, राजनीतिक दल, धर्म, सामाजिक सुधार आंदोलन वगैरह. पर अब एनजीओ संगठन और ठेकेदार बन गये राजनीतिक कार्यकर्ता भी अपने-अपने ढंग से अपनी छाप छोड़ रहे हैं.

गांवों में जो मजदूर शहर गये, वे भी बदल कर लौटते हैं.इस तरह ’90 के दशक में उदारीकरण के गर्भ में अनेक तत्व निकले हैं, जो गांवों का मानस बदल रहे हैं. यह बदलाव सिंगापुर के ली क्यान यू का कथन याद दिलाता है. भारत के गांवों के शहरीकरण के बिना नया भारत नहीं बनेगा.

वह कलाम के पूरा माडल से सहमत नहीं हैं. उनका मानना है कि चीन हर वर्ष एक करोड़ चीनी लोगों को गांव से शहर में बसा रहा है. ब्राजील में भी तेज नगरीकरण हो रहा है. ली याद दिलाते हैं कि पुराने ग्रीक को याद करें. क्या सुकरात और वर्जिल गांवों में रहते थे? नहीं, वे तब के शहरों में थे, जो सुविधा संपन्न थे.